उत्तराखंड को बचाने के लिए समर्पित और ईमानदार वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता

उत्तराखंड कमजोर चट्टानों पर बसा है, जहां प्रकृति से छेड़छाड़ नहीं है, फिर भी वैज्ञानिक चेतावनियों के बावजूद यहां विकास परियोजनाओं का काम चल रहा है
नवीन जुयाल भूगर्भ विज्ञानी हैं और भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद से जुड़े हैं
नवीन जुयाल भूगर्भ विज्ञानी हैं और भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद से जुड़े हैं
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नवीन जुयाल

नाजुकता, विविधता और देवत्व हिमालय पर बसे उत्तराखंड की पहचान है, जहां लगभग 900 ग्लेशियर (हिमनद) हैं, जो लगभग 2857 वर्ग किमी भौगोलिक क्षेत्र में फैले हैं। ये ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन के असर को मापने का सबसे आसान साधन हैं। जो गर्म जलवायु का प्रत्यक्ष संकेत देते हैं। हालांकि यह निश्चित नहीं है कि बढ़ती गर्मी का असर कितने समय के भीतर ग्लेशियरों पर दिखना शुरू हो जाता है, लेकिन यह माना जाता है कि बड़े ग्लेशियरों की तुलना में छोटे ग्लेशियरों पर (5 किमी से कम दायरे वाले) आसानी से असर दिख जाता है। उत्तराखंड में भी ग्लेशियर बहुत तेजी से पीछे हट रहे हैं।

उदाहरण के लिए, गंगा का स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर 9 मीटर प्रति वर्ष से लेकर लगभग 20 मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रहा है। इसी तरह, अलकनंदा घाटी से सटे ग्लेशियरों में भी ऐसी ही प्रवृत्ति दिखाई दे रही है। आंकड़ों से संकेत मिलता है कि बीसवीं सदी की पहली छमाही तक हर दशक में तापमान में औसतन 0.10 डिग्री सेल्सियस वृद्धि हो रही थी। जो 21 वीं सदी की शुरुआत में दोगुनी होकर 0.32 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक हो गई।

हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश हिस्सों में अन्य मौसमों की तुलना में सर्दियों में तापमान में वृद्धि की दर अधिक रही, जो चिंता का विषय है, क्योंकि सर्दियों के तापमान में लगातार वृद्धि ग्लेशियर के द्रव्यमान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है, जिसके चलते हिमस्खलन (एवलांच) की घटनाएं बढ़ती है। अप्रैल 2021 के दौरान गिरथी गंगा और हाल ही में भागीरथी नदी की एक सहायक दीन गढ़ घाटी में हिमस्खलन इसका एक उदाहरण हैं।

गिरथी गंगा हिमस्खलन के बाद प्रकाशित एक अध्ययन ने हमें आगाह किया था कि निकट भविष्य में उत्तराखंड हिमालय में इस तरह की घटनाएं बढ़ने वाली हैं। ग्लेशियरों के पिघलने से हिमनद झीलों का विकास होगा। जो कभी भी फट सकती हैं, जिससे ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड (जीएलओएफ) कहा जाता है।

आगे इसके अलावा यह भी देखा गया है कि हिमालयी उत्तराखंड में मौसम की असामान्य घटनाएं बढ़ रही हैं। जिससे वसंत के मौसम में जंगल की आग, हिमस्खलन, अचानक बाढ़ और भूस्खलन की आवृत्ति और परिमाण में वृद्धि हो रही हैं। हिमालय में हाल के एक अध्ययन से पाया गया कि मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन की वजह से 1951 से 2014 के दौरान हिमालय और तिब्बती पठार में प्रति दशक 0.2 डिग्री सेल्सियस की दर से तापमान बढ़ा। लेकिन ऊंचाई वाले क्षेत्रों (समुद्र तल से 4 किमी ऊपर) में तापमान में वृद्धि की दर लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक रही।

इतना ही नहीं, काराकोरम हिमालय को छोड़कर हिमालय कई क्षेत्रों में हाल के दशकों में सर्दियों में होने वाली बर्फबारी में कमी आई है। अनुमान है कि इस क्षेत्र में इक्कीसवीं सदी के अंत तक तामपान में 2.6 से 4.6 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है, जिससे ग्लेशियर के पिघलने की दर बढ़ेगी। उत्तराखंड में घटते ग्लेशियरों ने 2500 मीटर से ऊपर के क्षेत्रों में भारी तलछट (मलबा) छोड़ा है। जो मौसम की असामान्य घटनाओं के कारण विनाशकारी बाढ़ का कारण बन सकता है। ऐसे में, जरूरी है कि उत्तराखंड की विकास योजनाओं में आपदा जोखिमों के अनुमान को भी शामिल किया जाए। साथ हिमनद झीलों की नियमित निगरानी की भी आवश्यकता है।

उत्तराखंड में ऐसे अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि क्षेत्र में पिछले 1000 वर्षों के दौरान आई अधिकांश बाढ़ें उच्च हिमालयी क्षेत्र में झीलों के फटने से उत्पन्न हुई। इसके अलावा, उच्च हिमालय जो भूकंप क्षेत्र चार और पांच में स्थित है में अक्सर भूकंपीय गतिविधियों (भूकंप) होती हैं, जिससे भूस्खलन के साथ-साथ भारी बाढ़ आती हैं। वर्तमान में उत्तराखंड की नदियों की जलविद्युत क्षमता का दोहन करने की होड़ चल रही है। राज्य में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाओं के वितरण की प्रकृति को देखें, तो पाएंगे उच्च हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों द्वारा खाली किए गए क्षेत्रों में आबादी बढ़ने वाली है। जो सही नहीं है।

उत्तराखंड कमजोर चट्टानों पर बसा है। जहां प्रकृति से छेड़छाड़ ठीक नहीं है। बावजूद इसके वैज्ञानिक चेतावनियों को अनदेखा कर विकास परियोजनाओं का काम चल रहा है। हमें स्वच्छ ऊर्जा चाहिए, लेकिन हिमालय की पारस्थितिकी का भी ध्यान रखना होगा। वो भी ऐसे नाजुक समय में, जब जलवायु परिवर्तन पूरी तरह अपना असर दिखाने लगा है। जरूरत है कि हिमालय की भूवैज्ञानिक भेद्यता और पारिस्थितिक नाजुकता पर स्वतंत्र शोधकर्ताओं द्वारा दिए जा रहे सुझावों को लागू किया जाए। साथ ही, एक समर्पित और ईमानदार वैज्ञानिक हस्तक्षेप को प्रमुखता दी जाए।

(लेखक भूगर्भ विज्ञानी हैं और भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अहमदाबाद से जुड़े हैं, उन्होंने यह लेख डाउन टू अर्थ, हिंदी की आवरण कथा खंड-खंड उत्तराखंड के लिए लिखा है। )

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