

23 जनवरी 1967 की सुबह 5 बजे कोहरा छटने के बाद एक अमेरिकी सैन्य परिवहन विमान गुपचुप तरीके से दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर उतरा। वह फौलादी विमान अपने साथ एक खुली हुई मशीन, उसके पुर्जे और 17 वायुमंडलीय वैज्ञानिकों को लेकर आया था। ये वैज्ञानिक चाइना लेक, कैलिफोर्निया स्थित नेवल ऑर्डनेंस टेस्ट स्टेशन (एनओटीएस) से जुड़े थे।
वैज्ञानिकों का यह दल एक ऐसे गुप्त मिशन पर भारत आया था, जिसे किसी भी सार्वजनिक रेकॉर्ड में दर्ज नहीं किया गया। मौसम की टोह लेने और क्लाउड सीडिंग के लिए यह विमान अमेरिका ने 3,00,000 अमेरिकी डॉलर (2025 में लगभग 30 लाख डॉलर) की सहायता के तौर पर भेजा था।
यह सहायता बिहार में लगातार पड़ रहे सूखे की समस्या से निपटने के लिए दी जा रही थी, जिसे टाइम मैग्जीन ने “साल के सबसे बड़े मानवीय संकटों में से एक” बताया था। सूखा अकाल में तब्दील हो गया और इससे भारत-अमेरिका कूटनीति एक संवेदनशील मोड़ पर आ पहुंची।
अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने खाद्य सहायता रोक दी और इसके बदले कृषि प्रौद्योगिकियां देने का प्रस्ताव रखा। दरअसल भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने वियतनाम में अमेरिकी दखल की आलोचना की थी और लिंडन इससे नाराज थे। दूसरी तरफ जॉनसन को यह चिंता भी सता रही थी कि भारत सोवियत संघ के करीब जा रहा है।
अमेरिका से आई इस तकनीकी सहायता का मकसद बादल बनाकर बिहार की सूखी जमीन पर बारिश कराना था। एनओटीएस ने भारत से पहले कैरेबियन क्षेत्र में भी बारिश कराने की कोशिश की थी, जिसे प्रोजेक्ट स्टॉर्मफ्यूरी कोड नाम दिया गया था।
इसके जरिए अमेरिका लाओस और वियतनाम में मानसून के मौसम को लंबा खींचने की कोशिश कर रहा था ताकि उत्तरी वियतनाम की आपूर्ति लाइनों को बाधित किया जा सके (ऑपरेशन पोपई)। भारत में इस प्रोजेक्ट का कोड नाम ग्रोमेट रखा गया था। पाकिस्तान को मनाने के लिए उन्हें भी यह तकनीक देने की पेशकश की गई।
भारत में इस रेन-सीडिंग प्रोजेक्ट की शुरुआत बहुत गुप्त तरीके से की गई थी। झूठी उम्मीदें पैदा न हों, इसलिए इसकी चर्चा न तो राज्यों से की गई और न ही संसद में। अगर बारिश आ जाती तो फसलें बच सकती थीं। भारत इसे दुनिया के सामने एक वैज्ञानिक सफलता के रूप में पेश करता। अगर यह विफल हो जाती तो इसे चुपचाप सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) के अभिलेखागार में बंद कर दिया जाता। हालांकि बादलों ने साथ नहीं दिया।
कई दिनों तक आसमान साफ रहा। सीडिंग के लायक छिटपुट बादल फरवरी के बीच में आए। कुछ बड़े बादलों से भारी बारिश हुई, लेकिन ऐसी जगह जहां बारिश कराने का कोई इरादा नहीं था। कुछ जगहों पर हल्की बौछारें भर हुईं। ज्यादातर जगहों पर जरा सा पानी भी नहीं बरसा। जाहिर है नतीजे निराशाजनक थे।
भारत में रेन मेकिंग के ठीक से काम न करने से अमेरिका को जितनी निराशा हुई, उससे कहीं बड़ा झटका उसे तब लगा जब लाओस और वियतनाम में क्लाउड सीडिंग को “मौसमी हथियार” की तरह इस्तेमाल करने की उसकी योजना बुरी तरह फेल हो गई। दक्षिण-पूर्व एशिया में कम्युनिस्ट विद्रोहियों से लड़ने के लिए बारिश का इस्तेमाल करने की लचर योजना पहले ही मीडिया में लीक हो गई और इसकी जानकारी आम लोगों तक पहुंच गई।
वहीं, भारत में वैज्ञानिक समुदाय की तरफ से आलोचना का डर था, क्योंकि उन दिनों क्लाउड सीडिंग को हथियारों की तरह इस्तेमाल करने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा था। इसलिए इस प्रयोग से जुड़ी जानकारियों को दबा दिया गया। आखिर में जब बारिश लौटी और बिहार पर मंडराते अकाल का संकट टल गया तो वैज्ञानिक इस तकनीक के साथ मौसम से छेड़छाड़ करने के लिए फिर से फील्ड में लौट गए।
1940 के दशक से ही अटलांटिक के दोनों किनारों के वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बादल बना रहे हैं। बादल न्यूक्लिएशन नामक प्रक्रिया से बनते हैं। प्रकृति में मौजूद धूल, धुएं और समुद्री नमक के कण, छोटे-छोटे विद्युत आवेश लिए होते हैं जो अपने चारों ओर नमी जमा करते हैं और बादल बनाते हैं। नमक, ड्राई आइस और सिल्वर आयोडाइड जैसे पदार्थ कुछ मायनों में सुपरकूल्ड पानी की बूंदों की तरह होते हैं, जो उन्हें इतना भारी बना देते हैं कि वे बारिश के रूप में गिर सकें। इस जानकारी से लैस अमेरिकी वैज्ञानिकों को विश्वास हो गया था कि वे उस वक्त भी बारिश करवा सकते हैं, जब बरसात न हो रही हो। या फिर किसी दुश्मन देश से बादलों को हटाकर उसे सूखे की चपेट में ला सकते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों से पूरे शीत युद्ध के दौरान मौसम में बदलाव कर उसे हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए प्रयोग होते रहे।
बारिश कराने की तकनीक अपनाने वाले सबसे पहले देशों में से एक भारत भी था। यहां 1950 के दशक में ही बारिश कराने के लिए वैज्ञानिक प्रयोग शुरू हो गए और तब से अभी तक ये प्रयोग जारी हैं। भारत ने अरब सागर के ऊपर बड़े पैमाने पर फील्ड प्रयोग किए। भारत ने 1999 में “इंडियन ओशन एक्सपेरिमेंट” (आईएनडीओईएक्स) और 2002 में “अरबियन सी मॉनसून एक्सपेरिमेंट” (एआरएमईएक्स) शुरू किया। इन दोनों से मानसून के तंत्र को समझने में बहुमूल्य जानकारियां हासिल हुईं।
2006 में “इंटीग्रेटेड कैम्पेन फॉर एरोसॉल्स, गैसेज एंड रेडिएशन बजट” (आईसीएआरबी) शुरू किया गया। 2009 से 2015 के बीच पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान ने “क्लाउड-एरोसॉल इंटरैक्शन एंड प्रीसिपिटेशन एन्हांसमेंट एक्सपेरिमेंट” (सीएआईपीईईएक्स) का नेतृत्व किया। यह प्रयोग जमीन और हिंद महासागर के दोनों हिस्सों में किए गए, ताकि बारिश कराने की प्रक्रिया को समझा जा सके। इन प्रयोगों के नतीजे प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, लेकिन आम जनता तक इनकी जानकारी बहुत कम पहुंची।
2020 से अब तक कम से कम 39 देश क्लाउड सीडिंग की कोशिश कर चुके हैं। इनमें से सिर्फ ऑस्ट्रेलिया, चीन, भारत, इजराइल, दक्षिण अफ्रीका, थाईलैंड और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) जैसे कुछ देशों में हुए प्रयोगों से संबंधित रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इन अध्ययनों से पता चलता है कि क्लाउड सीडिंग से बारिश में लगभग 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो सकती है, लेकिन असफलता की संभावना 60 प्रतिशत तक हो सकती है।
ऑस्ट्रेलिया ने सूखे को कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग की कोशिश की, लेकिन ज्यादातर प्रयोग असफल साबित हुए। अर्जेंटीना और ऑस्ट्रिया ने ओलावृष्टि की तीव्रता कम करने के लिए इसका प्रयोग किया। कई अफ्रीकी देशों ने कृषि और पेयजल के लिए बारिश कराने के लिए निजी ठेकेदारों को यह जिम्मेदारी सौंपी है। चीन, दक्षिण कोरिया और पाकिस्तान ने धुंध (स्मॉग) को कम करने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल किया। 2008 में बीजिंग की हवा कथित तौर पर ओलंपिक खेलों से पहले और खेलों के दौरान अधिक स्वच्छ हो गई थी। इंडोनेशिया ने जंगल की आग को काबू करने के लिए इसका उपयोग किया। हालांकि, इस सबके बावजूद अब तक किसी भी देश में इस तकनीक के इस्तेमाल से लगातार सफलता नहीं मिली है।
क्लाउड सीडिंग के लिए कोई निश्चित मॉडल नहीं हो सकता। इसका कारण यह है कि यह प्रक्रिया बहुत सारे बदलते कारकों पर निर्भर करती है। क्षैतिज और ऊर्ध्वाधर पवन प्रणाली, बादलों की ऊंचाई और प्रकार, उनमें मौजूद पानी की मात्रा, धूल और कणों का स्तर, तापमान का अंतर जैसे बहुत से कारक इस पूरी प्रक्रिया पर काफी असर डालते हैं, जिससे अनिश्चितता बढ़ती है। यही वजह है कि क्लाउड सीडिंग महंगी, अव्यवहारिक तकनीक मानी जाती है और और कभी-कभी यह खतरनाक भी हो सकती है।
क्लाउड सीडिंग के पीछे के विज्ञान को लेकर सीमित संवाद से जनता के बीच बड़े पैमाने पर आशंकाओं ने जन्म लिया है। प्यू रिसर्च सेंटर के 2021 के एक सर्वे के मुताबिक, लगभग आधे अमेरिकी वयस्कों का मानना है कि क्लाउड सीडिंग जलवायु परिवर्तन के असर को कम करने में मदद कर सकती है, लेकिन अधिकतर लोग इसके संभावित दुष्प्रभावों की वजह से इसका विरोध करते हैं।
इस तकनीक से जुड़ी कोई पॉलिसी भी अब तक नहीं बनाई गई है, जिससे आम लोगों के बीच संदेह व षड्यंत्र की चर्चाओं को और ज्यादा बढ़ावा मिला। कुछ लोग यह तक मानते हैं कि अप्रैल 2024 में दुबई की बाढ़ या जुलाई में टेक्सास की “फ्लैश फ्लड्स” जैसी घटनाओं की वजह क्लाउड सीडिंग में हुई गड़बड़ी का नतीजा हो सकती है। दूसरी तरफ, क्लाउड सीडिंग अब एक तेजी से बढ़ता व्यवसाय भी बन चुका है, लेकिन इस पर कोई नियंत्रण या नियम नहीं है। अमेरिका के कोलोराडो और इडाहो राज्यों में स्की लॉज के मालिक निजी कंपनियों को बादलों को अपनी ओर खींचने और बर्फ गिरवाने के लिए किराए पर रख सकते हैं। स्विट्जरलैंड में इसका उपयोग पिघलते ग्लेशियरों को फिर से भरने के लिए किया जा रहा है। कुछ प्रयोग हैरीकेन और टाइफून को कमजोर करने के लिए भी किए गए, लेकिन वे असफल रहे।
हाल ही में क्लाउड सीडिंग फिर से सुर्खियों का हिस्सा बनी। अक्टूबर 2025 के आखिरी सप्ताह में दिल्ली में इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया, ताकि राष्ट्रीय राजधानी की हवा की गुणवत्ता सुधारी जा सके, लेकिन यह प्रयास असफल रहा क्योंकि आसमान में पर्याप्त बादल नहीं थे।
यह हालात कुछ मुश्किल सवाल खड़े करते हैं। अगर कोई देश बादलों को अपनी ओर मोड़ लेता है या कहीं और गिरने वाली बारिश को रोक देता है तो कानूनी तौर पर इसे कितना उचित माना जाएगा? वैश्विक स्तर पर क्लाउड सीडिंग को नियंत्रित करने वाला कोई विशेष कानून या संधि मौजूद नहीं है। वियतनाम युद्ध के बाद अमेरिका ने 1972 में “वेदर मॉडिफिकेशन रिपोर्टिंग एक्ट” बनाया ताकि घरेलू क्लाउड सीडिंग गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल होने से रोकने के लिए 1977 में एक वैश्विक समझौता तैयार किया गया, जिसे “एनवायरनमेंटल मॉडिफिकेशन कन्वेंशन” (ईएनएमओडी), जो युद्ध में इस्तेमाल करने के लिए मौसम में कृत्रिम बदलाव पर रोक लगाता है और साथ ही सूखा राहत जैसे मानवीय उद्देश्यों के लिए इसकी अनुमति भी देता है।
1979 के “कन्वेंशन ऑन लॉन्ग-रेंज ट्रांसबाउंड्री एयर पॉल्यूशन” का भी इस तकनीक से अप्रत्यक्ष संबंध है, क्योंकि क्लाउड सीडिंग में इस्तेमाल होने वाले केमिकल सीमापार दूसरे देश में प्रदूषण की वजह बन सकते हैं। पर्यावरण विष विज्ञान (ईकोटॉक्सिकोलॉजी) के वैज्ञानिक चेतावनी देते हैं कि आमतौर पर क्लाउड सीडिंग में इस्तेमाल किया जाने वाला सिल्वर आयोडाइड मिट्टी को दूषित कर सकता है और सूक्ष्मजीवों व जलचर जीवों को नुकसान पहुंचा सकता है। यूएई (संयुक्त अरब अमीरात) द्वारा बार-बार क्लाउड सीडिंग किए जाने से इसके पड़ोसी देशों में चिंताएं बढ़ गई हैं। इराक और ईरान ने भी यूएई की इन गतिविधियों पर आपत्ति जताई है।
इस तकनीक से जुड़े वैश्विक ढांचे के अभाव में अब हितों का टकराव आम बात हो गई है। विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) के महानिदेशक पहले यूएई के मौसम विज्ञान केंद्र और उसकी यूएई रिसर्च प्रोग्राम फॉर रेन एन्हांसमेंट साइंस (यूएईआरईपी) का नेतृत्व का चुके हैं। यह दोनों संस्थान क्लाउड सीडिंग को बढ़ावा देते हैं। डब्ल्यूएमओ में रहते हुए भी उन्होंने क्लाउड सीडिंग को आक्रामक रूप से आगे बढ़ाया है। डब्ल्यूएमओ के 2015 के बयान में क्लाउड सीडिंग को जलवायु परिवर्तन कम करने की संभावित रणनीति बताया गया, जबकि पहले के रिपोर्टों में चेतावनी दी गई थी कि यह विज्ञान अभी अधूरा है और इसका असर सिर्फ स्थानीय स्तर तक ही सीमित है। लेकिन डब्ल्यूएमओ की हालिया रिपोर्टों से यह चेतावनी अब गायब है।
हालांकि, जलवायु परिवर्तन के लिए बनाया गया अंतर-सरकारी पैनल आईपीसीसी नियमित तौर पर डब्ल्यूएमओ की रेन सीडिंग से जुड़ी बैठकों में भाग लेता है, लेकिन इस विषय पर उसका कोई आधिकारिक मत नहीं है। इसके छठे मूल्यांकन रिपोर्ट (एआर6) में केवल एक संक्षिप्त उल्लेख है। यह स्थिति आईपीसीसी के वैज्ञानिकों को भी दुविधा में डालती है। अगर वे क्लाउड सीडिंग को मान्यता देते हैं तो यह जियो-इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों के लिए दरवाजा खोल देगा। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जिसके बारे में अधिकतर विशेषज्ञ सहज नहीं हैं।
दरअसल, क्लाउड सीडिंग खुद एक प्रकार की जियो-इंजीनियरिंग है, जो खनिज यौगिकों की मदद से हवाओं और बादलों को प्रभावित करती है
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और स्थानीय व क्षेत्रीय जलवायु को बदल सकती है। अगर इसे बड़े पैमाने पर अपनाया गया तो यह पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन और जल चक्र को प्रभावित कर सकती है, जिससे वैश्विक जलवायु पर गंभीर असर पड़ सकता है।
क्लाउड सीडिंग सैद्धांतिक रूप से तो सही है, लेकिन हकीकत में इसे लागू करना इस समय व्यावहारिक नहीं है। इसे लागू करने के रास्ते में कई रुकावटें हैं। मौजूदा विज्ञान में इतने अच्छे टूल्स, संसाधन या कंप्यूटिंग क्षमता नहीं है कि इसके नतीजों का सही-सही अनुमान लगाया जा सके। हम अक्सर आदर्श परिस्थितियों पर आधारित मॉडलों पर जरूरत के हिसाब से भरोसा कर लेते हैं। ये मॉडल लैब में तो काम कर जाते हैं, लेकिन असली दुनिया में बुरी तरह फेल हो जाते हैं। इसलिए प्रयोगों को दोहराने में होने वाली समस्या एक गंभीर चेतावनी है। जैसे कोल्ड फ्यूजन के मामले में अलग-अलग लैब में एक जैसे नतीजे नहीं आए थे, वैसे ही क्लाउड सीडिंग में भी हमेशा एक-से नतीजे नहीं मिलते। अच्छी नीति वही है जिसमें लैब में मिलने वाली सफलता और जमीनी नाकामी के अंतर को समझा जाए।
क्लाउड सीडिंग पर निवेश करना जरूरी है। साथ ही यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इसका कहां इस्तेमाल किया जाना चाहिए, जैसे चक्रवात, सूखे और जंगल की आग के असर को कम करने में। हालांकि, इन सबसे ज्यादा जरूरी है एक समझौता जिसे दुनिया भर में लागू किया जा सके। जब तक हम प्रकृति को अच्छी तरह नहीं समझ लेते, हमें घमंड या बेवकूफ़ी नहीं, बल्कि समझदारी और विनम्रता दिखानी चाहिए।
(प्रणय लाल, प्राकृतिक इतिहास लेखक और सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता हैं)