जलवायु आपातकाल, कॉप-25: बेहद निराशा के साथ संपंन हुआ सम्मेलन

कॉप-25 में जलवायु विज्ञान और लोग जो चाहते हैं, उसको लेकर कोई निर्णय नहीं लिया जा सका, जो बेहद निराशाजनक है
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अब तक का सबसे लंबी अवधि तक चला जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) में पार्टियों का 25 वां सम्मेलन (सीओपी 25) बिना किसी परिणाम के समाप्त हो गया। इसे निराशाजनक माना जा रहा है।

स्पैन की राजधानी मैड्रिड में सीओपी 25 को असफल कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इसे लेकर  विकासशील और कम से कम विकसित देशों (एलडीसी) के बीच निराशा का माहौल है, क्योंकि उनमें से कई देश जलवायु परिवर्तन के अत्यधिक प्रभावों जैसे कि अत्यधिक वर्षा, समुद्र के स्तर में वृद्धि और उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के प्रति संवेदनशील हैं।

सीओपी 25 की असफलता से युवाओं, महिलाओं और स्वदेशी लोगों के समूहों और जलवायु एक्शन नेटवर्क (सीएएन) और कई प्रमुख पर्यावरण समूहों के बीच व्यापक नाराजगी देखी गई। 11 दिसंबर को ही सरकारी वार्ताकारों की निष्क्रियता के खिलाफ विरोध करने के लिए उपरोक्त समूहों से संबंधित लगभग 200 प्रदर्शनकारियों को कार्यक्रम स्थल से बाहर कर दिया गया था।

ये लोग क्लाइमेट जस्टिस के लिए तत्काल कार्रवाई की मांग कर रहे थे, लेकिन उन्हें सरकारी वार्ताकारों ने अंदर नहीं आने दिया। हालांकि तब भी ये जलवायु कार्यकर्ता अपने मुद्दों को लेकर अड़े रहे।

समापन सत्र में कैन के प्रतिनिधि ने कहा, "1991 में शुरू होने के बाद से ही इन जलवायु वार्ताओं का पालन किया जा सकता है और विज्ञान और लोग जो मांग करते हैं और जो सरकारें दे रही हैं, उसके बीच ऐसा कोई संबंध नहीं देखा गया है। हम देख चुके हैं कि बड़े देश, जो बड़े कार्बन उत्सर्जक भी हैं ने जलवायु वार्ताओं का पालन नहीं किया है, बल्कि इन देशों ने बड़े अहंकार के साथ पेरिस समझौते को छोड़ने की घोषणा कर दी है। शायद उनका इशारा अमेरिका की ओर था।

इन मुद्दों में से एक दीर्घावधि जलवायु वित्त पोषण (क्लाइमेट फंडिंग) था, जिस पर बैठक में शामिल देशों द्वारा सहमति व्यक्त की गई थी, लेकिन जब इसे समापन प्लेनरी में पेश किया गया, तो मजमून बदल दिया गया । मिस्र सहित कई देशों ने हटाए गए भाषा पर भ्रम व्यक्त किया, जिसके बाद सीओपी अध्यक्ष, कैरोलिना श्मिट ने घोषणा की कि यह मामला निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है और जब सत्र पूरा हो जाएगा, तब पार्टियों की बैठक होगी।

कॉन्फ्रेंस में वारसॉ इंटरनेशनल मैकेनिज्म (डब्ल्यूआईएम) को लेकर भी भ्रम की स्थिति रही। भूटान जैसे कई देशों ने कहा कि डब्ल्यूआईएम को यूएनएफसीसीसी और सीएमए दोनों की सेवा करनी चाहिए, अमेरिका इसका विरोध कर रहा था क्योंकि जब वह अगले साल पेरिस समझौता छोड़ देगा तो वह सीएमए का हिस्सा नहीं होगा। इसमें भी विकसित देशों के दबाव के चलते बदलाव किया गया। तुवालु के प्रतिनिधि ने इसे "मानवता के खिलाफ अपराध" और "एक पूर्ण त्रासदी" तक कह दिया।

एलडीसी के अध्यक्ष सोनम पी वांगडी ने एक बयान में कहा, "हमने मोज़ाम्बिक और मलावी में बाढ़ देखी है, सेनेगल और गाम्बिया में सूखा और बांग्लादेश और नेपाल में बाढ़। इन आपदाओं ने हजारों लोगों को मार डाला, घरों और समुदायों को मिटा दिया, खेतों और फसलों को नष्ट कर दिया। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह केवल बदतर हो रहा है। अधिक जलवायु कार्रवाई और समर्थन की तत्काल आवश्यकता है, लेकिन यहां कुछ देश कन्वेंशन और पेरिस समझौते के तहत अपने दायित्वों को सीमित करने के लिए काम कर रहे हैं।”

पेरिस समझौते के अनुच्छेद 6 के बारे में, उन्होंने कहा कि “इन नियमों का सभी देशों को पालन करना चाहिए और वैश्विक उत्सर्जन को रोकना चाहिए। हम कुछ देशों द्वारा इच्छा की कमी से बेहद निराश हैं।”

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