आज जलवायु के क्षेत्र में नेट जीरो एक उभरता हुआ नारा है। जिसके अर्थ में स्पष्टता की कमी है। जिसका अर्थ हुआ कि आज जितना हम कार्बन उत्सर्जित कर रहें हैं, उससे अधिक मात्रा में हमें वातावरण से कार्बन को साफ करना होगा । दुनिया भर में नेट जीरो एमिशन की मांग में उस समय तेजी आ गयी, जब आईपीसीसी ने ग्लोबल वार्मिंग और 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। गौरतलब है कि आईपीसीसी, संयुक्त राष्ट्र के आधीन बनाया गया एक अंतर सरकारी पैनल है, जिसका लक्ष्य जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटना है।
रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक स्तर पर हो रही ग्लोबल वार्मिंग को यदि 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना है तो दुनिया को अपने कार्बन उत्सर्जन को 2018 से 2100 के बीच 420 से 570 गीगाटन के बीच सीमित रखना होगा । हालांकि इसके बावजूद इसके 1.5 डिग्री पर सीमित रहने की सम्भावना 66 फीसदी ही है। जबकि यदि कार्बन उत्सर्जन में हो रही वृद्धि 2018 के मौजूदा 37 गीगाटन पर बनी रहती है, तो दुनिया अगले 12 वर्षों में अपने कार्बन बजट को पूरी तरह समाप्त कर देगी। जिसका अर्थ यह हुआ कि इसके बाद 1.5 डिग्री के लक्ष्य को हासिल करना नामुमकिन हो जाएगा। इससे होने वाली तबाही से बचने के लिए दुनिया को 2050 तक अपने कार्बन उत्सर्जन को नेट जीरो करना ही होगा। इसके बाद इस सदी के अंत तक कार्बन उत्सर्जन को निगेटिव करना होगा। जिसका अर्थ यह हुआ कि जितना कार्बन उत्सर्जन हो रहा है उससे अधिक को साफ करना होगा ।
आसान नहीं है नेट जीरो एमिशन की डगर
2050 में एमिशन के नेट जीरो हो जाने के बावजूद हमें 2051 से 2 गीगाटन कार्बन साफ करना होगा । इसके बाद 2060 से हर साल 2 से 12 गीगाटन के बीच और 2100 तक हर साल लगभग 4 से 20 गीगाटन के बीच कार्बन को धरती से खत्म करना होगा। रिपोर्ट के अनुसार इसके लिए दुनिया को कोयले का उपयोग पूरी तरह बंद करना होगा। और अपनी ऊर्जा सम्बन्धी जरूरतों के लिए ऊर्जा के अक्षय स्रोतों और गैस की ओर शिफ्ट होना होगा। साथ ही वातावरण में बड़ी मात्रा में मौजूद कार्बन को खत्म करने और उसे वातावरण से हटाने के तरीकों और साधनों पर भी ध्यान देना होगा । इसका अर्थ यह नहीं है कि हर देश नेट जीरो होने के लिए 2050 तक का इंतजार कर सकता है। विकसित देशों को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए बहुत पहले ही इसकी ओर बढ़ना चाहिए।
यूरोपियन क्लाइमेट पालिसी थिंक टैंक सैंडबैग के ब्रुसेल्स ऑफिस की प्रमुख सुजाना कार्प ने स्पष्ट किया है कि केवल 2030 से पहले की गयी कार्यवाही ही 1.5 और 2 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्यों को पूरा करने में योगदान कर सकती है। उनके अनुसार, "2050 की चर्चा तब तक बेकार है जब तक कि 2030 से पहले इस दिशा में भारी कटौती पर ध्यान नहीं दिया जाता।" यह अंतर इसलिए भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि विकसित देशों ने अपने हिस्से के कार्बन बजट का बड़ा हिस्सा पहले ही खत्म कर दिया है। और यदि चीन को अलग कर दें तो इस असमानता के कम से कम अगले दशक तो इसी तरह बने रहने के पूरे आसार हैं।
विकसित देश, क्लाइमेट इक्विटी की मांगों को दबाने के लिए चीन का उदाहरण दे रहे हैं। लेकिन यह उदाहरण किसी भी तरह विकसित और विकासशील देशों के बीच की जिम्मेदारी और क्षमता की खायी को नहीं पाट सकता। राष्ट्रीय स्तर पर तय किये गए नेट जीरो एमिशन के लक्ष्य में भी यह अंतर दिखना चाहिए। हालांकि इसके बावजूद विकसित देश इन लक्ष्यों की भावना का सम्मान किए बिना लगातार नेट जीरो एमिशन और 2050 के लक्ष्यों को झुठलाते रहे हैं।
केवल स्वीडन ने ही निर्धारित किया लक्ष्य
नेशनल नेट जीरो एमिशन सम्बन्धी कानून को अपनाने वाले पांच देशों (स्वीडन, नॉर्वे, ब्रिटेन, फ्रांस और न्यूजीलैंड) में से केवल स्वीडन ने ही 2050 तक नेट जीरो एमिशन को प्राप्त करने का लक्ष्य निर्धारित किया है। नेट जीरो एमिशन आज जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अत्यंत आवश्यक है। पर सच यही है कि बहुत ही कम देश ऐसे हैं, जिन्होंने इस जुमले को सच करने का प्रयास किया है। सही मायनों में नेशनल नेट जीरो एमिशन का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरुरी है कि प्राकृतिक रूप से कार्बन को हटाने एवं सोखने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा सही पूर्वानुमान किया जाये और इसकी क्षमता को बढ़ाने के लिए अधिक प्रयास किये जाएं।
इसके साथ ही कार्बन डाइऑक्साइड को हटाने के लिए तकनीकी क्षमता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। कार्बन क्रेडिट को भी सोच समझकर अमल में लाना चाहिए और इसे अपनाने में पूरी ईमानदारी बरती जानी चाहिए। अन्यथा एमिशन को कम करना मुश्किल हो जायेगा या फिर इसको कम करने के लिए जो कीमत चुकानी होगी वो बहुत ज्यादा होगी। इन सब में सबसे महत्वपूर्ण है कि इस समस्या से निपटने के लिए जो भी समाधान किये जाए वो समता पर आधारित होने चाहिए। जिसमें सभी के हितों का ध्यान रखा जाए और सभी के दायित्व समान होने चाहिए, लेकिन उनके निर्धारण में उनकी हिस्सेदारी का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वो कितनी होगी।