वर्ष 2020 में हम नए साल में इस अत्यावश्यक एजेंडे के साथ प्रवेश कर रहे हैं कि पेरिस समझौते में तय किए गए लक्ष्य के अनुसार ग्लोबल वार्मिग को नियंत्रित करने के लिए ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में कमी लाएंगे।
इस समझौते के अंतर्गत देशों पर दबाव बनाया जाता है कि वे प्री-इंडस्ट्रियल स्तर पर औसत वैश्विक तापमान में इजाफा 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने का प्रयास करें। उन्हें वैश्विक तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है। ये सब मुख्य रूप से स्वतः प्रेरित सहयोग यानी नेशनली डेटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस या एनडीसी तहत किया जाता है।
पेरिस समझौते के आर्टिकल 4 में कहा गया है कि हर देश हर पांच वर्ष के अंतराल पर एनडीसी की समीक्षा करेगा। आर्टिकल के मुताबिक, समीक्षा के बाद जो नया एनडीसी पेश किया जाएगा, वो पहले के एनडीसी के मुकाबले ‘प्रगतिशील’ होगा और उसमें उच्च लक्ष्य तय किए जाएंगे।
दूसरे चरण का लक्ष्य 2020 में घोषित किया जाएगा। हालांकि, एनडीसी के पहले चरण के लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में प्रगति बेहद कम है, फिर भी नये महात्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित करने से ये संकेत मिलेगा कि राजनीतिक इच्छाशक्ति अब भी बाकी है। यद्यपि अमरीका में ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं है।
जिन देशों ने वर्ष 2020 में एनडीसी में सुधार करने की घोषणा की है या ऐसा करने का संकेत दिया है, वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में उनकी भागीदारी 20 प्रतिशत से भी कम है। ऐसा संकेत देनेवाले देशों में यूरोपीय संघ (वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 7.41 प्रतिशत हिस्सेदारी) सबसे अहम है। यूरोपीय संघ वर्ष 2030 तक ऊर्जा उत्पादन में रिन्युअल स्रोतों के इस्तेमाल का लक्ष्य 27 प्रतिशत से बढ़ा कर 30 प्रतिशत करने पर राजी हुआ है। साथ ही उसने ऊर्जा क्षमता का लक्ष्य 30 प्रतिशत से बढ़ा कर 32.5 प्रतिशत किया है।
मैक्सिको ने (वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 1.49 प्रतिशत की हिस्सेदारी) फिलहाल वर्ष 2030 तक वर्ष 2000 के स्तर से कार्बन उत्सर्जन में 22-36 प्रतिशत तक की कमी और वर्ष 2050 तक 50 प्रतिशत तक की कमी लाने का लक्ष्य रखा है। ये लक्ष्य वर्ष 2016 में प्रकाशित हुई मध्य सदी रणनीति में शामिल था और मैक्सिको दृढ़तापूर्वक कहता है कि वह वैश्विक औसत तापमान में इजाफे को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने को लेकर प्रतिबद्ध है। मैक्सिको वर्ष 2020 में नया एनडीसी लाने को भी इच्छुक है, लेकिन ऐसा कोई संकेत अब तक नहीं मिला है कि वह वैश्विक तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की इच्छा रखता है कि नहीं या कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को कितना बढ़ाएगा।
दक्षिण कोरिया (वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में 1.29 प्रतिशत हिस्सेदारी) के साथ भी कुछ ऐसी ही चिंताएं हैं। दक्षिण कोरिया ने पेरिस समझौते से काफी पहले वर्ष 2009 में ही वर्ष 2050 की रणनीति प्रकाशित की थी। अन्य अहम देश जो कार्बन उत्सर्जन करते हैं, उनमें दक्षिण अफ्रीका (वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 1.08 फीसद हिस्सेदारी), नाइजीरिया (वैश्विक कार्बन उत्सर्जन में 1.01 फीसद हिस्सेदारी), अर्जेंटीना (0.91 फीसद कार्बन उत्सर्जन) और युक्रेन (0.7 प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन) शामिल हैं। इन देशों ने वर्ष 2020 में एनडीसी को संशोधित करने की इच्छा जाहिर की है।
विकासशील अर्थव्यवस्था होने के नाते इन देशों को वर्ष 2030 से 2050 के बीच कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को बढ़ाना होगा। हालांकि, ऐसा करने के लिए इन देशों के पास घरेलू नीति तंत्र है या कि नहीं, यह स्पष्ट नहीं है।
इन विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में लक्ष्य बढ़ाने में कमी हालांकि बहुत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा जिम्मेदारियों के निर्वाह की तिलांजलि देने की तुलना में कम चिंताजनक है। अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, चीन, रूस और ब्राजील में पेरिस समझौते की भावना की अनदेखी करने के अलावा बहुत कम एकजुटता है। जोहानसबर्ग की अंतरराष्ट्रीय गैर-लाभकारी संस्था एक्शनएड में ग्लोबल लीड ऑन क्लाइमेट चेंज हरजीत सिंह कहते हैं, प्रयासों और संसाधनों में अच्छी साझेदारी व हिस्सेदारी के आधार पर प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं को आगे आने की जरूरत है। उन्होंने आगे कहा, “अगर चीन और भारत को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सीमित रखने के लिए कार्बन उत्सर्जन घटाना है, तो उन्हें क्षमता विकास, तकनीकी और वित्तीय मदद के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग की जरूरत पड़ेगी।”
ऑस्ट्रेलिया ने वर्तमान में वर्ष 2005 के स्तर पर वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 26-28 प्रतिशत तक की कमी लाने का लक्ष्य रखा है। इससे वैश्विक औसत तापमान में 4 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है, जो दूनिया का सबसे खराब संकल्प है और ये क्लाइमेट चेंज अथॉरिटी के मशविरों की अवहेलना करता है। क्लाइमेट चेंज अथॉरिटी कार्बन उत्सर्जन 45 प्रतिशत तक कम करने की अनुशंसा करती है। इस साल नकारवादी लिबरल/नेशनल गठबंधन सरकार का चुनाव है और हालात और भी खराब होने के आसार हैं।
ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी के क्लाइमेट एंड एनर्जी कॉलेज की रिसर्च फेलो केट डूले कहती हैं, “सरकार ने पेरिस समझौते के तहत अपने संकल्प में बढ़ेतरी को लेकर कोई रूचि नहीं दिखाई है। लेकिन, इसकी जगह वह वर्ष 2030 के कमजोर लक्ष्य को हासिल करने के लिए आंकड़ों में तिकड़म करने की योजना बनाती है।”
चीन को प्रायः जलवायु नेतृत्व के उम्मीदवार के रूप में प्रस्तावित किया जाता रहा है। अगर ऐसा होता है, तो मौजूदा लक्ष्य के मुकाबले बड़े लक्ष्य निर्धारित करने होंगे। इसके अलावा इसका प्रभाव तेजी से पड़ोसी देशों में बढ़ रहा है। अगर चीन के वन बेल्ट वन रोड की सभी परियोजनाएं पूरी हो जाएंगी, तो ये परियोजनाएं अकेले वैश्विक कार्बन बजट को खत्म कर देंगी। हालांकि, इसको लेकर चीन अभी मिश्रित प्रतिक्रिया दे रहा है। जून में हुए जी20 सम्मेलन में चीन और फ्रांस ने संयुक्त रूप से तस्दीक की कि वे पेरिस समझौते में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को इस तरह अपडेट करेंगे कि वो मौजूदा लक्ष्य से ज्यादा दिखेगा। फिर भी अक्टूबर में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन जैसे बुनियादी देशों के सम्मेलन में चीन लक्ष्य बढ़ाने को लेकर चुप था।
रूस इस वर्ष के पूर्वार्द्ध में पेरिस समझौते में शामिल हुआ है, लेकिन पहले चरण के लक्ष्य को लेकर रूस की कोई महात्वाकांक्षा नहीं है। जलवायु को लेकर रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमिर पुतिन के निराशाजनक रवैये से पता चलता है कि रूस का कदम रक्षात्मक था और ऐसा केवल इस समझौते में अपनी जगह (बाधा संभावित) बनाने के लिए किया गया था। ऐतिहासिक रूप से जलवायु परिवर्तन के मामले में नेतृत्वकर्ता ब्राजील पिछले साल के चुनाव में जेर बोल्सोरारो के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद तेजी से अधोगति की तरफ बढ़ा है। फिर भी ब्राजील को इस समझौते में रखा गया है, क्योंकि यूरोपीय संघ ने धमकी थी कि वह मुक्त व्यापार समझौते को खत्म कर देगा। ऐसे में इसे वर्ष 2020 में लक्ष्य बढ़ाने की दिशा में अच्छा संकेत तो नहीं माना जा सकता है।
कनाडा में हाल में हुए राष्ट्रीय चुनाव में जलवायु नीति को केंद्र में रखा गया था। मध्यमार्गी-वामपंथ शासित गठबंधन के संकल्प में वर्ष 2050 तक नेट-शून्य कार्बन उत्सर्जन से लेकर (प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो की लिबरल पार्टी) 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सीमित रखने के राष्ट्रीय लक्ष्य (जगमीत सिंह की न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी) हासिल करने के लिए अधिक न्यायसंगत और महत्वाकांक्षी वादे शामिल थे।
यूरोपीय संघ की राष्ट्रीय जलवायु विधि में वर्ष 2050 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य है। यह हालांकि वैश्विक तापमान के इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रखने के अनुकूल नहीं है। यही वजह है कि विपक्षी लेबर पार्टी दिसंबर में होनेवाले चुनाव को लेकर अपने चुनावी घोषणापत्र में वर्ष 2030 तक शून्य कार्बन उत्सर्जन करने के लक्ष्य को शामिल करने पर विचार कर रही है।
दिसंबर में मैड्रिड में होने जा रहे कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) में कार्बन उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य तय करने के अलावा पेरिस रूलबुक पर बातचीत काफी अहम होगी। रूलबुक में विभिन्न प्रकार की शर्तों, पूर्व के लक्ष्यों के प्रदर्शन, भविष्य के लिए लक्ष्य, वित्त, कार्बन क्रेडिट (कार्बन उत्सर्जन की वैधानिक इजाजत) का इस्तेमाल और कार्रवाइयां तथा नियमित तौर पर वैश्विक स्तर पर समीक्षा जैसे ब्योरे शामिल किए गए हैं। रूलबुक के सभी तत्वों को पिछले वर्ष पॉलैंड में हुए कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कॉप) में ही अंतिम रूप दिया जाना था।
हालांकि, अंतरराष्ट्रीय कार्बन ट्रेडिंग को लेकर आम सहमति नहीं पाई इसलिए इस साल कॉप25 में ये एजेंडे के शीर्ष पर रहेगा। चूंकि पहली बार अमरीका की तरफ से इसको लेकर किसी तरह की बातचीत नहीं होने जा रही है, इसलिए मैड्रिड में होने जा रहे कॉप 25 में जरूरत पड़ने पर अमरीका के बिना देशों के बीच आम सहमति बन सकती है। अमरीका अड़ंगा डाल सकता है, ये परवाह किए बगैर वर्ष 2020 तक आम सहमति बना लेने की जरूरत है।
अगर अगले नवंबर तक व्हाइट हाउस से जलवायु को लेकर नकारवाद हटा दिया जाता है, तो बहुत संभव है कि अमरीका पेरिस समझौते में दोबारा शामिल हो जाए और उच्च महात्वाकांक्षा वाले नए लक्ष्य (कार्बन उत्सर्जन कम करने का) को स्वीकार कर ले। अगर ऐसा होता है, तो जो सबसे मजबूत पहलू उभरेगा, वो वर्ष 2020 में नए लक्ष्य का वैश्विक प्रदर्शन होगा। लेकिन, अगर अगले चार वर्षों तक ये नकारवाद बरकरार रहा, तो सभी मुल्कों के पास ये तर्क होगा कि वे अमरीका केंद्रीत समझौते में अपनी हिस्सेदारी को लेकर पुनर्विचार करें। वर्ष 2021 में यही विमर्श का मुद्दा होगा।