जलवायु आपातकाल, कॉप-25: राजनेताओं के सामने करने होंगे प्रदर्शन और जलवायु सम्मेलन

जलवायु बहुपक्षीयता कमजोर है, लेकिन सम्मेलन से जिम्मेदारी को तय करने में मदद मिलेगी
नई दिल्ली में प्रदर्शन करते जलवायु कार्यकर्ता। फोटो: विकास चौधरी
नई दिल्ली में प्रदर्शन करते जलवायु कार्यकर्ता। फोटो: विकास चौधरी
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स्पेन की राजधानी मैड्रिड में इन दिनों वार्षिक यूएन जलवायु सम्मेलन (कॉप-25) चल रहा है। इसे देखते हुए डाउन टू अर्थ द्वारा जलवायु आपातकाल पर श्रृंखला प्रकाशित की जा रही है। पढ़ें, इस श्रृंखला की चौथी कड़ी- 

4 डिग्री अधिक गर्म दुनिया की तरफ हम बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। इस लिहाज से अगले वर्ष जो राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्य तय किया जाना है, उसे मौजूदा समस्या की गंभीरता के आधार पर तय किया जाना चाहिए। सरकारें कार्रवाइयां करने में जितनी देर करेंगी, वैश्विक तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना उतना ही कठिन होता जाएगा।

इस पृष्ठभूमि में स्पेन के मैड्रिड में जो कान्फ्रेंस आफ पार्टीज या यूएन क्लाइमेट चेंज कान्फ्रेंस हो रही है, उसमें सरकारें कार्बन ट्रेडिंग जैसे कठिन मुद्दे तथा क्षति व नुकसान के समाधान की व्यवस्था पर बात करेंगी।

कभी-कभी उच्च-स्तरीय चर्चाओं के बीच एक संज्ञानात्मक असमानता होती है। जलवायु परिवर्तन पर कॉन्फ्रेंस में नौकरशाहों के बीच  चर्चाएं आमतौर पर श्रमसाध्य होती हैं और धीमी गति से चलती हैं तथा इसमें तमाम पहलुओं पर विचार किया जाता है। लेकिन, इसमें उन मुद्दों पर त्वरित कार्रवाई नहीं दिखती है, जैसी सड़कों पर देखने को मिलती है। हालांकि, कॉप25 सम्मेलन के भीतर भी चिली, इराक, लेबनान और हांगकांग में चल रहे प्रदर्शनों की सुर्खियों की अनदेखी करना मुश्किल होगा।

जलवायु संकट की जड़ें जटिल रूप से बेलगाम पूंजीवाद, बढ़ती असमानता व बेरोजगारी, अनुचित नीतियां जो श्रमजीवी वर्ग पर बोझ बढ़ाती हैं और अत्यधिक प्रदूषण फैलानेवालों को पुरस्कृत करती हैं, भ्रष्टाचार और साफ पानी और हवा जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव से जुड़ी हुई हैं।

जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए सामाजिक न्याय व मानवाधिकार जैसे मुद्दों को इससे जोड़ने में विफलता एक अच्छी नीति को भी बेकार या नुकसानदेह बना देगी। 

देखा जाए तो जलवायु बहुपक्षीयता हालांकि कमजोर जमीन पर है, मगर सच ये भी है कि ये सम्मेलन जलवायु परिवर्तन को वैश्विक एजेंडे में रखने का इकलौता अंतरराष्ट्रीय मंच है। ऐसे सम्मेलनों में प्रगति को रफ्तार दी जा सकती है और सरकार को जवाबदेह बनाया जा सकता है। ये मंच छोटे द्विपीय देशों व विकासशील देशों के लिए अहम होते हैं, क्योंकि यहां से ये छोटे मुल्क उन अमीर देशों के सामने आर्थिक मांग रखते हैं, जिन्होंने इस संकट से ऊबरने में बहुत योगदान नहीं दिया है और अपनी जिम्मेवारियों से भागते हैं। 

इन तरह के संगीन मुद्दों में एक्टिविज्म की बात होती है, लेकिन एक्टिविज्म केवल सड़कों पर लड़ना नहीं है। एक्टिविज्म कई रूप में आता है। मसलन कानूनी बारीकियों से जुड़े दस्तावेज का गहन अध्ययन, दस्तावेजों से गायब किए गए शब्दों या पेंचीदा शब्दों की शिनाख्त, ऐसी भाषाओं को लेकर आवाज बुलंद करना जिसकी आड़ में प्रतिबद्धता ही खत्म कर दी जाए वगैरह। ये सड़कों पर प्रदर्शन करने जितना ही जरूरत है।

आखिरकार सड़क से लेकर बातचीत की मेज तक लोगों की नजरदारी और उनका दबाव ही है जो राजनीतिज्ञों को जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई करने को विवश करेगा।

(लेखक क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क इंटरनेशनल के सीनियर कम्युनिकेशन्स ऑफिसर हैं।)

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