वर्ष 2017 में जीवाश्म ईंधन के जलाने से जितना कार्बन डाइ-ऑक्साइड का उत्सर्जन हुआ, उसमें चीन, भारत, यूरोपीय संघ और अमेरिका की भागीदारी 60 प्रतिशत थी। ऐसे में पेरिस समझौते के अंतर्गत कार्बन उत्सर्जन कम करने के लक्ष्य को पूरा करने की राह पर दुनिया तभी आ सकती है, जब ये देश/देशों का समूह अपने-अपने लक्ष्य को पूरा करेंगे। प्रदूषण फैलाने वाले शीर्ष 70 फीसदी देश कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने में विफल
मगर ऐसा हो नहीं रहा है क्योंकि वैश्विक लक्ष्य को पूरा करने की कोताही और देशों के अपने लक्ष्य पूरा करने की लापरवाही एक-सी है। वर्ष 2017 में भी प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन में भारी असमानता जारी रही थी। अमेरिका में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन भारत की तुलना में नौ गुना ज्यादा रहा।
आइए, अब हम ये जानने की कोशिश करते हैं कि सभी देश अपने-अपने एनडीसी के तहत निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए क्या कर रहे हैं।
जर्मनी की दो गैर-लाभकारी संस्थाओं की ओर से जलवायु पर नकारात्मक प्रभाव को कम करने की प्रतिबद्धता के आकलन के लिए शुरू किए गए क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने चीन की कार्रवाइयों को ‘निहायत अपर्याप्त’ माना है। ‘निहायत अपर्याप्त’ रेटिंग का मतलब ये है कि अगर सभी देश चीन की तरह ही कर्रवाइयां करेंगे, तो इस सदी के आखिर तक वैश्विक तापमान में 3-4 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी होगी।
भारत
नेशनली डेटरमाइंड कंट्रीब्यूशंस (एनडीसी) के तहत भारत ने ये संकल्प लिया है कि वह जीडीपी (प्रति इकाई जीडीपी के मुकाबले ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन) के आधार पर वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 33-35 प्रतिशत तक कम करेगा। इस साल की इमिशन गैप रिपोर्ट बताती है कि भारत इस दिशा में संतोषजनक काम कर रहा है और 15 प्रतिशत तक उत्सर्जन कम करने की राह पर है।
इसके साथ ही भारत ने तय किया है कि वह वर्ष 2030 तक मौजूदा बिजली उत्पादन क्षमता का 40 प्रतिशत ऊर्जा उत्पादन गैर-जीवाश्म स्रोतों से करेगा। यही नहीं, भारत ने वर्ष 2022 तक 175 गिगावाट गैर-जल स्रतों से बिजली उत्पादन का अंतरिम लक्ष्य भी निर्धारित किया है। मुंबई की एक वैश्विक विश्लेषक संस्था क्रिसिल की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक भारत ने जो लक्ष्य निर्धारित किया है, उसे पूरा करने को लेकर वह सही दिशा में काम कर रहा है, लेकिन अंतरिम लक्ष्य को पूरा करने में 42 प्रतिशत की कमी रहेगी।
चेन्नै की एक विज्ञानी सुजाथा बाइरवन लक्ष्य पर जोर देने की जगह एक दूसरे पक्ष की तरफ इशारा करती हैं। वह तर्क देती हैं कि समुदायिक-स्तर पर काम कर जनतंत्र को गहराई देने की जगह रेन्युअल प्रोजेक्ट बड़े कारोबारी घरानों को दिया जा रहा है और इस तरह ऊर्जा क्षेत्र के कायाकल्प का एक अच्छा मौका हाथ से छूट रहा है।।
भारत ने वन और पेड़ लगा कर वर्ष 2030 तक 2.5-3 बिलियन टन कार्बन डाई-ऑक्साइड के बराबर कार्बन को सोखने का भी वादा किया है। लेकिन, केंद्र सरकार का ग्रीन इंडिया मिशन, जिस पर इस लक्ष्य को हासिल करने का दारोमदार है, नियमित तौर पर अपने लक्ष्य से डिग रहा है। नतीजतन लक्ष्य पूरा हो पाना असंभव दिख रहा है। कुल मिला कर क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने भारत के प्रयासों को ‘2 डिग्री उपयुक्त’ करार दिया है, जिसका मतलब है कि अगर बाकी देश भारत की तरह प्रयास करते हैं, तो वर्ष 2100 तक वैश्विक औसत तापमान में इजाफे को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है। यहां ये भी बता दें कि भारत दुनिया की एकमात्र ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसे ‘2 डिग्री उपयुक्त’ रेटिंग दी गई है।
चीन
चीन ने एनडीसी में वादा किया है कि कार्बन उत्सर्जन वर्ष 2030 से पहले शीर्ष पर पहंचेगा और इसके बाद उसमें धीरे-धीरे व लगातार कमी आएगी। चीन ने अतिरिक्त शपथ ये भी ली है कि वह अर्थव्यवस्था (प्रति यूनिट जीडीपी पर कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन) के आधार पर वर्ष 2030 तक कार्बन डाई-ऑक्साइड के उत्सर्जन में 2005 के स्तर के मुकाबले 60-65 प्रतिशत तक की कमी लाएगा। प्राथमिक बिजली उत्पादन में गैर-जीवाश्म ईंधन की साझेदारी बढ़ा कर 20 प्रतिशत करेगा और वर्ष 2030 तक अतिरिक्त 4.5 बिलियन क्यूबिक मीटर वन क्षेत्र का विस्तार करेगा।
अधिकांश विश्लेषणों में ये अनुमान लगाया गया है कि चीन में वर्ष 2030 से पहले कार्बन उत्सर्जन में तेजी आएगी, लेकिन 2018 की एमिशन गैप रिपोर्ट बताती है कि चीन के लक्ष्य पूरा करने को लेकर कुछ अनिश्चितताएं हैं। अमरीका की टफ्ट यूनिवर्सिटी के क्लाइमेट पॉलिसी लैब की डायरेक्टर केली सिम्स गेलिगर ने डाउन टू अर्थ को बताया कि गैर-जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल का लक्ष्य हासिल करना चुनौती होगी और इसके लिए ऊर्जा के क्षेत्र में सुधार की जरूरत पड़ेगी। साथ ही साथ एमिशन ट्रेडिंग स्कीम में सख्ती लानी होगी।
ग्रानपीस की चीनी इकाई से जुड़े ली शुओ भी कहते हैं कि चीन का लक्ष्य पेरिस समझौते से काफी पीछे है। ली का तर्क है कि उम्मीद से ज्यादा लक्ष्य रखना लक्ष्य को पूरा करने में समर्थ बनाता है, लेकिन चीन की मौजूदा आर्थिक सुस्ती ने अनिश्चितता ला दी है।
यूरोपीय संघ
ट्रैकर ने यूरोपीय संघ के जलवायु प्रयासों को ‘अपर्याप्त’ की रेटिंग दी है, जिस कारण वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान में 2-3 डिग्री सेल्सियस तक का इजाफा होगा। यूरोपीय संघ ने एनडीसी के अपने शपथ में वर्ष 1999 के स्तर के मुकाबले वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन में 40 प्रतिशत तक की कमी लाने की बात कही गई थी। 2019 की एमिशन गैप रिपोर्ट कहती है कि यूरोपीय संघ ये लक्ष्य हासिल कर लेगा।
लंदन के एक थिंक टैंक संगठन सैंडबैग की हाफवे देयर नाम से आई एक रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ अतिरिक्त प्रयास मसलन कोयले को पूरी तरह हटा देने से कार्बन का उत्सर्जन 58 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। रिपोर्ट में तर्क दिया गया है कि 50 प्रतिशत तक कार्बन उत्सर्जन में कमी को बहुत सामान्य मानना चाहिए और बड़े लक्ष्य तय करने चाहिए।
सैंडबैग की ब्रूसेल की प्रतिनिधि सुज़ाना कार्प ने डाउन टू अर्थ को बताया कि कार्बन उत्सर्जन 55 प्रतिशत से कम करने का कोई भी वादा पेरिस समझौते के लक्ष्य के मुनासिब नहीं होगा और साथ ही पूरी प्रक्रिया विश्वसनीयता को जोखिम में डालेगी। ग्रीनपीस यूरोपीय संघ के क्लाइमेट पॉलिसी एडवाइजर सैबेस्टियन मांग को उम्मीद है कि यूरोपीय संघ अपने लक्ष्य बढ़ाएगा। साथ ही उन्होंने यूरोपीय कमिशन द्वारा अगले साल ‘ट्रांसफॉर्मेटिव ग्रीन समझौता’ करने के वादे पर भी भरोसा जताया।
कार्प जर्मनी और पॉलैंड के समस्यामूलक किरदार को भी रेखांकित करते हैं। जर्मनी जिस राह पर है, उससे वर्ष 2020 का लक्ष्य छूट सकता है। ये देश कार्बन उत्सर्जन 55 प्रतिशत तक कम करने के लक्ष्य को लेकर होनेवाली चर्चाओं को रोक भी रहा है। वहीं, पॉलेंड 2050 में कार्बन उत्सर्जन शून्य करने के लिए यूरोपीय संघ की ओर से कानून लाने की प्रक्रिया को बाधित कर रहा है। कार्प कहती हैं, “जर्मनी को चाहिए कि वह अपनी ‘आंतरिक सियासत’ के चलते यूरोपीय संघ की व्यापक महत्वाकांक्षा को बढ़ाने से न रोके।”
अमरीका
क्लाइमेट एक्शन ट्रैकर ने अमेरीका के कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रयासों को ‘नाजुक रूप से अक्षम’ की श्रेणी में रखा है।
अगर दुनिया अमरीका के इस प्रयास की तरफ झुक जाए, तो वर्ष 2100 तक वैश्विक तापमान 4 डिग्री तक बढ़ जाएगा। अमरीका ने पेरिस समझौते से खुद को अलग कर लिया है, लेकिन जब वो समझौते का हिस्सा था, तब भी समझौते को नहीं मान रहा था।
अमरीका ने शपथ ली थी कि वह वर्ष 2025 तक कार्बन उत्सर्जन में 26-28 प्रतिशत की कटौती करेगा। लेकिन, वर्ष 2017 तक 12 प्रतिशत तक की कटौती ही कर पाया, जो पेरिस समझौते के लक्ष्य से कोसों दूर था। हालांकि, वर्ष 1990 के क्योटो बेसलाइन वर्ष के मुकाबले वर्ष 2005 से अमरीका में कार्बन उत्सर्जन में कमी आई है।
हाल के आंकड़े हालांकि चिंता का सबब हैं क्योंकि ये आंकड़े संकेत दे रहे हैं कि धीमी रफ्तार से ही सही, लेकिन कार्बन उत्सर्जन में जो गिरावट आ रही थी, वो ट्रेंड पलट भी सकता है और कार्बन उत्सर्जन बढ़ सकता है। दरअसल, ऊर्जा आधारित सेक्टरों से वर्ष 2018 में कार्बन उत्सर्जन में बढ़ोतरी हुई थी और न्यूयॉर्क की एक सलाहकार संस्था रोडियम ग्रुप के अनुमान के मुताबिक, पिछले दो दशक में दूसरी बार इतना इजाफा दर्ज हुआ था।
हालांकि, ये भी स्वीकार करना होगा कि समझौते से बाहर होने के बाद भी अमरीका कार्बन उत्सर्जन कम करने की लड़ाई से बाहर नहीं है। अमरीका की मेरीलैंड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर ग्लोबल सस्टनेब्लिटी के डायरेक्टर नथान हल्टमैन कहते हैं, "अमरीका की जीडीपी में 70 प्रतिशत योगदान राज्य, शहर और व्यापारी वर्ग का है और ये साझेदार अमरीका के समझौते से अलग होने के बावजूद जलवायु परिवर्तन से मुकाबला करने को लेकर कटिबद्ध हैं। 2020 के चुनाव के बाद जलवायु परिवर्तन से मुकाबले के लिए बड़े लक्ष्य की घोषणा होनेवाली है।”
देखा जाए, तो पूरी दुनिया पेरिस समझौते में तय किए गए लक्ष्य की राह पर नहीं है, क्योंकि अधिकांश एनडीसी में निचले स्तर के लक्ष्य तय किए गए थे। इसके समाधान के लिए खास कर विकसित देश/समूह मसलन यूरोपीय संघ के लिए लक्ष्य को बढ़ाने की जरूत है और साथ ही कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विकासशील देशों को सहयोग देने की दरकार है। वर्ष 2018 की एमिशन गैप रिपोर्ट राजवित्तीय सुधार, नवाचार और बाजार तथा राज्य, शहर, एनजीओ व दूसरे साझेदारों पर फोकस करती है।
हल्टमैन कहते हैं, “सरकार के सभी स्तरों के नेता और कारोबारी बिरादरी इसके इर्द-गिर्द एक राजनीति तैयार कर बदलाव को लागू करने के लिए आगे आ रहे हैं। राष्ट्रीय चुनाव निश्चित तौर पर काफी अहम है। ठीक उसी तरह जिस तरह पेरिस (समझौत) में अंतरराष्ट्रीय प्रक्रिया अंतःस्थापित है। लेकिन, समाज के हर स्तर पर ऐसा माहौल बनाना हमारे समाधान का बुनियादी हिस्सा होगा।” अमरीका पेरिस समझौते से बाहर जरूर हो गया है, लेकिन इसके ज्यादातर राज्यों ने समझौते का समर्थन करने की घोषणा की है, तो हल्टमैन की वो थ्योरी कि सब-नेशनल एक्टर अहम किरदार निभाएंगे, बिल्कुल सही लगती है।