जलवायु आपदा: हिमालय से लेकर घाट तक, पूर्व चेतावनी प्रणाली की तत्काल आवश्यकता
इस महीने भारत ने अपना 79वां स्वतंत्रता दिवस मनाया, जिसमें हमने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अपनी असाधारण प्रगति पर विचार किया। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो ) के अभूतपूर्व मिशनों से लेकर भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की मौसम पूर्वानुमान क्षमताओं तक और भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (आईआईटीएम ) द्वारा विकसित स्वदेशी जलवायु मॉडल तक देश ने पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के तहत सुपरकंप्यूटिंग के बुनियादी ढांचे का उपयोग कर वैश्विक जलवायु विज्ञान में एक प्रमुख स्थान हासिल किया है।
फिर भी एक बहुत बड़ी कमजोरी बनी हुई है। वह है, हिमालय और पश्चिमी घाट क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से तैयार की गई पूर्व चेतावनी प्रणालियों यानी अर्ली वार्निंग सिस्टम का अभाव।
उत्तराखंड से कश्मीर तक: आपदा की गूंज
हिमालय में हाल की आपदाएं, जैसे कि कश्मीर में अचानक आई बाढ़ और इस महीने की शुरुआत में उत्तरकाशी में आई प्रलयकारी बाढ़, इस गंभीर आवश्यकता को रेखांकित करती हैं।
कुछ ही घंटों के भीतर मूसलाधार बारिश ने घरों को तबाह कर दिया, सड़कें और पुल नष्ट हो गए, और चार धाम यात्रा बाधित हो गई। ये कोई अलग-थलग घटनाएं नहीं हैं, बल्कि जलवायु परिवर्तन द्वारा तीव्र किया गया एक पैटर्न है।
गर्म होता वायुमंडल तापमान में प्रति 1 डिग्री सेल्यसियस वृद्धि पर लगभग 7 प्रतिशत अधिक नमी धारण करता है, और यह प्रभाव पर्वतीय क्षेत्रों में और भी बढ़ जाता है। जब यह नमी अचानक बरसती है तो यह विनाशकारी बादल फटने और बाढ़ का कारण बनती है।
शोध से पता चलता है कि ग्लोबल वार्मिंग भारतीय मानसून को तेजी से अनिश्चित बना रही है, जिसके परिणामस्वरूप अधिकांश जिलों में अत्यधिक वर्षा की घटनाओं में वृद्धि हुई है।
अब मानसून में लंबे समय तक सूखे के बाद छोटी अवधि की तीव्र बारिश होती है जो हमारे बुनियादी ढांचे पर भारी दबाव डालती है।
हिमालय में तेजी से पिघलते ग्लेशियर अस्थिर झीलों का निर्माण कर रहे हैं, जिससे ग्लेशियल झील के फटने से आने वाली बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। ये बदलाव इस बात को उजागर करते हैं कि जलवायु परिवर्तन एक तात्कालिक संकट है जो आज हम देख रही तबाही को हवा दे रहा है।
पश्चिमी घाट में भी गूंजती आपदा की चेतावनी
यह खतरा पश्चिमी घाट तक फैला हुआ है। पिछले कुछ दिनों में भारी बारिश ने महाराष्ट्र को पंगु बना दिया है, मुंबई और पुणे जलमग्न हो गए हैं जबकि कोंकण बेल्ट में भारी तबाही हुई है।
मुंबई में 300 मिमी से अधिक वर्षा हुई, जिससे व्यापक बाढ़ आई, ट्रेन सेवाएं रुक गईं और सैकड़ों लोग विस्थापित हुए। रायगढ़ जिले में भूस्खलन से एक व्यक्ति की जान चली गई।
यद्यपि मौसम विज्ञान विभाग ने रेड अलर्ट जारी किया था, यह भविष्यवाणी और उस पर कार्रवाई योग्य प्रतिक्रिया के बीच की गहरी खाई को उजागर करता है।
केरल ने इसे बार-बार झेला है, जहां 2018 और 2019 की बाढ़ में सैकड़ों लोग मारे गए और दस लाख से अधिक लोग बेघर हुए। जहां हिमालय बादल फटने और ग्लेशियल झीलों के टूटने की घटनाओं से जूझ रहा है, वहीं पश्चिमी घाट भारी बारिश, शहरी बाढ़ और भूस्खलन के मिश्रित जोखिमों का सामना कर रहा है।
नीतिगत कमियों को दूर करना
यह एक महत्वपूर्ण नीतिगत शून्यता को दर्शाता है, जिसे अपर्याप्त वैश्विक जलवायु वित्त ने और बढ़ा दिया है। कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (कॉप) में भारत जैसे विकासशील देश औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं से अनुकूलन और शमन के लिए पर्याप्त धन की मांग करते हैं।
हालांकि, प्रतिबद्धताएं संकट की भयावहता का मुकाबला करने के लिए अपर्याप्त बनी हुई हैं। हमें प्रतिक्रियात्मक उपायों से हटकर निवारक रणनीतियों की ओर बढ़ना चाहिए। अर्ली वार्निंग सिस्टम महत्वपूर्ण हैं, लेकिन ऐसी नीतियां भी उतनी ही आवश्यक हैं जो आपदाओं को पूरी तरह से रोकें।
सीमा सुरक्षा या तीर्थयात्राओं के लिए बुनियादी ढांचा, सड़कें, रेलवे, हवाई अड्डे, अक्सर कड़े पर्यावरणीय आकलन के बिना बनाए जाते हैं, जो तबाही को आमंत्रित करते हैं।
लक्ष्य समग्र होना चाहिए
न केवल अलर्ट, बल्कि एक ऐसा इकोसिस्टम जो ऐसे जोखिमों को पैदा ही न होने दे। इस क्षेत्र में निवेश कम है, फिर भी समाधान प्राप्त करने योग्य हैं।
वर्षा, नदी के स्तर, मिट्टी की नमी और ग्लेशियल झीलों की वास्तविक समय पर निगरानी के लिए सेंसर नेटवर्क तैनात करें। सटीक पूर्वानुमानों के लिए उच्च-क्षमता वाले मॉडल और डॉपलर रडार का लाभ उठाएं।
सुनिश्चित करें कि चेतावनियां मोबाइल अलर्ट, एसएमएस, रेडियो, सामुदायिक सायरन और प्रशिक्षित स्वयंसेवकों के माध्यम से लोगों तक तेजी से पहुंचें। लोगों को मॉक ड्रिल के माध्यम से प्रभावी ढंग से प्रतिक्रिया देने के लिए सशक्त बनाएं।
आपदा-रोधी क्षमता की ओर कदम
यह उत्साहजनक है कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने पिछले साल लगभग 190 उच्च जोखिम वाली हिमालयी ग्लेशियल झीलों पर अली वार्निंग सिस्टम की स्थापना शुरू की है, जो पिघलते ग्लेशियरों से झीलों के प्रसार को संबोधित करता है।
इसे तत्काल बढ़ाने की आवश्यकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में भी, जहां परिष्कृत प्रणालियां हैं, आपदाएं आती हैं. जैसा कि टेक्सास की बाढ़ या हिल कंट्री की आकस्मिक बाढ़ में देखा गया।
निष्कर्ष यह है कि खतरे बने रहते हैं, लेकिन चेतावनियों के अभाव में नुकसान बढ़ जाता है। अली वार्निंग सिस्टम शमन की आधारशिला है, जो राहत से हटकर पूर्वानुमानित बचाव/सुरक्षा की ओर एक बदलाव है।
कश्मीर से लेकर केरल तक समुदायों की रक्षा के लिए वैज्ञानिकों, नीति-निर्माताओं और स्थानीय लोगों के बीच सहयोग की आवश्यकता है। जलवायु-परिवर्तित दुनिया में, आत्मसंतुष्टि अस्वीकार्य है। EWS वैकल्पिक नहीं, बल्कि जीवनरेखा हैं।
देरी करने का मतलब और अधिक त्रासदियों को आमंत्रित करना है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और विवेकपूर्ण नीति को एकीकृत करके, हम नुकसान को टाल सकते हैं। बाढ़ और भूस्खलन अपरिहार्य हो सकते हैं, लेकिन समय पर अलर्ट और तैयारी से जानें बचाई जा सकती हैं और यही हमारे राष्ट्रीय संकल्प का सच्चा प्रमाण होगा।
(डॉ. प्रतीक कड एक जलवायु वैज्ञानिक और नॉर्वे के नॉर्वेजियन रिसर्च सेंटर में पोस्टडॉक्टोरल शोधकर्ता हैं। वह बर्कनेस सेंटर फॉर क्लाइमेट रिसर्च से भी जुड़े हुए हैं। उन्होंने दक्षिण कोरिया के पुसान नेशनल यूनिवर्सिटी से पर्वतीय जलवायु परिवर्तन में पीएचडी की है। उनका शोध मुख्य रूप से मानसूनी हवाओं, पर्वतीय मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन का जल और जैव विविधता पर पड़ने वाले प्रभावों पर केंद्रित है। वह जलवायु विज्ञान को आम लोगों तक पहुँचाने के लिए लेख भी लिखते हैं, ताकि विश्वसनीय जानकारी के आधार पर समाज को सशक्त बनाया जा सके।)