क्या गरीब देशों को कर्ज के भंवर जाल में फंसा देगा क्लाइमेट फंड?

क्लाइमेट फाइनेंस के नाम पर दिए 4,40,637 करोड़ रुपए में से केवल एक तिहाई ही गरीब देशों तक पहुंच पाया था
क्या गरीब देशों को कर्ज के भंवर जाल में फंसा देगा क्लाइमेट फंड?
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पहले से ही जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहे विकाशील देशों के लिए क्लाइमेट फाइनेंस एक नई समस्या बनता जा रहा है| लम्बे समय से जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाले खतरों जैसे बाढ़, तूफान, सूखा, भुखमरी से निपटने के लिए यह देश अमीर देशों से मदद लेते आए हैं। वहीं मदद के नाम पर दिया जा रहा यह फण्ड इन देशों को कर्जदार बना रहा है, जिसको चुका पाना अपने आप में एक बड़ी समस्या है। हाल ही में अंतराष्ट्रीय संस्था ऑक्सफेम ने इस पर एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसमें क्लाइमेट फाइनेंस पर गंभीर चिंता व्यक्त की गई है।

रिपोर्ट के अनुसार क्लाइमेट फाइनेंस के नाम पर अमीर देशों और विभिन्न संस्थानों द्वारा विकासशील देशों को करीब 4,40,637 करोड़ रुपए (60 बिलियन डॉलर) का वित्त दिया गया था, पर सच्चाई यह है कि उन देशों के पास इसका करीब एक तिहाई ही पहुंच पाया था। जबकि बाकि का पैसा ब्याज, पुनर्भुगतान और अन्य लागतों के रूप में काट दिया गया था। अनुमान है कि 2017-18 के दौरान केवल 1,39,535 से 1,65,239 करोड़ रुपए (19 से 22.5 बिलियन डॉलर) की राशि ही इन देशों तक पहुंच पाई थी। गौरतलब है कि 2020 तक अमीर राष्ट्रों ने हर वर्ष 7,34,395 करोड़ रुपए (100 बिलियन डॉलर) विकासशील देशों को क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में देने का समझौता किया था।

वहीं संयुक्त राष्ट्र और ओईसीडी के आंकड़ों पर आधारित इस रिपोर्ट के अनुसार क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में दिया गया करीब 80 फीसदी पैसा कर्ज के रूप में था, जोकि करीब 3,45,166 करोड़ रुपए (47 बिलियन डॉलर) था। जबकि इसमें से करीब आधा 176,254 करोड़ रुपए (24 बिलियन डॉलर) गैर-रियायती था। जिसका मतलब है कि यह ऋण कड़ी शर्तों पर दिया गया था। 

छोटे विकासशील द्वीपीय राष्ट्रों को दिया गया केवल 3 फीसदी हिस्सा

विश्लेषण में इस वित्त के आबंटन पर भी चिंता जताई है, एक और जहां कम विकसित देशों को इस फण्ड का केवल 20.5 फीसदी हिंसा दिया गया वहीं दूसरी ओर छोटे द्वीपीय देशों को इसका 3 फीसदी दिया गया था। गौरतलब है कि इन छोटे विकासशील देशों के लिए जलवायु परिवर्तन एक बड़ी समस्या है, जिसपर इनका वजूद निर्भर है। वहीं इनके पास इस समस्या से निपटने के लिए बहुत कम संसाधन मौजूद हैं।

इस फंडिंग के केवल एक चौथाई हिस्से को जलवायु संकट के प्रभावों से निपटने के लिए खर्च किया गया था, जबकि 66 फीसदी पैसा उत्सर्जन को कम करने के लिए खर्च किया गया था। हालांकि संकट से निपटने के लिए जो पैसा खर्च किया जा रहा है उसमें 2015-16 की तुलना में 2017-18 में 44,064 करोड़ रुपए (6 बिलियन डॉलर) की वृद्धि की गई है। जहां 2015-16 में इसके लिए 66,096 करोड़ रुपए (9 बिलियन डॉलर) दिया गया था वो 2017-18 में बढाकर 1,10,159 करोड़ रुपए (15 बिलियन डॉलर) कर दिया गया था।

इस रिपोर्ट की एक लेखक और ऑक्सफैम से जुडी ट्रेसी कार्टी ने बताया कि क्लाइमेट फाइनेंस दुनिया के कई देशों के लिए जलवायु से जुडी आपदाओं जैसे बाढ़, सूखा, हीटवेव, तूफान से निपटने का सहारा है। आज के समय जब देश कोरोनावायरस के खतरे से निपटने में लगे हुए हैं इसके बावजूद उन्हें जलवायु संकट को नहीं भूलना चाहिए। वहीं दूसरी ओर उनका कहना है कि जलवायु संकट के नाम पर जरुरत से ज्यादा लिया जा रहा कर्ज एक ऐसा घोटाला है जिसपर अब तक ध्यान नहीं दिया जा रहा है। दुनिया के सबसे गरीब देश जो पहले से ही कर्ज में डूबे हुए हैं, उनपर जलवायु संकट के नाम पर और ऋण लेने के लिए मजबूर किया जाना सही नहीं है।

रिपोर्ट के अनुसार कई विकसित देश कर्ज के बजाय अनुदान के रूप में जलवायु वित्त प्रदान करने में दूसरों से बेहतर हैं। उदाहरण के लिए जहां फ्रांस ने अपने वित्त में से लगभग 97 फीसदी ऋण के रूप में दिया था वहीं दूसरी ओर स्वीडन, डेनमार्क और यूके ने अपने जलवायु फण्ड का एक बहुत बड़ा हिस्सा अनुदान के रूप में दिया था।

कार्टी के अनुसार विकसित देशों को कर्ज के बजाय अनुदान के रूप में अधिक क्लाइमेट फाइनेंस देना चाहिए। साथ ही जलवायु संकट से निपटने को वरीयता देनी चाहिए। इसमें से कमजोर देशों को अधिक प्राथमिकता देना चाहिए, जिसमें कम विकसित देश और छोटे विकासशील द्वीपीय देश शामिल हैं। 

1 डॉलर = 73.44 रुपए

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