गुजरात के कच्छ में बन्नी स्थित एशिया के सबसे बड़े प्राकृतिक घास के मैदान पर जलवायु परिवर्तन के संकट के गहरे बादल छाए हुए हैं। इतना ही नहीं, करीब पांच दशक पहले इस घास के मैदान पर किए गए एक प्रयोग ने भी इसे बंजर बनाने में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। नष्ट और गुणवत्ताहीन होते घास के मैदानों की वजह से यहां का पारंपरिक चरवाहा समुदाय मालधारी अब बाहर से घास औ्रर चारे का आयात करने को मजबूर है। करीब 40 से 50 हजार की आबादी वाले मालधारियों के पास एक लाख से अधिक पशु हैं।
बन्नी के जाट एक पारंपरिक चरवाहा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। इन्हें.मालधारी भी कहकर पुकारा जाता है। मालधारी का मतलब है कि जो अपने पास माल यानी पशु रखता हो। मालधारी और इनके लाखों पशु 2,617 वर्ग किलोमीटर में फैले प्राकृतिक घास के मैदान पर ही आजीविका के लिए निर्भर हैं। बहरहाल, यह क्षेत्र मरुस्थलीकरण के संकट के साथ तेजी से विलायती बबूलों के जंगल में बदल रहा है।
मालधारी अपने पशुओं की खुशी में ही अपने जीवन की खुशी देखते हैं। कुबेर करमकांत जाट बन्नी के पास ही बागड़िया गांव के रहने वाले हैं। वे डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि जब बन्नी में बिजली और सड़क कुछ नहीं था। और ऐसी स्थिति में जब वहां बारिश हो जाती थी उस दौर में भी वह बीमार हुए पशुओं को दस किलोमीटर उठाकर ले जाते थे। करमकांत आगे बताते हैं कि यहां के मालधारी यह मानते हैं कि उनका पशु खुश है तो वे भी खुश हैं।
कच्छ देश का सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला जिला है। 1961 में देश ने 13वां स्वतंत्रता दिवस मनाया था। उसी दौरान कच्छ में बन्नी के उत्तर पूर्वी हिस्से में स्थित रण इलाके में खारेपन की समस्या को दूर करने के लिए प्रोसेपिस जूलीफोरा यानी विलायती बबूल के लाखों विदेशी बीज करीब 31,550 हेक्टेयर क्षेत्र में छितराए गए थे। इन बीजों ने इलाके का खारापन रोकने के बजाए उन्हें बंजर बना दिया। करीब 80 फीसदी घास का मैदान बर्बाद हो चुका है।
बन्नी के निवासी इस बीज को गांडा बाबूल यानी पागल बबूल कहते हैं। यह कांटेदार और झाड़ीदार प्रजाति वाले पौधों का बीज था जिन्हें हम विलायती बबूल के नाम से जानते हैं। यह जमीन की नमी सोखकर कहीं भी उग जाते हैं। खारेपन को दूर करने के बजाए इस पागल बबूल ने बन्नी की पारिस्थितिकी को नष्ट करना शुरू कर दिया। घास कम होती गई और इनकी संख्या बढ़ती गई। इसका खामियाजा यहां के मवेशियों को उठाना पड़ा है। क्योंकि यही विशाल घास के मैदान इनके जीवन का सर्वोत्तम आहार थे।
मालधारी इशा भाई मुतवा बताते हैं कि 1965 में 66 हजार कांकरेज गाय थीं। हरित क्रांति के दौरान सबसे बेहतरीन घास के मैदानों को गांडा बबूल बोकर बर्बाद कर दिया गया। हमारी गायें जब घास चरती हैं तो उसमें विलायती बबूल शामिल हो जाते थे, जो उन्हें पचते नहीं थे। क्योंक उनकी पाचन शक्ति कमजोर थी। धीरे-धीरे गायों की संख्या 20 से 25 हजार पर सिमट गई है जबकि 2010 में सिफारिश की गई बन्नी भैसों की संख्या 80 हजार के करीब हैं। और भी पशु मौजूद हैं। अब हमें अच्छी घास बाहर से मंगानी पड़ती है। क्योंकि हर दो साल में यहां अकाल पड़ता है। ऐसे में जमीन की बची हुई नमी को गांडा बबूल सोख लेते हैं। स्थिति और खराब हो जाती है।
1997 में महज छह फीसदी क्षेत्र में ही यह पागल बबूल फैले थे लेकिन 2015 आते-आते इस विदेशी प्रजाति ने घास के मैदान का 54 फीसदी हिस्सा अपनी जद में ले लिया। वहीं, जिस खारेपन को दूर करने के लिए यह कदम उठाया गया था उसके उल्टे खारेपन का स्तर भी 80 किलोमीटर प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है।
वहीं, घास के मैदान से होकर निकलने वाली नदियों को भी बांध बनाकर मैदान से पहले ही रोक दिया गया। इसलिए विलायती बबूलों ने शुष्क होती जमीनों को और अधिक नुकसान पहुंचाया है। नतीजा यह हुआ है कि खारापन और अधिक बढ़ गया और बड़ी संख्या में घास की प्रजातियां बन्नी से गायब हो गईं।
पहले सूखे और रेतीले कच्छ में बन्नी घास के मैदान शुरू होने के बाद एक हरित पट्टी दिखाई देती थी। अब यह अंतर पहचानना मुश्किल है। अब चारों तरफ सूखी जमीनें हैं जो बीच-बीच में कहीं-कहीं हरे धब्बों के साथ नजर आती हैं।
सहजीवन नाम का एक गैर सरकारी संगठन स्थानीय समुदाय की मदद से बन्नी घास के मैदानों को पुरानी रंगत में लाने के लिए काम कर रहा है। कच्छ में करीब 18,000 हेक्टेयर जमीन को पहले जैसा बनाने का प्रयास किया जा रहा है। संस्थान के पंकज जोशी बताते हैं कि शुष्क भूमि और वातावरण को ध्यान में रखते हुए बन्नी के घास मैदानों की ही कुछ श्रेष्ठ प्रजातियों को चुनकर उन्हें बंजर जमीनों पर बोया जा रहा है ताकि फिर से घास के मैदानों की रंगत को वापस लौटाया जा सके।
गुजरात में मरुस्थलीकरण दशकों से चिंता का कारण बना हुआ है। राज्य की 50 प्रतिशत से अधिक जमीन मरुस्थलीकरण की शिकार है। यदि बन्नी घास के मैदान नष्ट हो जाएंगे, तब मालधारियों के जीवनयापन का एकमात्र सहारा उनसे छिन जाएगा। मालधारियों का उनके पशुओं से पिछले 500 वर्षों से बेहद खास और खूबसूरत रिश्ता है। यदि जलवायु परिवर्तन की समस्या से नहीं निपटा गया तो यह देश का पहला चरवाहा समुदाय होगा जिसका विस्थापन जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले मरुस्थलीकरण के कारण होगा।