वैश्विक स्तर पर खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतें पहले ही आसमान छू रहीं हैं। कई देशों में तो स्थिति इस कदर बदतर हो चुकी है कि लोगों को अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। खाद्य पदार्थों की इन बढ़ती कीमतों के लिए कहीं न कहीं जलवायु में आता बदलाव भी जिम्मेवार है जो फसलों की पैदावार को प्रभावित कर रहा है।
वैज्ञानिकों ने आशंका जताई है कि जिस तरह वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है, उसके चलते 2035 तक खाद्य कीमतों में सालाना 3.2 फीसदी की वृद्धि होने का अंदेशा है। इसके कारण न केवल खाद्य कीमतों में इजाफा होगा, साथ ही आम लोगों पर कहीं ज्यादा महंगाई की मार पड़ेगी। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि खाद्य कीमतों में होने वाली इस वृद्धि से वैश्विक स्तर पर मुद्रास्फीति में 0.3 से 1.18 फीसदी तक की बढ़ोतरी हो सकती है।
वैज्ञानिकों ने यह भी आशंका जताई है कि इसका सबसे ज्यादा असर कमजोर देशों को झेलना पड़ेगा। गौरतलब है कि यह अध्ययन जर्मनी के पाट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च और यूरोपियन सेंट्रल बैंक से जुड़े शोधकर्ताओं द्वारा किया गया है, जिसके नतीजे 21 मार्च 2024 को जर्नल नेचर कम्युनिकेशन्स अर्थ एंड एनवायरनमेंट में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं ने यह भी आशंका जताई है कि बढ़ते तापमान और गर्मियों के स्थिति बद से बदतर हो सकती है। अनुमान है कि इसका असर साल के बारह महीने पूरी दुनिया में महसूस किया जाएगा। हालांकि जो देश पहले ही बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों से जूझ रहे हैं वहां खाद्य कीमतों में कहीं ज्यादा वृद्धि होने का अंदेशा है। इसी तरह यह प्रभाव गर्मियों में कहीं ज्यादा स्पष्ट होंगें।
यह इस बात की ओर भी इशारा करता है कि आने वाले दशकों में कीमतों को स्थिर रखने में जलवायु परिवर्तन बड़ी भूमिका निभाएगा। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात की जांच की है कि कैसे जलवायु से जुड़े कारक जैसे उच्च तापमान और भारी बारिश समय के साथ मुद्रास्फीति को प्रभावित कर रहे हैं।
यह समझने के लिए कि बढ़ता तापमान और जलवायु परिवर्तन कैसे खाद्य कीमतों को प्रभावित कर रहा है, सहयोगियों ने 1996 से 2021 के बीच 121 देशों में वस्तुओं और सेवाओं की एक विस्तृत श्रृंखला की मासिक कीमतों के आंकड़ों की तुलना की है, साथ ही उस दौरान उन देशों में मौसमी परिस्थितियां कैसी थी इसका भी विश्लेषण किया है।
बढ़ते तापमान से भविष्य में मुश्किल हो जाएंगे हालात
अध्ययन में सामने आया है कि जैसे-जैसे महीने दर महीने तापमान बढ़ता है तो उसके साथ-साथ कीमतें भी बढ़ जाती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह प्रभाव गर्मियों और दक्षिण के भूमध्य रेखा के आसपास के देशों में कहीं ज्यादा स्पष्ट होते हैं। यह क्षेत्र पहले ही बढ़ते तापमान से पीड़ित हैं।
अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने यूरोप में 2022 की गर्मियों का अध्ययन किया है, जो बेहद गर्म और शुष्क थी। इसने कृषि और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला था।
इस बारे में पाट्सडैम इंस्टिट्यूट फॉर क्लाइमेट इम्पैक्ट रिसर्च से जुड़े वैज्ञानिक और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता मैक्सिमिलियन कोट्ज ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से जानकारी दी है कि 2022 में यूरोप में पड़ी भीषण गर्मियों ने यूरोप में खाद्य कीमतों में 0.67 फीसदी की वृद्धि की थी। उनका यह भी कहना है कि यदि तापमान 2035 के अनुमान के अनुसार बढ़ता है तो यह प्रभाव 30 से 50 फीसदी तक बदतर हो सकते हैं।
गौरतलब है कि आईपीसी भी अपनी रिपोर्ट में कृषि और खाद्य पदार्थों पर जलवायु परिवर्तन के पड़ते प्रभावों को लेकर चेता चुका है। रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक तापमान में आती वृद्धि ने पिछले पांच दशकों में निम्न और मध्यम अक्षांश वाले क्षेत्रों में कृषि उत्पादकता में होती वृद्धि को धीमा कर दिया है।
वहीं वेरिस्क मैपलक्रॉफ्ट द्वारा प्रकाशित एक रिसर्च से पता चला है कि बढ़ती गर्मी के कारण 2045 तक दुनिया के 71 फीसदी कृषि क्षेत्र खतरे की जद में होंगें, जिनमें भारत भी शामिल है। इस अध्ययन के मुताबिक अगले दो दशकों में दुनिया के मौजूदा खाद्य उत्पादक क्षेत्रों का करीब तीन चौथाई हिस्सा गर्मी के तनाव के कारण अत्यधिक जोखिम का सामना करने को मजबूर होगा।
वहीं भारत की बात करें तो काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (सीइइडब्लू) ने अपने शोध में खुलासा किया है कि देश में 75 फीसदी से ज्यादा जिलों पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है।
इस अध्ययन के मुताबिक देश का करीब 68 फीसदी हिस्सा सूखे की जद में है। इसकी वजह से हर साल करीब 14 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं। वहीं जर्नल साइंस एडवांसेज में छपे एक अन्य शोध में सामने आया कि यदि जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए सही समय पर कदम न उठाए गए तो सदी के अंत तक करीब 60 फीसदी से अधिक गेहूं उत्पादक क्षेत्र सूखे की चपेट में होंगे। गौरतलब है कि पहले ही दुनिया का करीब 15 फीसदी गेहूं उत्पादक क्षेत्र जलवायु परिवर्तन की मार झेल रहा है।
देखा जाए तो एक तरफ जहां जलवायु में आता परिवर्तन कृषि उत्पादकता का प्रभावित कर रहा है वहीं बढ़ती आबादी के साथ खाद्य उत्पादों की मांग भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का अनुमान है कि बढ़ती वैश्विक आबादी के चलते 2050 तक अनाजों की वार्षिक मांग करीब 43 फीसदी बढ़ जाएगी।
ऐसे में बढ़ती आबादी का पेट कैसे भरेगा यह अपने आप में एक बड़ा सवाल है। इसके साथ ही बढ़ते तापमान की वजह से खाद्य उत्पादों में पोषण का स्तर भी लगातार कम हो रहा है जो बेहद चिंताजनक है।
देखा जाए तो वैश्विक तापमान में जिस तरह से वृद्धि हो रही है और जलवायु में बदलाव आ रहे हैं उसको लेकर दुनिया के सामने करो या मरो की स्थिति है। ऐसे में इससे पहले बहुत देर हो जाए सरकारों को इससे निपटने के लिए जल्द से जल्द कठोर फैसले लेने होंगें।