जलवायु परिवर्तन से बढ़ रही है मजदूरों की परेशानी, जीडीपी पर पड़ेगा असर

एक नए अध्ययन में कहा गया है कि बढ़ते तापमान से विकासशील देशों को होने वाला श्रम उत्पादकता का नुकसान विकसित देशों की तुलना में लगभग नौ गुना अधिक होगा
जलवायु परिवर्तन से मजदूरों की परेशानी बढ़ रही है, जिसका भारत जैसे देशों की जीडीपी पर असर पड़ेगा। फोटो: विकास चौधरी
जलवायु परिवर्तन से मजदूरों की परेशानी बढ़ रही है, जिसका भारत जैसे देशों की जीडीपी पर असर पड़ेगा। फोटो: विकास चौधरी
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जैसे-जैसे जलवायु में परिवर्तन आ रहा है हमारी धरती और गर्म होती जा रही है। आज इसके चलते न जाने कितने परिवर्तन आ रहे हैं। सूखा, बाढ़, तूफान, समुद्र का बढ़ता स्तर और रोज लगने वाली जंगल की आग तो जैसे आम बात होती जा रही है और इन सबके पीछे की सबसे बड़ी वजह वायुमंडल में बढ़ता कार्बन का स्तर है। आंकड़े दर्शाते है कि हमारे द्वारा पिछले साल वायुमंडल में 4,000 करोड़ मीट्रिक टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित की गयी थी। हवाई के मौना लोआ ऑब्जर्वेटरी के आंकड़े के मुताबिक, कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर 415.26 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) से ज्यादा हो चुका है। |

जर्नल साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन के चलते श्रमिकों की उत्पादकता भी प्रभावित हो रही है, जैसे जैसे तापमान बढ़ रहा है, मजदूरों का खुले वातावरण में काम करना खतरनाक होता जा रहा है । कॉनकॉर्डिया इंस्टीट्यूट के पूर्व पोस्टडॉक्टोरल शोधकर्ता यान च्वायलाज़ और कॉनकॉर्डिया में क्लाइमेट साइंस और सस्टेनेबिलिटी के प्रमुख प्रोफेसर डेमन मैथ्यूज ने इस शोध का नेतृत्व किया है। अपने अध्ययन में इन शोधकर्ताओं ने इस तथ्य की जांच की है कि कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते उत्सर्जन के कारण बढ़ता तापमान श्रम उत्पादकता को कैसे नुकसान पहुंचा रहा है।

शोध के अनुसार उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड के प्रत्येक ट्रिलियन (1 लाख करोड़) टन से वैश्विक जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के लगभग आधे फीसदी का नुकसान हो जाता है। जो कि 0.59 डॉलर सीओ2 प्रति टन के बराबर होता है, जबकि भारत, थाईलैंड, गैबॉन और मलेशिया जैसे विकासशील देशों में यह नुकसान बढ़कर हर वर्ष प्रत्येक ट्रिलियन टन सीओ2 उत्सर्जन पर जीडीपी के 3 से 5 फीसदी हिस्से के बराबर हो जाता है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हम पहले से ही सीओ 2 उत्सर्जन के चलते वैश्विक जीडीपी के करीब 2 फीसदी हिस्से का आर्थिक नुकसान झेल रहे हैं। 2017 में जारी अध्ययन के अनुसार दुनिया भर में बढ़ते तापमान के चलते करीब 15,300 करोड़ घंटों के बराबर श्रम उत्पादकता का नुकसान हुआ था, जो कि 2000 की तुलना में 6,200 करोड़ घंटे ज्यादा है

इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने प्रति घंटे किये जा रहे श्रम और गर्मी के जोखिम के साथ श्रमिकों को मिलने वाले आराम के सन्दर्भ में व्यापक रूप से उपयोग किए जा रहे दिशानिर्देशों के आधार पर यह गणना की गयी है ।वहीं शोधकर्ताओं का मानना है कि कृषि, खनन और निर्माण के क्षेत्र पर इसका सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ रहा है क्योंकि यह क्षेत्र श्रमिकों के अथक परिश्रम पर निर्भर हैं, साथ ही उनपर बढ़ती गर्मी का सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है । गौरतलब है कि विकासशील देशों का 73 फीसदी उत्पादन इन्ही क्षेत्रों पर निर्भर है ।

भारत जैसे देशों पर पड़ेगा सबसे अधिक दुष्प्रभाव

प्रोफेसर मैथ्यूज के अनुसार, "गर्मी के बढ़ने के साथ ही श्रमिकों की उत्पादकता बड़ी तेजी से काफी घट जाती हैं और ऐसा दुनिया के गर्म हिस्सों विशेषकर विकासशील देशों में बड़े पैमाने पर होता हैं।" उनके अनुसार "यह देश इसलिए भी अधिक असुरक्षित हैं क्योंकि इन देशों में अधिकतर लोग अपनी जीविका के लिए श्रम आधारित क्षेत्रों पर निर्भर हैं । साथ ही इन देशों में जलवायु में आ रहे परिवर्तनो के साथ इंफ्रास्ट्रक्चर में बदलाव करने की क्षमता काफी कम है।"विश्व बैंक द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार जलवायु परिवर्तन के चलते भारत का जीडीपी 2.8 फीसदी तक कम हो सकता है और 2050 तक इसकी लगभग आधी आबादी के जीवन स्तर में गिरावट आ सकती है।

शोध बताता है कि विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों पर इसका अधिक गहरा आर्थिक प्रभाव पड़ेगा । जिसकी सबसे अधिक मार  दक्षिण पूर्व एशिया, उत्तर-मध्य अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका जैसे उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर पड़ेगी। आंकलन के अनुसार बढ़ते तापमान से विकासशील देशों को होने वाला श्रम उत्पादकता का नुकसान विकसित देशों की तुलना में लगभग नौ गुना अधिक होगा। वहीं शोधकर्ताओं के अनुसार श्रम उत्पादकता के नुकसान का यह अनुमान अत्यधिक गर्मी और श्रम के संबंध में अंतराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य के लिए दिए गए सख्त दिशानिर्देशों के पालन पर आधारित है चूंकि दुनिया के अधिकतर देशों में इन दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया जाता तो इसका खतरा भी कई गुना बढ़ जाता है।जैसा कि "हम देख सकते हैं कि हमारे द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड के हर अतिरिक्त टन से यह प्रभाव कुछ और बढ़ जायेगा और हम उस वृद्धि को माप सकते हैं। तो यह अध्ययन हमें उन देशों की पहचान करने में मदद कर सकता है जो बढ़ते उत्सर्जन के कारण गंभीर आर्थिक को झेल रहे हैं।"

शोधकर्ताओं के अनुसार कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कमी करके और इसके लिए नीतियां बनाकर बढ़ते तापमान से होने वाले श्रम उत्पादकता के नुकसान को सीमित किया जा सकता है। लेकिन मैथ्यूज का मानना है कि यह ग्लोबल वार्मिंग के सन्दर्भ में लोगों की मानसिकता को बदलने में भी मददगार हो सकता है, जिससे लोग इसके खतरे को पहचान सकें।

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