ऐसे भी किया जा सकता है जलवायु परिवर्तन का सामना, हिमाचल के किसानों ने दिखाया रास्ता

कुल्लू के ग्रामीण किसानों ने न केवल जलवायु परिवर्तन से बचने के तरीकों को खोजा साथ ही इस बात का भी पता लगाया कि किस तरह मिलकर इस समस्या का मुकाबला किया जा सकता है
ऐसे भी किया जा सकता है जलवायु परिवर्तन का सामना, हिमाचल के किसानों ने दिखाया रास्ता
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जलवायु परिवर्तन एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। सारी दुनिया इसके खतरों से निपटने का तरीका ढूंढ रही है। अभी भी हम यह सीखने की प्रक्रिया में हैं कि इस समस्या से कैसे निपटें और कैसे बदलती जलवायु में अपने जीवन और जीविका की रक्षा करें।

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी ख़बरों के सारी दुनिया में सामने आने से बहुत पहले ही इस समस्या ने ग्रामीण जीविका प्रणाली पर आघात करना शुरू कर दिया था, जिससे बचने के लिए ग्रामीण समुदायों ने न केवल उससे बचने के तरीकों को खोजा साथ ही इस बात का भी पता लगाया कि किस तरह मिलकर इस समस्या का मुकाबला किया जा सकता है।

हिमालय की खूबसूरत वादियों में बसे हिमाचल के एक ग्रामीण क्षेत्र से ऐसी ही सफलता की कहानी सामने आई है, जहां रहने वाले ग्रामीणों ने न केवल अपने दम पर इसका सामना किया बल्कि साथ ही दुनिया के लिए इस बात की मिसाल भी पेश की कि कैसे इस समस्या से निपटा जा सकता है।

यही वजह है कि वैज्ञानिकों ने निचली कुल्लू घाटी में बसे गांवों के चार दशकों तक जलवायु परिवर्तन के खिलाफ चले संघर्ष और जीत के सफर का विश्लेषण किया है। उन्होंने यह समझने का प्रयास किया है कि कैसे उन ग्रामीणों ने अपने दम पर अपनी जीविका यानी कृषि पर मंडराते जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना किया और उसका सामना करना सीख लिया। साथ ही उन्होंने इस बात का भी पता लगाने की कोशिश की है कि वो कौन से कारक थे जिन्होंने इस संघर्ष में उन ग्रामीणों की मदद की थी। 

 ग्रामीण किसानों की सफलता की यह कहानी 90 के दशक के आरम्भ में शुरू हुई थी जब निचले हिमालय क्षेत्र के किसानों को उत्पादकता में आ रही गिरावट के चलते अपनी प्रमुख फसल सेब को छोड़ना पड़ा था। जहां जलवायु में आते बदलावों के चलते एक तरफ सर्दियों के तापमान में वृद्धि हो रही थी वहीं दूसरी तरफ बर्फबारी में गिरावट आ रही थी।

हालांकि किसानों को यह नहीं पता था कि यह समस्या जलवायु परिवर्तन से जुड़ी है लेकिन समय रहते किसानों ने जलवायु में आ रहे बदलावों का सामना करने के लिए अपनी फसल में बदलाव किया, जिसका नतीजा है कि आज वहां कृषि एक फायदे का सौदा बन चुकी है। अब वहां फल, सब्जियों और खाद्यान्न फसलों की करीब 46 किस्में उगाई जाती हैं। 

कैसे मुमकिन हो पाया यह सब

यह कैसे मुमकिन हुआ इस बारे में जानकारी देते हुए इस शोध से जुड़े डॉ अश्विनी छत्रे ने बताया कि "यह किसानों की मदद के लिए बनाई गई जलवायु नीति का परिणाम नहीं था, बल्कि ऐसा इसलिए था क्योंकि वहां पहले से ही ऐसी नीतियां और संस्थान थे जिनका उपयोग किसान अपनी सेब आधारित कृषि पर होने वाले जलवायु आघात से बचने के लिए कर सकते थे। 

इस शोध में विश्लेषण किया गया है कि कैसे सिंचाई, विपणन, कृषि सम्बन्धी ज्ञान, संसाधनों और अन्य संस्थागत सहायता के लिए मजबूत सार्वजनिक समर्थन प्रणाली ने किसानों की निर्णय लेने की शक्ति को उल्लेखनीय रूप से प्रभावित किया था। 

इस अध्ययन से जुड़े अन्य शोधकर्ता हैरी फिशर ने बताया कि ग्रामीणों द्वारा अपने खुद के दम पर जलवायु बदलावों से निपटने के लिए उठाए गए क़दमों में राज्य के हस्तक्षेप महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। जलवायु परिवर्तन संबंधी योजना बनाना दुनिया भर में सर्वोच्च प्राथमिकता है।

अध्ययन से पता चलता है कि सहायक नीतियों और सार्वजनिक संस्थानों ने किसानों को नई फसलों में विविधता लाने में सक्षम बनाया है। गौरतलब है कि यह फसलें जलवायु की बदलती परिस्थितियों के अनुकूल थी। शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि यदि स्थानीय समुदायों को प्रशासनिक और नीतिगत समर्थन मिले तो वो अपनी जीविका को ऐसा बना सकते है जो बदलती जलवायु का भी सामना कर सकती है। 

इस बारे में वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टिट्यूट, भारत के जलवायु निदेशक उलका केलकर ने जानकारी दी है कि किसानों को सही तकनीक वित्त और बाजारों तक पहुंच प्रदान करने की आवश्यकता है। यही नहीं जिन किसानों के पास अपनी भूमि, सिंचाई व्यवस्था और सामाजिक नेटवर्क से जुड़ाव है उनके पास दूसरे किसानों की तुलना में कहीं बेहतर अवसर हैं।

यह अध्ययन हमें सिखाता है कि हमें भविष्य में इस तरह के खतरों से निपटने के लिए नीति और संस्थागत समर्थन की एक पूरी श्रृंखला की आवश्यकता है। यह नीति निर्मातों के सामने इस बात के भी सबूत रखता है कि जलवायु अनुकूलन क्षमता को राज्य के समर्थन, सामाजिक बातचीत और व्यक्तिगत निर्णय लेने की एक परस्पर क्रिया के रूप में देखने की जरुरत है। 

यह अध्ययन सफलता के इस सफर में ग्रामीणों के प्रयासों के साथ ही सार्वजनिक एजेंसियों और सामाजिक नेटवर्क की भूमिका को भी दर्शाता है। साथ ही विकास और जलवायु सम्बन्धी नीतियों को कैसे अपनाया जा सकता है इस बात को भी उजागर करता है। यह पूरा अध्ययन जर्नल एनवायर्नमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुआ है। 

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