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खाने की आदत में बदलाव से कम हो सकता है जलवायु परिवर्तन का संकट

साइंस डायरेक्ट पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में न सिर्फ व्यक्तियों बल्कि देश स्तरीय भूख के संकट और जलवायु परिवर्तन की चुनौती पर बातचीत की गई है। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए एक मॉडल विकसित किया है।
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दुनिया में कुपोषण और उससे जनित मोटापा, बौनापन आदि समस्याओं को कम करने के लिए जहां ज्यादा अनाज पैदा करने की जरूरत हैं वहीं, दूसरी ओर जलवायु परिवर्तन की समस्या के कारण अनाज उत्पादन भी एक बड़ी समस्या बन चुका है। यदि खाने की ही आदतों में बदलाव किया जाए तो न सिर्फ कुपोषण बल्कि जलवायु परिवर्तन की भी समस्या को कम किया जा सकता है।
जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर फॉर ए लिवेबल फ्यूचर बेस्ड एट द जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के नए शोध के अनुसार शाकाहार का चयन जलवायु परिवर्तन को कम करने में बेहतर परिणाम दे सकता है। शोध के मुताबिक अधिकांश निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पर्याप्त मात्रा में  सेहतमंद आहार के लिए खाद्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी होगी, जिसके कारण पानी के उपयोग और ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में अधिक वृद्धि होने के आसार हैं। 
साइंस डायरेक्ट पत्रिका में प्रकाशित इस शोध में न सिर्फ व्यक्तियों बल्कि देश स्तरीय भूख के संकट और जलवायु परिवर्तन की चुनौती पर बातचीत की गई है। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए एक मॉडल विकसित किया है। 
वैज्ञानिकों का आकलन है कि 140 देशों में आहार प्रवृत्ति में बदलाव से काफी सकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक वनस्पति आधारित आहार (प्लांट-फ़ॉरवर्ड डाइट) का आकलन किया गया। अध्ययन की एक महत्वपूर्ण खोज से पता चला है कि एक ऐसा आहार जिसमें पशु प्रोटीन मुख्य रूप से बहुत कम आहार पर जीने (कम खाद्य श्रृंखला) वाले जानवरों से आया था, जैसे कि छोटी मछली और मोलस्क ये मुख्य रूप से शाकाहारी होते है जिससे पर्यावरण पर इनका प्रभाव लगभग ना के बराबर होता है।

शोधकर्ताओं ने इन जलवायु प्रभावों का मुकाबला करने के लिए और आहार से संबंधित रोगों और मृत्यु दर को कम करने के लिए, इस रिपोर्ट के आधार पर सुझाव दिए हैं, जिसमे कहा गया है कि उच्च आय वाले देशों को शाकाहारी आहारों में तेजी लानी चाहिए। अध्ययनकर्ता इस बात पर जोर देते हैं कि इन आहारों और उनके पर्यावरणीय प्रभाव के जांच के आधार पर आहार संबंधी सिफारिशों को अपनाया जाना चाहिए, जिससे स्वास्थ्य और पोषण की जरूरतों, सांस्कृतिक प्राथमिकताओं आदि के बीच ताल-मेल बिठाया जा सके।

शोधकर्ता कहते है कि हमारे डेटा से पता चलता है कि आहार मे डेयरी उत्पाद की अधिक खपत ग्रीनहाउस गैस में बढ़ोत्तरी करता हैं। वहीं दूसरी ओर पोषण विशेषज्ञ मानते हैं कि डेयरी उत्पादों की बौनेपन की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है, जो विश्व बैंक मानव विकास सूचकांक का एक घटक भी है। ब्लीम कहते हैं, अध्ययन के निष्कर्ष में इस कठिनाई को उजागर किया गया कि हर देश की आहार जरूरते अलग- अलग होती है, हम आहार सम्बंधित जरूरतों को पूरा करने की सिफारिशे नहीं कर सकते हैं।
अध्ययन के अनुसार खाद्य उत्पादन के देश की जलवायु के लिए अलग-अलग परिणाम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, पराग्वे में उत्पादित गोमांस का एक पाउंड डेनमार्क में उत्पादित एक पाउंड गोमांस की तुलना में लगभग 17 गुना अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। अक्सर, यह अंतर चरागाह भूमि और वनों की कटाई के कारण होती है। व्यापार के पैटर्न का भी देशों के आहार संबंधी जलवायु और ताजे पानी पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है।
अध्ययनकर्ता ने कहा कि हमारे शोध से संकेत मिलता है कि जलवायु और पोषण संकट को दूर करने के लिए एक ही तरह के आहार नहीं हो सकते हैं। अध्ययनकर्ता केव नाचमन कहते है कि प्रत्येक देश की खाद्य उत्पादन नीतियां इस तरह की होनी चाहिए जिसमें पोषण के साथ-साथ जलवायु पर भी बहुत कम असर हो।
 
अच्छी बात यह है कि, यह शोध समाधान का एक हिस्सा हो सकता है, क्योंकि यह अब नीति निर्माताओं को आहार संबंधी दिशानिर्देशों सहित राष्ट्रीय स्तर पर उपयुक्त रणनीतियों को विकसित करने ओर लक्ष्यों को पूरा करने में मदद कर सकता है।
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