कार्बन बजट: पहले से ही गलत बंटवारे के रास्ते पर चल रही है दुनिया

1989 तक सात बड़े कार्बन उत्सर्जक देश दुनिया के कुल कार्बन स्पेस का 77 फीसदी हिस्सा घेरते थे। 1990 से 2019 के बीच चीन बाकी सारे उत्सर्जको देशों को मिलाकर 67 फीसदी हिस्सा घेरने लगा
कार्बन बजट: पहले से ही गलत बंटवारे के रास्ते पर चल रही है दुनिया
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विकसित देशों ने 1870 के बाद निरंकुश उपभोग कर जीवाश्म ईंधन और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को बढ़ावा दिया और बाकी दुनिया के लिए सीमित कार्बन स्पेस छोड़ा है। आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं।
कार्बन बजट का निर्माण इस अवधारणा के आधार पर किया गया है कि वैश्विक तापमान बढ़ने और वातावरण में छोड़ी गई कार्बन डाइऑक्साइड के बीच एक रैखिक संबंध है। जैसे-जैसे कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ता है, वैसे-वैसे वातावरण का तापमान भी बढ़ता है।
इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि अगर हम धरती का तापमान दो डिग्री सेल्सियस बढ़ा रहे हैं तो इसका मतलब है कि हम उसी अनुपात में ज्यादा मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने की छूट भी ले रहे हैं।
दरअसल ग्रीनहाउस गैसों में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों के शामिल होने के बावजूद यह ग्रीनहाउस गैस बजट नहीं बल्कि कार्बन बजट है।
यानी धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस कम करने के लिए आवंटित किया गया कार्बन बजट आंशिक तौर पर यह भी दिखाता है कि कार्बन डाइऑक्साइड के अलावा अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन किस तरह तेजी से कम किया जा सकता है।
2018 में जीवाश्मों से मिलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड का कुल ग्रीनहाउस गैसों में योगदान 68 फीसद से कम था। इस तरह जैसे कि कार्बन बजट की अवधारणा, ऊर्जा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में नीति बनाने में उपयोगी है, उसी तरह से ग्रीनहाउस गैसों के लिए तैयार किया समग्र उत्सर्जन बजट भी समान रूप से महत्वपूर्ण है।

समस्या के दो मुख्य बिंदु: फिलहाल विकसित देश और चीन मिलाकर कुल उत्सर्जित की जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड का 70 फीसद हिस्सा घेरते हैं।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी ने 2014 में प्रकाशित अपनी पांचवी एसेसमेंट रिपोर्ट में पाया था कि दुनिया 1861 से 2100 के बीच 2250 गीगाटन कार्बन डाइऑसाइड का उत्सर्जन कर सकती है, यानी तब उसके तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा में रहने के अवसर 66 फीसदी होते। हालांकि इस साल पेश हुई उसकी रिपोर्ट में यह आकलन संशोधित किया गया है।
2020 की शुरूआत से दुनिया का कुल बजट अब 400 गीगाटन कार्बन डाइऑसाइड है,  और तापमान के 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा में रहने के आसार 66 फीसदी। हालांकि जब हम बचे हुए कार्बन बजट का आकलन करते हैं तो हम देखते हैं कि किन देशों ने दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखने के लिए अपने बजट का इस्तेमाल किया है। गैर-आश्चर्यजनक रूप सेे हम पाते  हैं कि 1870 से 2019 के बीच उत्सर्जन में गहरी असामनता है।

जलवायु सम्मेलन के गठन से पहले, 1870-1989

1870 से लेकर 1989 तक, यूनाईटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेशन ऑन क्लाईमेट चेंज, यानी यूएनएफसीसीसी के गठन से तीन साल पहले तक छह देश, जिनमें यूनाईटेड किंगडम, अमेरिका, रूस, जापान, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा शामिल थे, यूरोपीय संघ के साथ मिलकर दुनिया की कुल कार्बन डाइऑक्साइड का 77 फीसदी उत्सर्जित करते थे। गौरतलब है कि  यूएनएफसीसीसी का गठन जलवायु तंत्र को लेकर एक अंतरराष्ट्रीय समझौते के लिए किया गया था। तब केवल अमेरिका 31.26 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता था, जबकि चीन 5.11 फीसदी। तब भारत समेत बाकी दुनिया का इसमें योगदान ज्यादा नहीं था।  

चीन के उभार के बाद, 1990-2019

1990 से 2019 के बीच चीन के एक नई ताकत के तौर पर उभरने के बाद कार्बन उत्सर्जन में उसका योगदान भी तीन दशक में 5.11 फीसद से बढ़कर 20.7 फीसदी हो गया। चीन के योगदान में यह उछाल उसके साल 2000 में विश्व व्यापार संगठन से जुड़ने के बाद आया। 2015 से 2019 के बीच उत्सर्जन में उसकी हिस्सेदारी बढ़कर 26 फीसदी हो गई।
हालांकि जिस तरह उत्सर्जन में चीन की हिस्सेदारी बढ़ी, उसी अनुपात में बाकी अमीर देशों की इसमें हिस्सेदारी कम नहीं हुई। दरअसल, बाकी दुनिया ने तो एक तरह से चीन के लिए रास्ता ही तैयार किया। इस दौर में चीन सस्ते निर्माण का ऐसा केंद्र बन गया, जहां सामान का उत्पादन, निर्यात के लिए किया जाता था।
2019 के बाद से चीन और सात मूल उत्सर्जक देश कार्बन स्पेस का अधिकतम हिस्सा घेरने लगे। 1990 से 2019 के बीच इन देशों का कार्बन उत्सर्जन में योगदान 67 फीसदी था। बाकी दुनिया, जहां 66 फीसद आबादी रहती है, वह महज 33 फीसदी कार्बन स्पेस घेर रही है।

दोनों दौर को मिलाकर यानी 1870 से 2019

अगर हम, औद्योेगिक क्रांति की शुरूआत यानी 1870 से वर्तमान दौर यानी 2019 तक को देखें तो कार्बन बजट का यह अनुपात और विसंगति वाला दिखेगा।
1870 से 2019 तक अमेरिका, ईयू-27, रूस, यूके, आस्ट्रेलिया, कनाडा और जापान,  जिनमें 2019 में दुनिया की केवल 15 फीसद आबादी रहती थी, कुल उत्सर्जन का 61 फीसद हिस्सा घेरते थे। अगर इसमें चीन को भी जोड़ लें तो इसकी कुल आबादी 34 फीसदी और उत्सर्जन 74 फीसदी था।
भारत इस सूची में तीसरे या चौथे नंबर है, जो दुनिया की 18 फीसदी आबादी का घर होने के साथ 3.16 फीसदी उत्सर्जन कर रहा था।
जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल यानी आईपीसीसी के 2014 के कार्बन डाइऑक्साइड के 2250 गीगाटन के बजट के संदर्भ में देखें तो दुनिया ने 2019 तक इसका 73 फीसदी हिस्सा खत्म कर लिया है।

इसमें चीन और बाकी सात मूल देशों को योगदान 54 फीसदी रहा। यानी यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि दुनिया ऐतिहासिक रूप से कार्बन बजट के गलत बंटवारे के रास्ते पर चल रही है।

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