फोटो सौजन्य: X@UNFCCC
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बॉन जलवायु सम्मलेन: लंबित मुद्दों और अपेक्षा के बोझ से बौना

बॉन में हो रहा जलवायु सम्मलेन, बाकू से बेलेम (कॉप-28 से कॉप-29) रोडमैप के कार्ययोजना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है
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16 से 26 जून 2025 तक जर्मनी के बॉन में हो रहा 62वाँ संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन वैश्विक जलवायु प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण मंच है, जो मुख्यतः प्रारंभिक पर तकनीकी वार्ता है जो इस साल के अंत में ब्राजील के बेलेम में होने वाले 30वें जलवायु सम्मेलन की रूप रेखा तैयार करेगा।

बैठक में लगभग 190 देशों के 5,000 प्रतिनिधि जलवायु वित्त, नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष, राष्ट्रीय निर्धारित योगदान, जलवायु अनुकूलन, और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने जैसे मुद्दों पर चर्चा होगी। यह सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है जब व्यापक स्तर पर फैला भू-राजनीतिक तनाव, अमेरिका की पेरिस समझौते से वापसी, और जलवायु वित्त जैसे अनसुलझे मुद्दे वैश्विक सहयोग को चुनौती दे रहे हैं, परंतु अंतरराष्ट्रीय समुदाय के पास एकजुट होकर प्रभावी जलवायु नीति पर काम करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं है।

मौजूदा जलवायु प्रयासों का सबसे उलझा हुआ पहलु जलवायु वित्त है, जहाँ अमीर देश और जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देश आमने-सामने हैं। जलवायु विमर्श पर वैश्विक प्रयास मुख्यतः क्षमता अनुरूप साझी लेकिन भेदभावपूर्ण जिम्मेदारी पर आधारित है इसी आधार पर जलवायु वित्त का भी निर्धारण होना है।

पिछले कॉप (बाकू, 2024) में विकासशील देशों ने 2030 तक प्रतिवर्ष 1.3 ट्रिलियन डॉलर की मांग रखी, वहीं विकसित देश केवल 300 बिलियन डॉलर तक ही देने को तैयार दिखे और पेंच फंसा रहा।

एक बार फिर बेलेम में होने वाली कॉप-29 के लिए सहमति बनाई जा रही है कि 2030 ना सही तो कम से कम 2035 तक 1.3 ट्रिलियन डॉलर जुटाने का लक्ष्य निर्धारित हो जाए।

यह अलग बात है कि भारत सहित लाइक माइंडेड डेवलपिंग कंट्री (एलएमडीसी); विश्व की लगभग आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने विकासशील देशों का एक समूह जो संयुक्त राष्ट्र और विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों में खुद को एक साथ बातचीत करने वाले समूह के रूप में संगठित करते हैं, का इस बात पर जोर है  कि जलवायु वित्त मुख्य रूप से विकसित देशों से अनुदान के रूप में आये, न कि ऋण या निजी निवेश के रूप में।

दूसरी ओर, यूरोपीय संघ और कनाडा जैसे देश कार्बन क्रेडिट जैसी  वित्तीय युक्तियों  पर जोर दे रहे हैं, जिसे विकासशील देश अपनी संप्रभुता पर अतिक्रमण के रूप में देख रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि जलवायु वित्त में कमी के लिए विकसित देश सार्वजनिक वित्त के अलावा निजी निवेश और यहाँ  तक  ऋण को प्रोत्साहित करने पर जोर देंगे।

कॉप-28 से सैद्धांतिक  रूप से वजूद में आये नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष, जो अभी भी लगभग वित्त पोषित नहीं है,  विकासशील देशों के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, जो चरम मौसम  के प्रभावों, जैसे बाढ़, सूखा, और तूफान  से सबसे अधिक प्रभावित हैं।

लॉस एंड डैमेज कोलैबोरेशन के अनुसार, 2025 में विकासशील देशों की इस मद में 395 बिलियन डॉलर की जरुरत है, लेकिन यथार्थ यह है कि नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष के लिए 395 बिलियन डॉलर के मुकाबले केवल 768.4 मिलियन डॉलर ही निर्धारित है और उसमें  से भी केवल 333.89 मिलियन डॉलर ही जमा हुए हैं, जो जरुरत का 0.1% भी नहीं है।

इस प्रकार यह वित्तीय उपकरण केवल कागजी ही है जिसे प्रभावी बनाना इस बैठक के लिए महत्वपूर्ण मुद्दा है, जिसके लिए इसे हर देश के राष्ट्रीय निर्धारित योगदान में शामिल करने पर जोर होगा।

पेरिस समझौते के तहत, हर पांच साल में सभी देशों को अपने जलवायु प्रयासों का ब्योरा राष्ट्रीय निर्धारित योगदान के रूप में अपडेट करना होता है। तीसरे दौर के राष्ट्रीय निर्धारित योगदान की समय सीमा (10 फरवरी 2025) बीत चुकी है पर अभी तक केवल 22 देश (जो लगभग वैश्विक उत्सर्जन के पांचवे भाग के लिए जिम्मेदार हैं) ही इसे अपडेट कर पाए हैं।

चीन, भारत, और यूरोपियन संघ जैसे प्रमुख उत्सर्जक इस लिस्ट से बाहर है। सनद रहे अब तक के जलवायु प्रयास जो दूसरे दौर के राष्ट्रीय निर्धारित योगदान पर आधारित है, इस सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान को 2.5–2.9 डिग्री सेल्सियस की वार्मिंग की ओर ले जा रहे हैं, जो पेरिस समझौते के 1.5°C के लक्ष्य से बहुत दूर है। ऐसा लगता है कि वैश्विक स्तर पर जलवायु संकट से लड़ाई की धार बिना पर्याप्त जलवायु वित्त के कुछ कुंद पड़ती जा रही है।

वैश्विक उष्मण (ग्लोबल वार्मिंग) के बचाव के लिए जलवायु अनुकूलन को पेरिस समझौते में महत्वपूर्ण स्थान मिला था, जिसके लिए पर्याप्त वित्त उपलब्ध कराने का संकल्प लिया गया था। 2021 के ग्लासगो जलवायु सम्मलेन (कॉप-26) में 2025 तक इस मद में आर्थिक कोष को दुगुना करने का लक्ष्य निर्धारित था, लेकिन यह लक्ष्य भी अन्य महत्वाकांक्षी लक्ष्यों की तरह पूरा नहीं हुआ और बॉन सम्मलेन की लिस्ट में शामिल है।

दुबई कॉप-28 में उर्जा के लिए जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता में तेजी से कमी लाने और हरित उर्जा के तेजी से विकास पर सहमति बनी, लेकिन उसके बाद से पेट्रो अर्थव्यवस्था  पर निर्भर देशों के तिकड़म के कारण इस पर भी प्रगति रुकी हुई है।

यहां तक निजी तेल कंपनियों ने उसके बाद से 280 बिलियन डॉलर का मुनाफा कमाया, पर उनका जलवायु वित्त में योगदान नगण्य ही रहा। इस प्रकार नवीकरणीय ऊर्जा को तिगुना करने और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता घटाने की रणनीति भी बॉन के प्रमुख मुद्दों में से एक है।

बॉन सम्मलेन मुद्दों के दबाब में बौना दिख रहा है साथ ही साथ मौजूदा वैश्विक परिस्थितियों में इसमें से किसी भी मुद्दे पर सहमति  बन पाने की सम्भावना दुरूह दिखती है। ट्रम्प के पेरिस समझौते से वापसी और बॉन में प्रतिनिधि तक नहीं भेजने के निर्णय ने वैश्विक जलवायु  प्रयास के लिए एक सदमा जैसा है।

एक कदम आगे जा कर राष्ट्रपति ट्रम्प ने जलवायु वित्त को रद्द कर दिया और बाइडन की हरित उर्जा नीतियों, जैसे इनफ्लेशन रिडक्शन एक्ट के पर क़तर दिए। अब ‘कुछ भी नहीं से बेहतर कुछ तो सही’ वाली समझ के आधार पर कॉप30  के प्रमुख आंद्रे डो लागो अमेरिकी संगठन और कॉर्पोरेट से रचनात्मक भूमिका की आस लगा रहे हैं, लेकिन यह वैश्विक लक्ष्यों के लिए अपर्याप्त है।

रही सही कसर बहुध्रुवीय वैश्विक तनाव ने पूरी कर दी है, जो इस समय चरम पर है। रूस-यूक्रेन युद्ध, इजराइल-गाजा-ईरान संघर्ष,अमेरिका-चीन व्यापारिक खींचतान और ट्रम्प के उन्मादी नीतियों ने बहुपक्षीय सहयोग के माहौल को सबसे निचले स्तर पर ला लिया है, जिसके कारण जलवायु प्रयास प्राथमिकता से लगभग बाहर  जा चुका है। यूरोप-रूस में सैन्य खर्च बढ़ने और सैन्य प्राथमिकताओं के कारण जलवायु वित्त के लिए संसाधन कम हुए हैं, वही चीन अमेरिका के व्यापार कूटनीति की तोड़ ढूँढने  में लगा है।

पिछले कुछ वर्षों में पेरिस समझौते के बाद जलवायु प्रयास में आयी तेजी अब धीरे-धीरे प्रमुख देशों की प्राथमिकता से छिटक रही है, यहाँ तक भारत सहित प्रमुख देशों  ने भी समय सीमा बीत जाने के बाद भी अपना राष्ट्रीय निर्धारित योगदान अपडेट ही नहीं किया। जलवायु वित्त और नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष पर सहमति की कमी से विकासशील देशों में असंतोष पैदा किया है। यहाँ तक इस सम्मलेन में जलवायु संकट के लिए जिम्मेदार देशों के लिए “मोरल स्टॉकटेक” की भी बात होने लगी है।

बॉन में हो रहा जलवायु सम्मलेन, बाकू से बेलेम (कॉप-28 से कॉप-29) रोडमैप के कार्ययोजना के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। विकासशील देश उम्मीद करते हैं कि अमीर देश नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष के लिए कम से कम 400 बिलियन डॉलर प्रतिवर्ष सहित अन्य सभी लंबित मुद्दों के लिए राजी होंगे। अमेरिका की अनुपस्थिति में, यूरोपियन संघ, भारत और चीन से मजबूत नेतृत्व की अपेक्षा है। अपेक्षा यह  भी  है कि चीन, सबसे बड़ा उत्सर्जक होने के नाते, अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदान को जल्द जमा करने और जलवायु वित्त में योगदान बढ़ाये। आशा यह भी  है कि कॉप की मौजूदा “ट्रोइका” प्रणाली पिछले, वर्तमान और अगले  कॉप देशों  के समूह में तालमेल से जलवायु नीतियों में निरंतरता आएगी, पर पिछले कॉप के बाद से ही जो हलचल मची है, सब उलट-पुलट हो चुका है।

बॉन जलवायु सम्मेलन 2025 वैश्विक जलवायु प्रयासों के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव है, जो कॉप-30 के लिए मार्ग प्रशस्त करेगा। जलवायु वित्त, नुकसान और क्षतिपूर्ति कोष, राष्ट्रीय निर्धारित योगदान, जलवायु अनुकूलन, और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता में कमी जैसे मुद्दे इस सम्मेलन के केंद्र में हैं। अमेरिका की अनुपस्थिति, भू-राजनीतिक तनाव, और वैश्विक उत्साह की कमी प्रमुख चुनौतियाँ हैं। बॉन सम्मलेन लंबित मुद्दों जिसमें जलवायु वित्त और नुकसान और क्षतिपूर्ति सहित अन्य सभी प्रकल्पों  के लिए आर्थिक संसाधन की कमी और जलवायु प्रयास का सभी प्रमुख देशों की प्राथमिकता से ही बाहर हो जाने जैसे कारणों से बौना प्रतीत हो रहा है। ऐसे में अमेरिका का पेरिस समझौते से ही नहीं अपनी जलवायु जिम्मेदारियों तक से अलग हो जाना निराशाजनक है। अपेक्षा की बोझ से दबा बॉन जलवायु सम्मलेन शायद ही साल के अंत में बेलेम में होने वाले कॉप-30 के लिए आसान रास्ता प्रशस्त कर पाये। 

…… पर आशान्वित होने के अलावा और कोई विकल्प भी नहीं है, कोई और ‘प्लेनेट बी’ भी नहीं है।

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