दुनिया के 7.8 अरब लोगों की खाने-पीने की आदतें ऐसी हैं कि उनकी वजह से 21 से 37 फीसदी तक ग्रीनहाउस गैस (जीएचजी) का उत्सर्जन होता हैं। इसका मतलब यह है कि परिवहन (14 फीसदी), इमारतों में ऊर्जा के उपयोग (16 फीसदी), उद्योगों (21 फीसदी) और बिजली उत्पादन (25 फीसदी) से ज्यादा हमारी खाद्य प्रणाली (वह पूरी प्रक्रिया जिसमें अनाजों का उत्पादन, उपभोग, वितरण और निस्तारण शामिल है) से ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।
ऐसा में देखा जाए तो यदि बाकी सारे स्त्रोतों में ठहराव आ भी जाए तो अकेले वैश्विक खाद्य-प्रणाली ही इतना ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कर सकती है कि जो धरती को गर्म कर तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा देगी।
ये आंकड़े और अनुमान, सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के सालाना मीडिया कान्क्लेव, अनिल अग्रवाल डायलॉग में जारी हुई एनुअल स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट 2022 रिपोर्ट, में शामिल हैं। रिपोर्ट को केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक मार्च को जारी किया था।
डाउन टू अर्थ की एसोसिएट एडिटर विभा वार्ष्णेय कहती हैं कि यूरोप और अमेरिका के शोधकर्ताओं के एक समूह ने हाल ही में इन आंकड़ों पर एकराय जाहिर की। इनसे ज्यादातर लोगों को आश्चर्य होगा, जो यह सोचते हैं कि पौधे कॉर्बन को केवल सोंकते हैं।
उनके मुताबिक यह सच है कि पौधे, प्रकाश-संश्लेषण क्रिया के जरिए वातावरण में मौजूद कॉर्बन-डाइऑक्साइड निकालते हैं, लेकिन वे विघटित होने पर बड़ी मात्रा में गैस भी छोड़ते हैं। खाद्य-प्रणाली, प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीकों से भी उत्सर्जन में योगदान देती है।
उदाहरण के लिए, खेतों और चारागाह के लिए रास्ता बनाने के लिए पेड़ों की कटाई, कार्बन सोंकने के एक बड़े जरिए को हटा देती है। जीवाश्म ईंधन का उपयोग करने वाली कृषि मशीनरी का संचालन, या कृषि रसायनों और उर्वरकों का निर्माण भी जीएचजी का उत्सर्जन करता है।
वह आगे कहती हैं, ‘तो फिर दुनिया इस दिशा में कुछ कर रही है ? 16 देशों के 37 वैज्ञानिकों के समूह द ईएटी - लांसेट कमीशन ऑन फूड, प्लेनेट एंड हेल्थ’ ने खाद्य-प्रणालियों के लिए वैश्विक लक्ष्य तय किए हैं, जो पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ हैं और मानव स्वास्थ्य को लाभ पहुंचाते हैं। इस कमीशन ने एक सार्वभौमिक स्वास्थ्य आहार का प्रस्ताव किया है, जो 10 सालों में शहरी उत्सर्जन को 60 फीसदी तक कम कर सकता है।’
सीएसई और डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा सितंबर 2020 के आकलन का हवाला देती है जिसमें कहा गया है कि भूमि-उपयोग परिवर्तन को कम करने और प्राकृतिक आवास के रूपांतरण से कार्बन डाइऑक्साइड की समकक्ष गैस, जीटीसीओ2ई का उत्सर्जन 4.6 जीगाटन कम हो सकता है।
वार्ष्णेय आगे कहती हैं, ‘खाद्य-क्षेत्र को कॉर्बन-रहित करने के लिए खाने-पीने की आदतों में नाटकीय परिवर्तन जरूरी होगा, हालांकि यह कहना जितना आसान है, करना उतना ही मुश्किल। इस लक्ष्य को पाने के रास्ते उतने स्पष्ट नहीं हैं जितने कि बिजली उत्पादन के लिए हैं। कार्बन-उत्सर्जन जैविक प्रणाली का अभिन्न अंग है। फिर यह भी है कि इंसान खाना तो बंद नहीं कर सकता।’
डाउन टू अर्थ के प्रबंध संपादक रिचर्ड महापात्र के मुताबिक, ‘इसके अलावा इस बदलाव के आर्थिक पहलू भी हैं। ईएटी -लांसेट कमीशन का सार्वभौमिक स्वस्थ आहार का सबसे किफायती विकल्प 1.58 अरब लोगों की प्रति व्यक्ति आय से अधिक है।’ दूसरी ओर आधुनिक खाद्य पदार्थो से उद्योगों के आर्थिक हित जिस तरह जुड़े हैं, उनमें रूपातंरण भी मुश्किल हो सकता है।
एनुअल स्टेट ऑफ इंडियाज एनवायरमेंट रिपोर्ट, के मुताबिक, इसके अलावा इस बात का डर भी है कि सार्वभौमिक स्वस्थ आहार पर ध्यान केंद्रित करने से जीएसची का उत्सर्जन करने वाले बाकी स्रोत अपनी जिम्मेदार से पीछे न हटने लगें। नवंबर 2021 में ग्लासगो में हुए कॉप-26 में हमने देखा था कि उसमें ग्लोबल वार्मिंग में कृषि क्षेत्र के योगदान को कम करने पर चर्चाएं हुई। अभी यह देखना बाकी है कि इसका खाद्य-प्रणाली पर क्या असर पड़ता है।