हर साल औसतन 87 हजार वर्ग किलोमीटर सिकुड़ रहे हैं पृथ्वी पर जमे हुए पानी वाले इलाके

जमे हुए पानी वाले सभी इलाके मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में तेजी से घट रहे हैं, जिसमें हर साल लगभग 102,000 वर्ग किलोमीटर का नुकसान हो रहा है।
Photo : Wikimedia Commons
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दुनिया भर में पृथ्वी पर जमे हुए पानी वाले सभी इलाके जिसे क्रायोस्फीयर कहते हैं, इसके अंतर्गत समुद्री बर्फ, झील की बर्फ, नदी की बर्फ, बर्फ का आवरण, ग्लेशियर, बर्फ की चादरें आती हैं। एक नए अध्ययन के अनुसार क्रायोस्फीयर जलवायु परिवर्तन के चलते 1979 और 2016 के बीच औसतन प्रति वर्ष लगभग 87 हजार वर्ग किलोमीटर तक सिकुड़ गए हैं।

जमे हुए पानी से ढकी भूमि की सीमा बहुत महत्वपूर्ण होती है क्योंकि चमकदार सफेद बर्फ वाली सतह पर जब सूर्य का प्रकाश पड़ता है तो यह गर्मी को परावर्तित कर देती है, जिससे हमारी धरती ठंडी हो जाती है। बर्फ और इससे घीरे आकार या स्थान में परिवर्तन हवा के तापमान को बदल सकता है, समुद्र के जल स्तर को बदल सकता है और यहां तक कि दुनिया भर में समुद्री धाराओं को भी प्रभावित कर सकता है।  

लान्झू विश्वविद्यालय में भौतिक भूगोलवेत्ता ज़ियाओकिंग पेंग ने कहा क्रायोस्फीयर जलवायु परिवर्तन के प्रति सबसे अधिक संवेदनशील होते हैं। क्रायोस्फीयर के घटने के चलते दुनिया भर में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं यह दिखाने वाला पहला अध्ययन है।

क्रायोस्फीयर में पृथ्वी के ताजे पानी का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा है और कुछ पहाड़ी क्षेत्रों में घटते ग्लेशियरों से पीने के पानी की आपूर्ति पर खतरा मडंरा रहा है। कई वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन के कारण व्यक्तिगत रूप से सिकुड़ती बर्फ की चादरें, घटते बर्फ के आवरण और आर्कटिक समुद्री बर्फ के नुकसान का दस्तावेजीकरण किया है। लेकिन पिछले किसी भी अध्ययन ने पृथ्वी की सतह पर क्रायोस्फीयर की पूरी सीमा और गर्म तापमान पर इसकी प्रतिक्रिया पर गौर नहीं किया है।

पेंग और लान्झोउ विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं ने क्रायोस्फीयर की हर रोज की सीमा की गणना की। जबकि क्रायोस्फीयर की सीमा बढ़ती है और मौसम के साथ सिकुड़ती है। उन्होंने पाया कि दुनिया भर में पृथ्वी के क्रायोस्फीयर द्वारा कवर किया गया औसतन क्षेत्र 1979 के बाद से तेजी से सिकुड़ गया हैं, इसका एक कारण हवा का बढ़ता तापमान है।

जमे हुए पानी वाले सभी इलाके (क्रायोस्फीयर) मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में तेजी से घट रहे हैं, जिसमें हर साल लगभग 102,000 वर्ग किलोमीटर या कैनसस के आकार का लगभग आधे का नुकसान हुआ है। जबकि नुकसानों में दक्षिणी गोलार्ध में बदलाव हो रहा है, जहां क्रायोस्फीयर में लगभग 14,000 वर्ग किलोमीटर सालाना की वृद्धि हुई है। यह वृद्धि मुख्य रूप से अंटार्कटिका के आसपास रॉस सागर में समुद्री बर्फ में हुई, संभवतः हवा और समुद्री धाराओं के पैटर्न और अंटार्कटिक बर्फ की चादरों के जुड़ने के कारण ऐसा हुआ।

अनुमानों से पता चला है कि दुनिया भर में क्रायोस्फीयर न केवल सिकुड़ रहे थे बल्कि कई इलाकों में बहुत कम समय में जम भी रहे थे। जमने के औसत के पहले दिन 1979 के बाद की तुलना में लगभग 3.6 दिन बाद होता है, जबकि बर्फ लगभग 5.7 दिन पहले पिघल जाती है।

कैलगरी विश्वविद्यालय में ग्लेशियोलॉजिस्ट शॉन मार्शल ने कहा इस तरह का विश्लेषण वैश्विक सूचकांक या जलवायु परिवर्तन का पता लगाने के लिए एक अच्छी योजना है। इन आंकड़ों का उपयोग करके अगला कदम यह जांचने के लिए होगा कि बर्फ और बर्फ का आवरण पृथ्वी पर कितना होगा और कितने समय तक रहेगा। यह देखने के लिए कि सफेदी (अल्बेडो) में बदलाव मौसमी या मासिक आधार पर जलवायु को कैसे प्रभावित करते हैं और यह समय के साथ कैसे बदल रहा है।

दुनिया भर में क्रायोस्फीयर की सीमा का अनुमान लगाने के लिए, अध्ययनकर्ताओं ने धरती की सतह को एक ग्रिड प्रणाली में विभाजित किया। यह अध्ययन एजीयू की पत्रिका अर्थ फ्यूचर में प्रकाशित हुआ है।

उन्होंने ग्रिड में प्रत्येक सेल को क्रायोस्फीयर के हिस्से के रूप में वर्गीकृत करने के लिए वैश्विक समुद्री बर्फ की सीमा, बर्फ के आवरण और जमी हुई मिट्टी के मौजूदा डेटा सेट का उपयोग किया, इसमें तीन घटकों में से कम से कम एक शामिल है। फिर उन्होंने दैनिक, मासिक और वार्षिक आधार पर क्रायोस्फीयर की सीमा का अनुमान लगाया और जांच की, उनके अध्ययन में पाया गया कि 37 वर्षों में यह कैसे बदल गया।   

अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि वैश्विक डेटासेट का उपयोग अब क्रायोस्फीयर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव की जांच के लिए किया जा सकता है और ये परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र, कार्बन अदला-बदली और पौधे और पशु जीवन चक्र के समय को कैसे प्रभावित करते हैं।

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