एक शोध में सामने आया आर्कटिक के तापमान बढ़ने का कारण

शोधकर्ताओं ने पाया कि 1955 से 2005 तक सभी वैश्विक तापमानों के एक तिहाई के कारण आर्कटिक का तापमान बढ़ा और समुद्री बर्फ के आधे से अधिक हिस्से को नुकसान हुआ
एक शोध में सामने आया आर्कटिक के तापमान बढ़ने का कारण
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कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले ग्रीनहाउस गैसों व पदार्थों के प्रभाव की जांच की है। शोधकर्ताओं ने पाया कि 1955 से 2005 तक सभी वैश्विक तापमानों के एक तिहाई के कारण आर्कटिक का तापमान बढ़ा और समुद्री बर्फ के आधे से अधिक हिस्से को नुकसान हुआ। यहां कार्बन डाइऑक्साइड ने सबसे व्यापक ग्रीनहाउस गैस के रूप में काम किया। यह अध्ययन नेचर क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ (ओजोन डेप्लेटिंग सबस्टेन्सेस) या ओडीएस, 1920 और 30 के दशक में विकसित किए गए थे। ये रेफ्रिजरेंट, सॉल्वैंट्स और प्रोपेलेंट के रूप में लोकप्रिय हो गए थे। ये पूरी तरह से मानव निर्मित हैं, इसलिए ये 1920 से पहले वातावरण में मौजूद नहीं थे। 1980 के दशक में पृथ्वी के स्ट्रैटोस्फेरिक ओजोन परत में एक छेद पाया गया। यहां उल्लेखनीय है कि ओजोन परत सूर्य के हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को फिल्टर करती है। इस छेद को अंटार्कटिका के ऊपर खोजा गया था। वैज्ञानिकों ने ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ (ओडीएस) को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया।

ओजोन को हो रहे नुकसान को देखते हुए, दुनिया इसे बचाने के लिए एक वैश्विक समझौते करने की कार्रवाई में जुट गई। इस समझौते को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल कहा जाता है। इस पर 1987 में हस्ताक्षर किए गए थे और इसे 1989 में लागू किया गया था। अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण, 20 वीं शताब्दी के अंत में अधिकांश ओजोन को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थ (ओडीएस) की वायुमंडलीय सांद्रता जो पहले चरम पर थी, अब उसमें गिरावट आने लगी थी। हालांकि, इस नए अध्ययन से पता चलता है कि कम से कम 50 वर्षों तक, ओडीएस का जलवायु पर गहरा प्रभाव पड़ा।

अमेरिका के कोलंबिया स्कूल ऑफ इंजीनियरिंग एंड एप्लाइड साइंस और लैमोंट-डोहर्टी अर्थ ऑब्जर्वेटरी के वैज्ञानिकों ने आर्कटिक जलवायु पर ओडीएस के प्रभावों को समझने के लिए जलवायु मॉडल का उपयोग किया। लैमोंट-डोहर्टी के शोधकर्ता माइकल प्रीविडी ने कहा कि, हमने दिखाया कि ओडीएस ने आर्कटिक जलवायु को काफी हद तक प्रभावित किया है। वैज्ञानिकों ने बताया कि ओजोन परत के कमजोर होने के कारण, आर्कटिक का तापमान बढ़ा और समुद्री बर्फ पिघल गई। वैज्ञानिक दो अलग-अलग जलवायु मॉडल का उपयोग करके अपने निष्कर्ष पर पहुंचे है।

शोधकर्ताओं के परिणाम मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के महत्व को उजागर करते हैं, जिस पर लगभग 200 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं। कोलंबिया के एप्लाइड फिजिक्स और एप्लाइड गणित के प्रोफेसर और प्रमुख अध्ययनकर्ता लोरेंजो पोलवानी ने कहा कि, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल की बदौलत जलवायु शमन (मिटिगैशन) मुमकिन हो पाया, क्योंकि जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले ये पदार्थ वातावरण में कम हो रहे हैं। यह आने वाले दशकों में ग्लोबल वार्मिंग को और अधिक कम करने में योगदान देंगे।

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