दुनिया के चार महाद्वीपों में रहने वाले 20 से अधिक पक्षी एक जैसी "चेतावनी" भरी पुकार का प्रयोग करते हैं।
यह पुकार पक्षियों में जन्मजात प्रतिक्रिया से जुड़ी है, लेकिन इसे कब प्रयोग करना है, वे सामाजिक रूप से सीखते हैं।
यह पुकार आमतौर पर तब दी जाती है जब कोई परजीवी पक्षी, जैसे कोयल, घोंसले के पास दिखाई देता है।
यह पुकार पक्षियों को मिलकर परजीवी को भगाने में मदद करती है, जिससे सामूहिक सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
शोध यह संकेत देता है कि इंसानी भाषा की तरह, जानवरों की आवाजें भी धीरे-धीरे सीखने और अर्थ जोड़ने से विकसित हो सकती हैं।
पक्षियों की दुनिया में हाल ही में एक बेहद रोचक खोज हुई है, जिसने वैज्ञानिकों को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि इंसानी भाषा की शुरुआत कैसे हुई होगी। यह खोज बताती है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले पक्षी, जो एक-दूसरे से लाखों साल पहले अलग हो गए थे, एक जैसी चेतावनी भरी पुकार का प्रयोग कर रहे हैं, खासकर तब जब उनके घोंसलों के पास कोई परजीवी पक्षी दिखाई देता है।
यह शोध कॉर्नेल यूनिवर्सिटी और स्पेन के डोनाना बायोलॉजिकल स्टेशन के वैज्ञानिकों द्वारा किया गया और इसे प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका नेचर इकोलॉजी एंड एवोलुशन में प्रकाशित किया गया है।
चिंता परजीवीवाद क्या है?
कुछ पक्षी जैसे कि कोयल और कुक्कू अपनी चालाकी के लिए प्रसिद्ध हैं। ये पक्षी अपना अंडा दूसरे पक्षियों के घोंसले में चुपचाप रख देते हैं। फिर वे खुद बच्चों को नहीं पालते, बल्कि उस घोंसले के असली मालिक को यह जिम्मेदारी दे देते हैं। इससे असली पक्षी के अपने बच्चों को नुकसान पहुंचता है, क्योंकि उन्हें कुक्कू के बच्चे को खिलाना पड़ता है जो अक्सर आकार में बड़ा होता है।
ऐसी स्थिति से बचने के लिए कई पक्षी प्रजातियों ने एक खास रणनीति अपनाई है, एक 'चेतावनी भरी पुकार' के जरिए वे आस-पास के अन्य पक्षियों को सतर्क करते हैं।
चौंकाने वाली समानता
शोध में वैज्ञानिकों ने पाया कि चार महाद्वीपों में फैली 20 से अधिक पक्षी प्रजातियां जिनमें ऑस्ट्रेलिया, चीन और अफ्रीका के पक्षी शामिल हैं। परजीवी पक्षियों को देखकर लगभग एक जैसी कराहती हुई आवाज निकालते हैं। अजीब बात यह है कि ये पक्षी एक-दूसरे से कभी नहीं मिले, न ही इनके पर्यावरण एक जैसे हैं। फिर भी, उनकी चेतावनी कॉल लगभग एक जैसी है।
कैसे सीखते हैं पक्षी यह कॉल?
वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कॉल आंशिक रूप से जन्मजात और आंशिक रूप से सीखी हुई है। जब एक पक्षी यह पुकार सुनती है, तो वह स्वाभाविक रूप से आसपास की स्थिति की जांच करने आता है। वहीं, अगर वह देखता है कि कोई परजीवी पक्षी मौजूद है, तो वह यह समझ जाता है कि यह पुकार किस संदर्भ में दी गई थी। अगली बार जब वह खुद ऐसे हालात देखता है, तो वही पुकार दोहराता है। इसे वैज्ञानिक “सामाजिक संचरण” कहते हैं, यानी समाज में रहकर व्यवहार सीखना।
क्या है इस खोज का महत्व?
यह पहली बार है जब वैज्ञानिकों ने किसी जानवर की ऐसी आवाज का पता लगाया है जिसमें सीखने और जन्मजात व्यवहार दोनों शामिल हैं। यह खोज चार्ल्स डार्विन की उस कल्पना को भी समर्थन देती है, जिसमें उन्होंने कहा था कि इंसानी भाषा स्वाभाविक ध्वनियों से विकसित हुई होगी।
यह शोध यह भी दिखाता है कि पक्षियों में भी एक प्रकार का सांस्कृतिक विकास होता है, जहां अनुभव और सामाजिक व्यवहार से नई चीजें सीखी जाती हैं और फैलती हैं।
भविष्य के लिए संकेत
यह शोध केवल पक्षियों के बारे में नहीं है। यह हमें यह समझने में मदद करता है कि इंसानी भाषा की शुरुआत कैसे हुई होगी। शायद पहले इंसान भी कुछ स्वाभाविक ध्वनियां निकालते होंगे जैसे डर या गुस्से की आवाजें। फिर जैसे-जैसे वे एक-दूसरे के साथ रहने लगे, उन्होंने इन ध्वनियों को विशेष अर्थ देना शुरू किया और यहीं से भाषा का जन्म हुआ।
यह खोज यह दर्शाती है कि प्रकृति में संचार केवल मनुष्यों की खासियत नहीं है। पक्षियों ने भी हजारों सालों में ऐसे तरीके विकसित किए हैं जिससे वे न केवल खतरे को पहचानते हैं, बल्कि दूसरों को भी चेतावनी देते हैं।
सबसे रोचक बात यह है कि अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले पक्षियों ने एक जैसी भाषा का विकास किया यह दिखाता है कि कैसे प्राकृतिक चयन और सामाजिक व्यवहार मिलकर संचार की जटिल प्रणालियां बना सकते हैं। शायद यही भाषा का पहला कदम था, एक सामान्य ध्वनि, जिसे सभी समझते हैं और सही समय पर प्रयोग करते हैं।