बुंदेलखंड के एक कस्बे में सप्लाई के लिए ठंडे, आरओ-फिल्टर वाले पानी के कैम्पर तैयार किए जा रहे हैं।अमन गुप्ता 
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टैंकर राज: पीने लायक नहीं है सरकारी पानी, निजी आरओ प्लांट संचालक कूट रहे चांदी

बुंदेलखंड के हमीरपुर, महोबा जैसे शहरों में आरओ व चिलर प्लांट लगाकर भूजल दोहन किया जा रहा है

Aman Gupta

टैंकर माफिया देश की राजधानी दिल्ली या उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की राजधानी लखनऊ में ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों में भी अपनी पहुंच और पकड़ बनाए हुए हैं। यही जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने बुंदेलखंड के कुछ इलाकों की जमीनी जायजा लिया।

हमीरपुर जिले के राठ कस्बे के ज्यादातर इलाकों में पानी की सरकारी आपूर्ति दो दिन में एक बार हो रही है, लेकिन कुछ इलाके ऐसे हैं जहां महीने भर से ज्यादा समय के बाद भी सप्लाई का पानी नहीं आया।

राठ कस्बे का ऐसा ही एक मोहल्ला है “बजरिया”, जहां पिछले दो महीने से नलों में पानी नहीं आया, यहां रहने वाले नसीम बताते हैं कि पूरी गर्मियों में हमने वार्ड मेंबर द्वारा भेजे टेंकर से पानी भरा है, जो नगर पालिका द्वारा भेजे जाते थे। एक हफ्ते पहले तक पानी का एक टेंकर 24 घंटे यहां खड़ा ही रहता था। जब इसकी पड़ताल करने के लिए जब हम वहां पहुंचे तो एक टेंकर उस समय भी खड़ा हुआ था।

बेशक पानी की सरकारी आपूर्ति दो दिन में होती हो, लेकिन पिछले कुछ सालों से पीने के साफ पानी के लिए लोग पानी के निजी कारोबारियों पर निर्भर हो गए हैं। आरओ (रिवर्स ओसमोसिस) पानी का प्लांट चलाने वाले सुशील साहु बताते हैं कि सरकारी सप्लाई में आने वाले पानी की गुणवत्ता काफी खराब है। यही वजह है कि लोग हम पर भरोसा करने लगे हैं। यह कम लागत में ज्यादा मुनाफे वाले बिजनेस है, इसलिए हर दूसरा व्यक्ति पानी का प्लांट लगाने के बारे में सोचता है।

वजह पूछने पर सुशील कहते हैं कि पानी का प्लांट शुरु करने के लिए एक बोरबेल जिसमें समरसिबेल डालकर पानी निकाला जा सके, जिसके लिए दस एचपी की एक मोटर, एक आरओ सिस्टम और पानी ठंडा करने के लिए चिलर मशीन जिसका पूरा खर्चा तीन लाख रुपये के आसपास आता है। यह पानी प्लांट की मुख्य जरूरतें है, इसके अलावा जिस चीज की सबसे ज्यादा जरूरत है वह है पानी को रखने वाले और ठंडा बनाए रखने वाले कैंपर (थर्मस), जोकि सबसे ज्यादा मंहगे होते हैं। इसके अतिरिक्त जो भी लागत इसमें आती है वह पानी की सप्लाई की होती है।

पानी प्लांट शुरु करने के लिए किसी प्रकार के नियम कानून या फिर किसी लाइसेंस की जरूरत होती है? पूछने पर सुशील कहते हैं कि नहीं ऐसा कुछ नहीं है, इस बिजनेस से जुड़े पुराने लोगों ने नियम और प्रक्रियाओं का पालन करते हुए अपने बोरवेल के पानी की गुणवत्ता की जांच राज्य स्वास्थय संस्थान से करवाई है। इसे ही एक प्रकार से लाइसेंस मान सकते हैं।

लगभग दो लाख की आबादी वाले राठ कस्बे में इस समय दो दर्जन के आसपास आरओ पानी प्लांट लगे हुए हैं, जो मार्च से लेकर जून के पीक समय में करीब पांच हजार डिब्बा(एक डिब्बे में बीस लीटर) पानी की सप्लाई करते हैं। यह किसी भी प्रकार के फंक्शन में दी जाने वाली सप्लाई से अलग है, गर्मियों का सीजन शादियों का भी सीजन होता है, एक से डेढ़ हजार डिब्बों की सप्लाई उसमें भी होती है। इस तरह पीक सीजन में करीब दो लाख लीटर पानी सप्लाई किया जाता है।

महोबा जचरखारी कस्बे के एक और प्लांट संचालक आदिल बताते हैं कि पानी को फिल्टर करने पर कम से कम 60 प्रतिशत पानी वेस्ट के रूप में निकलता है। दूसरे लोग इसका क्या करते हैं यह जानना महत्वपूर्ण है। वह कहते हैं कि मैंने अपने प्लांट में दो बोर करा रखे हैं एक पानी निकालने के लिए दूसरा वेस्ट हुए पानी को वापस जमीन में डालने के लिए। प्रति सौ लीटर पानी में जो 50-60 लीटर पानी वेस्ट निकलता है उसको हम वापस जमीन में डाल देते हैं। सुशील ने भी अपने प्लांट में दो बोर कराये हुए ताकि वेस्ट हुए पानी को वापस जमीन में डाला जा सके।

हरीश, और उन जैसे लोग केवल पानी निकालते हैं। सुशील की बात से इत्तेफाक न रखते हुए एक और प्लांट संचालक कहते हैं कि यह बेकार का खर्च है। पानी को फिल्टर करते हुए निकले वेस्ट को हम घर के कामों में प्रयोग कर लेते हैं, हालांकि यह इतना ज्यादा और रोज निकलता है कि इसे बहाना ही पड़ता है। रिवर्स बोर न कराने की वजह बताते हुए हरिश कहते हैं कि यह महंगा होता है, और कंपटीशन के दौर में एक और बोर कराकर एक-डेढ़ लाख रुपये खर्च करना किसी प्रकार से समझदारी नहीं है।

बोरबेल करने वाले एक मिस्त्री पप्पु कुशवाहा बताते हैं कि कस्बे में एक दशक पहले तक साठ से लेकर अस्सी फीट तक पानी मिल जाता था, क्योंकि उस समय ज्यादातर लोग पानी की सरकारी सप्लाई पर निर्भर थे, और सप्लाई भी ठीक थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब अगर किसी को बोरिंग करानी है तो कम से कम 150 फीट शुरुआत है, उसके बाद पानी कितनी गहराई पर मिलेगा यह अलग बात है। इसका कारण बताते वह इन्हीं पानी प्लांट्स को ही बताते हैं, वह कहते हैं यह प्लांट कस्बे के चारों तरफ लगे हुए हैं, सभी प्लांट मिलकर प्रतिदिन तीन-चार लाख लीटर पानी निकाल रहे हैं, जबकि पानी रिचार्ज होने में समय लगता है।

अवैध रूप से चल रहे ये पानी प्लांट छोटे कस्बों और शहरों का जलस्तर कम करने के साथ-साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्लास्टिक कचरे का भी बड़ा सोर्स बन रहे हैं। इसका कारण ज्यादातर आरओ प्लांट मुनाफा बढ़ाने के लिए पानी के पाउच बनाकर बेच रहे हैं। दो पूर्ण रूप से गैर कानूनी है। लेकिन ज्यादातर लोग इन्हें बेच रहे हैं, प्लांट मालिकों का कहना है कि कैंपर अकेले बेचकर तो प्लांट की लागत ही न निकल पाए।

वह कहते हैं कि हम एक दिन में बीस-से तीस बोरी पानी के पाउच अलग-अलग दुकानों पर देते हैं, 50 पाउच वाली एक बोरी की कीमत 35 से लेकर 45 रुपये होती है। दुकानदार इसे 10 के चार के भाव से बेचते हैं। जो लोग पानी बोतल के लिए दस से बीस रुपये खर्च नहीं करना चाहते या फिर जरूरत के हिसाब से बार- बार खरीदते हैं वह इसका ज्यादा प्रयोग करते हैं। जोकि उन्हें बोतल के मुकाबले काफी सस्ता और हर वक्त मिल जाता है।

उत्तर प्रदेश में हर तरह की प्लास्टिक बैन को पूर्ण रूप से प्रतिंबधित किया गया है उसके बाद भी लगभग हर जगह पानी के पाउच बिकते हुए देखे जा सकते हैं।