फाइल फोटो: विकास चौधरी
फाइल फोटो: विकास चौधरी

वायु प्रदूषण की जड़ें: दिल्ली की सड़कों पर दौड़ते वाहन और स्थानीय स्रोत

यह सही है कि दिल्ली में दिवाली के दिन वायु प्रदूषण चरम पर होता है, लेकिन केवल दिवाली के पटाखों को दोषी ठहरा कर हम वायु प्रदूषण के दूसरे स्रोतों को खारिज नहीं कर सकते
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सारांश
  • दिल्ली में वायु प्रदूषण का संकट दिवाली के पटाखों से नहीं, बल्कि स्थानीय स्रोतों से उत्पन्न होता है।

  • वाहनों का धुआं, औद्योगिक इकाइयां और कचरे का निस्तारण प्रमुख कारण हैं।

  • दिवाली के बाद एक्यूआई में उछाल आता है, लेकिन यह समस्या सालभर बनी रहती है।

  • सरकार की नीतिगत विफलताएं और प्रदूषण नियंत्रण में कमी इस संकट को और बढ़ाती हैं।

दिवाली की रंगीन रोशनी अभी बुझी भी नहीं थी कि दिल्ली की सड़कें हमेशा की तरह एक घने, विषैले धुंध में लिपट गईं, हालाकि इस बार पटाखों पर मिली छुट के कारण इसका अंदेशा भी था और हुआ भी। 21 अक्टूबर को मनाई गई दिवाली की रात, राजधानी के कई इलाकों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 500 से ऊपर पहुंच गया, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से 10 गुणा अधिक है, वैसे दिल्ली में खास कर जाड़े की शुरुआत में वायु प्रदूषण के स्वास्थ मानकों को याद करना बेमानी ही लगता है।

कुछ इलाके को बहुत बुरी तरह प्रभावित हुए जैसे चांदनी चौक जैसे हॉटस्पॉट में एक्यूआई आधी रात से सुबह तक 1000 के आसपास रहा। जैसा की होना था, अगले दिन भी एक्यूआई औसतन 'बहुत खराब’ (300-400 के बीच) में ही रहा। हालांकि कई एजेंसियों ने उस रात हवा के गुणवत्ता का स्तर सरकारी आकड़ों से इतर 2000 से भी अधिक रिकॉर्ड किया और देर रात कुछ समय के लिए शहर के कई मोनिटरिंग स्टेशन के बंद हो जाने का भी मामला सामने आया। खैर प्रदुषण के आकड़ें से बाजीगरी का मुद्दा एक अलग पर महत्वपूर्ण मुद्दा है। 

लेकिन दिल्ली को जहरीली हवा कोई नई कहानी नहीं। हर साल सर्दियों की दहलीज पर दिल्ली कुछ महीनो तक 'गैस चैंबर' बन जाती है, लेकिन इसके लिए केवल और केवल दीवाली को दोष देना भी ठीक नहीं, बल्कि साल भर की संस्थागत लापरवाही, प्रदूषण नियंत्रण से जुड़ी नीतिगत विफलताओं और खाए पिए अघाए शहर की सामूहिक अनदेखी का परिणाम है।

इस सामूहिक अनदेखी में दिवाली के एक ही रात में आकाश को काला कर देने की प्रवृति भी है फिर भी इसका योगदान एक दिनी ही है! दीवाली के पटाखों से निकला जहर, प्रदूषण की मात्र एक क्षणिक आंधी जैसा ही है, जबकि असली जहर तो दिल्ली वालों के अपने रोजमर्रा के काम काज से घुला हुआ है।

परंंतु दिल्ली की सरकारों और यहां तक कि दिल्ली वालो को भी लगता है कि उनके हवा में घुलते जहर के लिए जिम्मेदार केवल बाहर वालें ही हैं, जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) और सिस्टम ऑफ एयर क्वालिटी एंड वेदर फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (सफर) के आंकड़ों से साफ है कि दिल्ली का 70-90% प्रदूषण स्थानीय स्रोतों से आता है, दिल्ली वालों का अपना है। 

दिल्ली की हवा का संकट एक पुरानी, जड़-जमा चुकी महामारी है। हर साल की भांति इस साल भी, अक्टूबर की शुरुआत 200-300 एक्यूआई के बीच हुई, जो दीवाली के बाद 'गंभीर' (400+) स्तर पर पहुंच गयी। नेशनल एयर मॉनिटरिंग प्रोग्राम (एनएएमपी) के अनुसार, पिछले पांच वर्षों (2020-2025) में दिल्ली में पीएम2.5 का वार्षिक औसत 100 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ऊपर ही रहा, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के वार्षिक सुरक्षित मानक (5 माइक्रोग्राम) से 20 गुना तक अधिक है।

सर्दियों में यह और विकराल हो जाता है, जब वायुमंडल में इनवर्शन के लेयर के नीचे आने और हवा के बहाव में कमी के कारण दिल्ली की भौगोलिक संरचना एक कटोरे जैसे हो जाती है जिसमे प्रदूषित हवा ना ऊपर और ना ही आसपास फैल पाती और ना ही बाहर निकल पाती है। एक्यूआई की रही सही कसर हरियाणा और पंजाब से धान के पराली के जलने से निकला धुंआ पूरा कर देता है।

‘सफर’ के पूर्वानुमान के मुताबिक, 2025 की सर्दी में दिल्ली का एक्यूआई औसतन 350-400 रहने की संभावना है, जो कमोबेश दीवाली के अगले दिन वाली ही स्थिति हैं जो औसतन इस पूरे जाड़ें भर रहने वाली हैं।

दिल्ली के खतरनाक स्तर तक पहुंच चुकी हवा की असली तस्वीर सालो भर की छोटी-बड़ी गतिविधियों से उभरती है। दिल्ली में हवा की खराब गुणवत्ता बाकि अन्य प्रदूषकों के मुकाबले मुख्य रूप से पीएम2.5 से प्रभावित रहती है, जो मुख्य रूप से किसी वस्तु के जलने से उत्सर्जित होती है।

दिल्ली के हवा पर प्रकाशित पिछले कुछ शोध और रिपोर्ट्स  (टीइआरआई, सीआरइए, एआरएआई, सफर) के अनुसार, दिल्ली की सड़कों पर दौड़ते दोपहिया सहित एक करोड़ वाहनों से निकला उत्सर्जन पीएम2.5 का सबसे बड़ा स्रोत है (18-39%)।

इसके अलावा पूरे शहर में बिखरे औद्योगिक इकाइयां, लैंडफिल और कचरे का अवैज्ञानिक निस्तारण भी जहरीली हवा के मूल में है। सर्दी के दिनों में पराली से निकले धुएं का योगदान एक चौथाई तक पहुच जाता हैं। यहां तक कि इस दिवाली के पटाखों से पहले ही 25 अक्टूबर को एक्यूआई 250-300 के रेंज में पहुच चुका था। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि 70% से अधिक प्रदूषण के पीछे खुद दिल्ली वाले ही हैं।

इसमें कोई शक नहीं है कि दीवाली की आतिशबाजी अचानक से एक्यूआई को झटका देती है। इस बार भी 'ग्रीन' पटाखों (30-50 प्रतिशत कम उत्सर्जन) के बावजूद पटाखों से निकले बैरियम, कॉपर जैसे धातु सहित रातोंरात एक्यूआई ने लम्बी छलांग लगाई जिसे विदेशी मॉनिटरिंग एजेंसियों ने 2000 तक रिपोर्ट किया।

इस बार एक्यूआई केवल 3-4 घंटों के बाद कम होने लगा और अगले दो दिनो में सर्दी के अपने और स्तर के आस पास आ गया। अगर केवल दिवाली ही दिल्ली की खराब हवा का मुख्य कारण होती, तो दिवाली के पहले भी और तो और जनवरी-फरवरी में तो एक्यूआई सामान्य स्तर तक आ जाती, पर पिछले कई सालों से यह आकड़ा 300 के आस पास ही दर्ज की जाती रही हैं।

सर्दियों की शुरुआत के साथ एक्यूआई में असली उफान तो मौसम के बदलाव और दिल्ली के तरफ बढ़ते पराली के धुएं से आता है। पर पिछले सालों में पराली जलने की घटनाओ में काफी कमी आई है (इस अक्टूबर के पहले दो हफ्ते में पिछले साल के मुकाबले पंजाब हरियाणा में 75% तक कम पराली जली), पर दिल्ली की सांसे इस बार भी सर्दी में थम ही गयी। स्पष्ट है कि दिवाली के आसपास के और सालो भर के और सर्दी के दौरान के तमाम आकड़े दिल्ली के स्थानीय प्रदूषण को छिपा नहीं पा रहे है। 

दिल्ली के वायु प्रदूषण पर पॉलिसी सर्कल की 2025 रिपोर्ट सीधे-सीधे फ्रैग्मेण्टेड गवर्नेंस, प्रदूषण पर लगाम लगाने वाली एजेंसीयों में आपसी समन्वय की कमी, कमजोर प्रवर्तन और प्रतिक्रियात्मक नीतियां को जिम्मेदार बता रही है।

शुरू में तो जहरीले हवा का सारा ठीकरा हरियाणा और पंजाब के किसानो पर फोड़ दिया गया, रही सही कसर दिवाली के पटाखों के हिस्से डाल दिया गया, पर आकड़े कुछ और ही कहानी कहते हैं।

वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत वाहनों से निकला धुआं होने के बाद भी इस पर लगाम लगाने के लिए पिछली सरकारों ने कोई प्रभावी नीति नहीं बनाईं। सरकार द्वारा मजबूरी में ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान लाया तो गया पर नतीजे वही ढाक के तीन पात ही रहे। क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम वर्षा) का काफी दिनों से हो हल्ला हुआ पर पता चलता है कि 29 अक्टूबर को क्लाउड सीडिंग (कृत्रिम वर्षा) भी विफल रहीं।

हालांकि दिल्ली की नई सरकार प्रदूषण को लेकर काफी संजीदा दिख रही है, चाहे यमुना की सफाई हो या वायु प्रदुषण के लिए पिछली सरकार की लम्बी योजनाओंं को अमल में लाने का मुद्दा हो पर फिर भी पराली जलाने के विकल्प के रूप में केंद्र-राज्य स्तर पर सहयोग से कोई बात आगे नहीं बढ़ी हैं।

अब तो प्रदूषण के आकड़ों से भी छेड़छाड़ की बात सामने आ रही है। स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण की चुनौती से निबटने के लिए जरुरी इच्छा-शक्ति की कमी और दिल्ली का प्रदूषण के मुद्दे पर हमेशा 'इमरजेंसी मोड' में रहना सबसे बड़ी चुनौती है।

पिछले दस वर्षों के इमरजेंसी मोड और प्रतिक्रियावादी प्रयासों से साफ हवा तो नहीं मिल पाई और आगे भी बिना साफ इरादे से मिलेगी भी नहीं। दिवाली के पटाखों को मुद्दा बनाने से तो कतई ही नहीं! दिवाली के पटाखों से निकला धुआं दिल्ली के वायु प्रदूषण का आईना भर है।

दिल्ली की सांसें तो सड़कों पर चल रही असंख्य गाड़िया, गैर कानूनी औद्योगिक गतिविधियां, कूड़े कचरे के पहाड़ से निकलता धुआं और साल भर जारी निर्माण कार्य का धूल रोकती हैं! पिछले दस वर्षों के इमरजेंसी मोड और प्रतिक्रियावादी प्रयासो से साफ हवा तो नहीं मिल पाई और आगे भी बिना साफ इरादे के मिलेगी भी नहीं... दिवाली और पराली पर ही अटके रहने से तो कतई ही नहीं !

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