मैं वलय की वात रे मन !

मैं वलय की वात रे मन !

पवन कभी प्रेमी तो कभी दूतिका बनती है, कभी नायक-नायिका को अपनी मंद–सुगंध-कोमल झोंकों से सुख पहुंचाती है, कभी आंधी बनकर क्रांति का आह्वान करती है, कभी थके मन को विश्राम देती है और कभी चेतना जगाती है
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सृष्टि के समस्त प्राणियों में मनुष्य भी एक है। अन्य प्राणियों के समस्त भाव उसमें भी विद्यमान हैं। अन्य प्राणियों से भिन्न शारीरिक सामर्थ्य रखने के कारण वह खुद को अन्य प्राणियों से अलग देखने लगा। प्राचीन काल से हमारे ऋषियों ने प्रकृति का गहन अध्ययन किया।

वे अपनी बौद्धिक कुशलता से प्रकृति के साथ संतुलन और समरसता स्थापित करते हुए भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हुए और भावी पीढ़ी को भी यही मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने यह निरूपित किया है कि मानव जीवन, प्रकृति के सहयोग के बिना गतिहीन है। जीवन की गतिशीलता के लिए भौतिक और वैज्ञानिक विकास के साथ साथ मानव हृदय के अंतस्थ में छिपे रहने वाले दया, करुणा, प्रेम, सद्भावना, त्याग आदि आत्मीय-कोमल भावों को उप्रेरित करने की आवश्यकता है।

मानव ने इन भावों को उद्दीप्त करने के लिए आवश्यक वातावरण ललित कलाओं में पाया है। काव्य कला इनमें से एक शक्तिशाली कला है, जो समस्त सृष्टि को अपने में अंतर्लीन कर देती है। काव्य के लिए कोई भी वस्तु अयोग्य नहीं है। जहां रवि (सूर्य) नहीं पहुंच पाता, वहां पहुंच सकता है कवि। कलम की ताकत तलवार से भी अधिक है। जो विज्ञान नहीं कर सकता, वह साहित्य करके दिखाता है।

काव्य मनुष्य को प्रकृति से जोड़ता है। प्रकृति के बिना काव्य-काव्य नहीं होता और उसका प्रयोजन भी सिद्ध नहीं होता। हमारे कवियों ने प्रकृति की समस्त वस्तुओं को काव्य का विषय बनाया है। हवा, पानी, अग्नि, आकाश, पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, वन, जंगल, पर्वत, पशु-पक्षी समस्त प्रकृति काव्य की वस्तु ही हैं।

ये सब वस्तु एक-दूसरे के पूरक हैं। वन बिना हवा नहीं, हवा बिना पानी नहीं, पानी बिना बादल नहीं, बादल बिना आसमान नहीं, आसमान बिना सूर्य-चन्द्र-तारे नहीं, सूर्य-चन्द्र-तारे बिना जगत ही नहीं, जगत बिना कवि नहीं और कवि बिना काव्य नहीं। काव्य में प्रकृति स्वयं मानवीय गुणों को लेकर संचरित करती है। जैसे पवन को ही लीजिएगा। वह कभी प्रेमी तो कभी दूतिका बनती है, कभी नायक-नायिका को सुख पहुंचाती है अपनी मंद –सौगंध-कोमल झोंकों से, कभी आंधी बनकर क्रांति का आह्वान करती है, कभी थके मन को विश्राम देती है और कभी चेतना जगाती है।

सूर्यकांत त्रिपाठी की जूही की कली प्रेमी पवन की संगति में कली खिलती है और फूल बनती है। नायक पवन कोमल जूही की कलि रूपी नायिका से केलि करता है। उसके जीवन को पूर्णता प्रदान करता है। प्रेमी पवन विरहातुर में नदी-नाले, घने वन-जंगल, पर्वत सब पार कर प्रेमी पवन प्रेमिका जूही की कलि से मिलने वायु वेग में निकल पड़ता है, जिसमें प्रेमी की मिलन आतुरता और प्रयास प्रस्फुटित होते हैं

आई याद बिछुड़ से मिलन की वह मधुर बात,

आई याद चांदनी की धुली हुई आधी रात

आई याद कान्ता की कम्पित गात

फिर क्या? पवन

उपवन-सर-सरित गहन-गिरि-कानन

कुञ्ज-लता-पुञ्जों को पारकर

पहुंचा जहां उसने की केलि

कली-खिली-साथ!

वह प्रेमिका को इठलाता है, चूमता है, उसे वल्लरी की लड़े डोलकर हिंडोल जैसा हिंडोलने लगी कि

नायक ने चूमे कपोल,

डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल।

इससे तृप्त न हुआ प्रेमी पवन फिर प्रेमिका कली के साथ निर्दयता से निठुराई की कि

निपट निठुराई की

कि झोंकों की झड़ियों से

सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,

मसल दिये गोरे कपोल गोल

प्रेमी पवन की चेष्टाओं से कली चौंक तो पड़ती है, लेकिन पवन के राग में राग मिलाते हुए अपने को समर्पित करती है

नम्रमुखी हंसी, खिली

खेल रंग प्यारे संग।

कालिदास ने अपने मेघ संदेश में मेघ को दूत बनाया। लेकिन, उस मेघ को गति देने वाली हवा ही होती है। हवा के बिना कालिदास का मेघ गतिहीन हो जाता है। इसलिए अयोध्या सिंह हरिऔध ने हवा से प्रेरित होकर गतिमान होने वाले मेघ को छोड़कर वायु को दूती के रूप में चुना, जिसकी वेग से कोई बराबरी नहीं कर सकता।

संवेदना और सहानुभूति वाली पवन राधिका की विरह पीड़ा को दूर करना चाहती है। पहले उसने चाहा कि राधा के सदन को सौरभीला बनाये और तत्पश्चात् राधिका के तन के कलुष को मिटा दे। लेकिन, प्रेमी के लिए तरसने वाली प्रेमिका के लिए दूसरी कन्या की सहानुभूति और संवेदनापरक चेष्टाएं असह्य होती हैं। जहां मिलन अवस्था में हवन की उपस्थिति से हर्ष का अनुभव किया है, वहीं, प्रिय के प्रवास पर विरहिणी बनी राधिका को पवन की प्यार भरी क्रियाएं असह्य लगती हैं। वायु की स्निग्धता उसके विरह ताप को और भी बढ़ाती है। उसके दुख को और तीव्र करनेवाली पवन से वह कहती है

क्यों होती है निठुर इतना क्यों बढ़ाती व्यथा है

तू है मेरी चिर परिचिता तू हमारी प्रिया है

मेरी बातें सुन मत सता छोड़ दे वामता को

प्रिय प्रवास में पवन नायिका की चिर परिचिता है। वह इसलिए चिर परिचिता है कि श्रीकृष्ण और राधिका की रास क्रीड़ा में अपनी सौरभ और मंद झोंकों से मिलन सुख को दोगुना किया। कहीं-कहीं दोनों के तन मिलन में वह बाधा भी बनी। फिर भी वह अमोद ही दिया। इसलिए नायिका उसके साथ भगिनी का संबंध जोड़ती है। उसे प्यारी कहती है। स्त्री की वेदना स्त्री ही समझ सकती है। इसलिए, राधिका ने प्यारी भगिनी पवन को दूतिका बनाया है। राधिका पवन को प्रसन्न करती हुई कहती है कि तू वेगवती है, सीधी तरल हृदयी है, ताप का उन्मूलन करने वाली है, तुझ पर मेरे हृदय में ज्यादा भरोसा है। वह पवन से बिगड़ी बात को बनाने की विनती करती है।

कवि की राधिका अत्यंत संवेदनशील नारी है। राधिका दूतिन पवन के दोनों स्वभावों जैसे निर्माणकारी और विनाशकारी रूपों को अच्छी तरह से अवगत है। इसलिए विरहिणी राधिका पवन को भी संवेदनशील व्यवहार करने का पाठ पढ़ाती है कि पथ में कोई क्लांत दिखे, तो उसके सन्निकट जाकर उसकी क्लांतियों को मिटाकर अपने धीरे-धीरे स्पर्श से शरीर के उत्ताप को मिटाकर उन्हें हर्षित कर। कोई लज्जाशीला पथिक महिला दिखती है तो, उसे विकृत वसना मत बनाना। वह उससे अपना कार्य संपन्न होने की आस करती है

भीनी-भीनी सुरभि सरसे पुष्प की पोषिका सी

मूलीभूता अवनितल में कीर्ति कस्तूरिका की

तू प्योरे के नवलतन की वास ला दे निराली

मेरे ऊबे व्यथित चित में शान्तिधारा बहा दे।

विरह में नायिका को मलयानिल भी ताप पहुंचानेवाला लगता है। मैथिली शरण गुप्त की विरहणी उर्मिला को मलयानिल उसकी पीड़ा को तीव्र करनेवाली ही नहीं, उसकी लू से जान जाने के खतरा से डरती है । इसलिए, वह उस को लौट जाने के लिए कहती है

जा मलयानिल, लौट जा, यहां अवधि का शाप

लगे न लू होकर कहीं तू अपने को आप

जहां साकेत की विरहिणी उर्मिला मलयानिल के लू बनने की आशंका से उसे दूर लौट जाने को कहती हैं, वहीं, जयशंकर प्रसाद की कामायिनी की नायिका पति को पुनः पाकर आनंद विभोर की स्थिति में गाए गीत में मलयानिल को जीवन के संघर्ष में थकी चेतना को विश्राम पहुंचाने वाली सहृदयी के रूप में दिखाती है

विकल होकर नित्य चंचल,

खोजती जब नींद के पल

चेतना थक सी रही,

तब मैं मलय की वात रे मन!

कवि की दृष्टि में हवा सहृदयिनी है, थके हुए तन-मन को विश्राम देने वाली मृदु सुरभि समीर है। वह मानव हृदय में क्रांति भरने की क्षमता रखती है।

कवि ने हवा को प्राणदायिनी, आनंद प्रदायिनी के रूप में ही नहीं देखा, उसके द्वारा मनुष्य-मनुष्य में चेतना का संचार करने का भी प्रयास किया है। विनोद पदरज ने अपनी कविता हवा में मनुष्य शरीर और जीवन को निरर्थक बताते हुए कहते हैं

पीपल को छूकर पीपल की हवा

शिरीष को छूकर शिरीष की हवा

नीम को छूकर नीम की हवा

और तुमको छूकर...

हवा के कई रूप हैं और कई नाम हैं। कविता में वह पवन, मरुत, मारुत, वायु, वाति आदि कई नामों से जानी जाती है। काव्य में विभिन्न संदर्भों में इसे प्रयुक्त किया जाता है। वायुमंडल में प्रवाहित होने के कारण उसके प्रचंड रूप और शांत रूप दोनों रूपों को कवि संदर्भानुसार प्रयुक्त करता है। पवन के गतिशील स्वरूप को दर्शाता है। इसलिए कवि नायक व दूती के रूप में पवन शब्द का आसरा लेते हैं। समीर शब्द हवा के शीतल रूप को दर्शाता है, जो मन को शांति पहुंचाता है। आब हवा के शक्तिशाली और तीव्र रूप का प्रतीक है। आंधी तूफान में आब व्यक्त होती है। मारुत ऋग्वेद में देवता माना गया है।

काव्य में मलय–मारुत और मलयानिल के रूप में प्रयुक्त होती है, जो पहाडों से प्रवाहमान होती है। हवा के लिए वाति शब्द का भी प्रयोग होता है, जो उसके गतिमान रूप को दर्शाता है। बयार भी हवा का और एक नाम है जो हल्की होती है।

हवा के 49 रूपों का जिक्र वेदों, पुराणों, संस्कृत काव्य और हिन्दी काव्यों में भी मिलता है। हवा के सात स्वरूप- प्रवह, आवह, उद्वह, संवह, विवह, परिवह और परावह क्रमशः मेघमंडल, सूर्य मंडल,चन्द्र मंडल, नक्षत्र मंडल, ग्रह मंडल, सप्तर्षि मंडल और ध्रुव मंडल में प्रवाहमान हैं। इन के हर एक के सात गण हैं। वे हैं- ब्रह्म लोक, इन्द्र लोक, अतरिक्ष, भूलोक की पूर्वी दिशा, पश्चिमी दिशा, उत्तरी दिशा और दक्षिणी दिशा। हवा के कुल 7x7=49 प्रकार हैं। तुलसीदास रामचरितमानस के सुंदर काण्ड में लंका के दहन के संदर्भ में हनुमान के उड़ने का वर्णन इस प्रकार करते हैं

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।

अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग आकास।।

कामायनी में भी जयशंकर प्रसाद ने मनु और सारस्वत नगर की प्रजा के बीच हुए संघर्ष में उनचास हवाएं बहने का जिक्र किया है

बहते विकट अधीर विषम उंचास वात थे,

मरण पर्व था, नेता आकुलि औ किलात थे।

प्रकृति में हवा के जितने भी स्वरूप हैं, उन सबका हिन्दी साहित्य के कवियों ने संदर्भानुसार चित्रण किया है। कवियों ने उसके प्राकृतिक रूप के साथ –साथ मानवीय सभी गुणों को उस पर आरोपित करते हुए उसे मानवीय गुणों को आपादित किया। क्योंकि चित्रण करनेवाला तो कवि है और वह भी मानव है न!

(लेखिका मद्रास विश्व विद्यालय में हिंदी की विभागाध्यक्ष हैं)

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