बैठे ठाले: हवा-हवाई

“बारिश हमारे इलाके का रास्ता भूल गई। तपती धूप ने जमीन को आवारा धूल में बदल दिया। पोखर-नदी-नालों की जेब में रखे पानी की आखिरी बूंद भी खत्म हो गई। खेती खत्म हो गई। जमीन तो जमीन किसान भी धूल में बदल गए और गांव छोड़-छोड़ कर उड़ गए और दूर-दराज के अनजाने शहरों-कस्बों में जाकर कभी किसी अमीर के दरवाजे में पहरेदार बनकर चिपक गए”
बैठे ठाले: हवा-हवाई
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फिर से अइयो बदरा बिदेसी.... तेरे पंखों पे मोती जडूंगी... भरके जइयो हमारी तलैया...मैं तलैया किनारे मिलूंगी...

बूढ़े हाथों की कंपकंपाती उंगलियों ने ट्रांजिस्टर की आवाज को कम कर दिया। एक तपती उमस भरी रात में आंगन में लेटी नन्ही सी आवाज ने अपने दादा से कहा, “पता हौ बाबा हमारे क्लास में एक लड़का कह रहा था कि अब केवल दो मौसम होत हैं, गर्मी और ठंडी का। कह रहा था कि बारिश का मौसम न होत।”

ऊंघती हुई बूढ़ी आवाज ने कहा, “सही कही उसने..!”

बच्ची ने पूछा, “पर हमारी किताब में तो चार मौसम लिखो है।”

बूढ़ी आवाज ने बस इतना कहा, “पहले चार मौसम होत थे।”

बच्ची ने पूछा, “तो अब काहे नहीं होत..?”

एक चुप्पी पसर गई फिर मानो किसी बहुत ही गहरे गड्ढे से आती आवाज से दादा ने कहा, “हवा!”

बच्ची नाराज हो गई, “आप के पास तो हर सवाल का एक ही जवाब है... हवा।”

बूढ़ी आवाज ने कहा, “हवा से तो बादल आत है, बारिस आत है... हमार जमाने में चार दिशा से खुशबू लेकर आत थी वो... सुनना चाहोगी हवा की कहानी तो सुनो... हवा तब रेडियो से निकलकर आती और आंगन-गली से होते हुए घर-खेत में फैल जाती थी। एकदम ठंडी, मुलायम और मीठी हवा... और महक तो ऐसी कि बस पूछो मत... हवा...!”

कहते हुए बूढ़ा एकाएक पुराने दिनों में खो गया। पुराने दिन, जब उसकी बाकी सारी चीजें नईं थीं। एक अदद नई सी साइकिल, नई पैंट, नई कमीज, हाथ में नई घड़ी और साइकिल के सामने की टोकरी पर रखा चमचम रेडियो! और हां साइकिल के पीछे बैठी उसकी नई दुल्हन। रेडियो में गाना बज रहा है, “हवा में उड़ता जाय... मेरा लाल दुपट्टा मलमल का... ओजी –ओजी...।”

गीत तो वह भी गुनगुना रहा है। हौले से एकबार पीछे मुड़कर कर अपनी दुल्हन को देखने की कोशिश करता है। दुल्हन शरमा कर गठरी बन जाती है पर हौले से डांटती है, “सामने देख के चलिए न!”

“अरे हम तो बस देख रहे थे कि तुम बैठी हो न!” दूल्हा बोलता है। तब तक रेडियो से आवाज आती है, “ऐ हवा मेरे संग-संग चल... मेरे दिल में हुई हलचल...!” दुल्हन के थोड़ी पास आकर बैठने की कोशिश में कच्ची पगडंडी पर साइकिल डगमगा जाती है। दूल्हा हौले से डांटता हुआ कहता है, “अरे-अरे! सीधी बैठी रहो... अभी हम लगबगा कर गिर ही जाते और खूब जगहंसाई होती।”

तबतक आशा भोंसले की आवाज में फिल्म “दो बदन” का गाना बज उठता है, “जब चली ठंडी हवा... जब घटी काली घटा... मुझको ऐ जाने वफा... तुम याद आए...।”

दूल्हा-दुल्हन ने नन्हे सपनों को जमीन में रोप दिया। पहली बारिश आई। रेडियो में बज उठा फिल्म “मिस्टर एंड मिसेज 55” का गाना। संगीत ओपी नय्यर की और गीत के बोल लिखे थे मजरूह सुल्तानपुरी ने... “ठंडी हवा... काली घटा... आ ही गई झूम के...।”

देखते-देखते नन्ही सी जमीन पर झोपड़ी उग आई। अपने कामकाज में मगन दुल्हन ने गुनगुनाते हुए सुर मिलाया, “प्यार लिए डोले हंसी नाचे जिया घूम के...।” दीवार पर लटके बीते साल मेले में खरीदे छोटे से शीशे को देखकर कंघी करते हुए युवा किसान नजर बचाकर दुल्हन का अक्स देखता और मन ही मन शर्माता कि हो न हो यह गाना केवल उसके लिए ही गया जा रहा है!

दिन वाकई इसी तरह जा रहे थे। इलाके में बारिश होती तो थी पर कम होती थी इसलिए जमीन तनिक रूखी-रूखी रहती। प्यास से तो इंसान रूखा हो जाता है, फिर जमीन क्या चीज है? हां, बारिश के दिन जब आसमान बादलों की मोटी चादर ओढ़ लेता तो एकाएक झमाझम बारिश शुरू होती। सूखी जमीन खूब छककर पानी पीती। कुछ पानी वह अपने तालाब-पोखरों के जेबों में जमा कर लेती।

देर रात किसान और उसकी दुल्हन दूर कहीं देखते रहते। रेडियो में फिल्म “दिल का ठग” का गाना बजता, “ये रातें.. ये मौसम... नदी का किनारा... ये ठंडी हवा...।” कभी तलत महमूद का गाया फिल्म संगदिल का गीत बजता, “ये हवा... ये रात... ये चांदनी...।”

एक बार किसान ने गाने गुनगुनाने की कोशिश की पर उसका सुर इतना बुरा था कि दोनों हंस पड़े। उनकी हंसी के बुलबुले उनके आंगन से उड़े और चांदनी रात में दूर–दूर तक उड़ते चले गए। फिर कुछ बहुत बुरा हुआ और वह भी बहुत तेजी से। कहते हैं कि किसी की नजर लग गई इलाके को।

बूढ़ी आवाज ने कहा , “पहले गांव को और फिर नन्ही जमीन पर उगे हमारे घर को। हवा से ठंडक जाती रही। पहले जो हवा बदन में गुदगुदी पैदा करती थी अब वह तप रही थी। बीमार होने पर जैसे हम तपते हैं न ठीक उसी तरह। पहले हमारी हवा को बुखार आया। फिर जमीन को और फिर तेरी दादी को। दादी के इलाज में खेत बिक गए पर वह न बची। जब इंसान ही नहीं बचे तो फिर जमीन और हवा की बीमारी के बारे में कौन सोचता। बारिश हमारे इलाके का रास्ता भूल गई। तपती धूप ने जमीन को आवारा धूल में बदल दिया। पोखर-नदी-नालों की जेब में रखे पानी की आखिरी बूंद भी खत्म हो गई। खेती खत्म हो गई। जमीन तो जमीन किसान भी धूल में बदल गए और गांव छोड़-छोड़ कर उड़ गए और दूर-दराज के अनजाने शहरों-कस्बों में जाकर कभी किसी अमीर के दरवाजे में पहरेदार बनकर चिपक गए तो कभी रिक्शा-वाला या दिहाड़ी का मजदूर बने और अपने ही पसीने में घुलकर कर सड़क का कीचड़ बन गए।”

इतनी देर तक बोलते रहने से बूढ़ी आवाज अब हांफने और खांसने लगी थी। बूढ़ी उंगलियों ने पहले खटिये के नीचे पानी खोजने की कोशिश की। वहां पानी नहीं था। उसने आंगन में पानी खोजा। पानी वहां भी नहीं था। घड़े सूख चुके थे। उसने गांव-शहरों में पानी ढूंढा। पानी वहां भी नहीं मिला। उसने आसमान से लेकर जमीन के अंदर पानी खोजना शुरू कर दिया पर पानी कहीं पर भी नहीं था। प्यास से उसका हलक सूखा जा रहा था। उसने अपनी पूरी ताकत लगा कर चीखने की कोशिश की, पर एक घुरघुरती हुई आवाज आई, “हवा!!!...हवा है तो बादल आत है, बारिश आत है...।”

रेडियो से आवाज आई, आइए सुनते हैं फिल्म मिस्टर इंडिया का गाना जिसे गाया है कविता कृष्णमूर्ति ने “बिजली गिराने मैं हूं आई... कहते हैं मुझको हवा-हवाई...।”

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