

भारत की पूरी 1.4 अरब आबादी ऐसी हवा में सांस ले रही है, जिसमें पीएम 2.5 स्तर डब्ल्यूएचओ की सीमा से कहीं ऊपर है। 63 प्रतिशत आबादी तो भारत के अपने राष्ट्रीय मानक 40 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर से भी अधिक प्रदूषित हवा में जी रही है। भारत की करीब 40 फीसदी आबादी वहां के इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र में रहती है, जिसमें बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल आते हैं। इन राज्यों में रहने वाले लोग औसतन 7.6 साल की जीवन प्रत्याशा खो रहे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि अगर मौजूदा प्रदूषण स्तर ऐसा ही बना रहता है, तो लखनऊ में रहने वालों की उम्र में 9.5 साल कम हो जाएंगे। अगर डब्ल्यूएचओ के प्रदूषण स्तर के मानक पूरे हो जाएं, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और त्रिपुरा के लोगों की उम्र सबसे ज्यादा बढ़ जाएगी। उत्तर प्रदेश के लोगों की औसत उम्र में 8.2 साल, बिहार के लोगों की उम्र में 7.9 साल, हरियाणा में 7.4 साल और त्रिपुरा में रहने वालों की उम्र में 6 साल की बढ़ोतरी होगी।
रिपोर्ट में बताया गया है कि “1998 से अब तक भारत में औसत वार्षिक पीएम 2.5 प्रदूषण 61.4 प्रतिशत बढ़ चुका है, जिससे जीवन प्रत्याशा में 2.1 साल की अतिरिक्त गिरावट आई है। 2013 के बाद से विश्व स्तर पर वायु प्रदूषण में हुई कुल वृद्धि का 44 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत से आया है।”
स्थानीय और वैश्विक स्तर पर ऐसे बेशुमार प्रमाण मौजूद हैं, जिनसे साबित होता है कि वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके बावजूद बहुत से लोग यह नहीं समझ पाते कि वायु प्रदूषण कैसे गंभीर बीमारियों और मौतों की वजह बन रहा है।
2013 में दक्षिण लंदन में घटी एक दर्दनाक घटना से भी यह बात और स्पष्ट हो चुकी है, जिसमें 9 साल की एला किस्सी डेब्राह की बेहद तेज अस्थमा अटैक के कारण जान चली गई। बच्ची की मां ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और कहा कि वायु प्रदूषण ही उनकी बेटी की मौत का असली कारण था। आखिरकार, इस मामले में 2020 में एक ऐतिहासिक फैसला और कोरोनर की रिपोर्ट सामने आई, जिसमें पहली बार वायु प्रदूषण को किसी व्यक्ति की मृत्यु का औपचारिक कारण माना गया। एला इस तरह दुनिया की पहली ऐसी इंसान बनीं, जिनकी मौत के लिए वायु प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया गया।
इस संबंध में डॉ. कल्पना बालाकृष्णन बताती हैं, “विज्ञान में प्रमाणों की कमी कभी पूरी तरह समाप्त नहीं होती। लेकिन, प्रदूषण के जोखिम और प्रभाव को समझने के लिए पहले से ही पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं। यह बात भी याद रखी जानी चाहिए कि अगर किसी चीज का सबूत नहीं मिला है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस चीज का अस्तित्व ही नहीं है। प्रमाण की अनुपस्थिति, अनुपस्थिति का प्रमाण नहीं होती।” और भारत में तो हर पल यही देखते हैं कि जहरीली हवा में सांस लेना धीरे-धीरे क्रूरता के साथ जान लेना है।
3 नवंबर 2023 की रात, जब दिल्ली में अंधेरा छाया हुआ था, सांस की तकलीफ से परेशान सैकड़ों हांफते, खांसते बच्चे चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय ओपीडी और इमरजेंसी वार्ड में पहुंच गए। हालात इतने भयावह थे कि पूर्वी दिल्ली के सरकारी सुपर स्पेशियलिटी बाल अस्पताल में नेब्युलाइजर और बेड कम पड़ गए। डॉक्टरों को इस संकट का अंदेशा पहले से था, क्योंकि अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की औसत वायु गुणवत्ता लगातार 6 दिनों तक “बहुत खराब” श्रेणी में बनी रही और 3 नवंबर को यह “गंभीर” हो गई और वायु गुणवत्ता सूचकांक ( एक्यूआई) 468 तक पहुंच गया, जबकि 100 के ऊपर एक्यूआई को ही स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माना जाता है। राष्ट्रीय राजधानी और आसपास के इलाकों के डॉक्टर हर साल सर्दियों में इस मौसमी कहर से परिचित हैं। धूल और धुएं से दम घोंटती हवा के बीच, अस्पतालों में सांस से जुड़ी बीमारियों के मरीजों की बाढ़ आ जाती है। केंद्र सरकार द्वारा संचालित देश के प्रमुख अस्पतालों में से एक अटल बिहारी वाजपेयी आयुर्विज्ञान संस्थान और डॉ. राम मनोहर लोहिया (एबीवीआईएमएस-आरएमएल) अस्पताल के निदेशक व चिकित्सा अधीक्षक अजय शुक्ला ने कहा कि गंभीर प्रदूषण वाले दिनों में अस्पताल में सांस की बीमारियों से परेशान मरीजों में 30 फीसदी तक का इजाफा हो जाता है। लेकिन, 3 नवंबर को बढ़े प्रदूषण के बाद बने हालात सारे अनुमानों से बहुत ज्यादा था।
6 नवंबर 2023 को एबीवीआईएमएस-आरएमएल अस्पताल में देश की पहली साप्ताहिक “प्रदूषण ओपीडी” शुरू की गई, जो प्रदूषण से प्रभावित मरीजों के लिए समर्पित है। डॉ. अजय शुक्ला ने बताया कि इस पहल का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि खांसी से लेकर आंखों में जलन और सिरदर्द तक, प्रदूषण से संबंधित हर लक्षण के मरीजों को एक ही जगह पर अलग-अलग विशेषज्ञ डॉक्टरों द्वारा देखा जा सके। उत्तर दिल्ली स्थित वल्लभभाई पटेल चेस्ट इंस्टीट्यूट (वीपीसीआई) में भी अस्पताल के कर्मचारियों में चिंताजनक आंकड़े साझा किए। 2 से 10 नवंबर के बीच अस्पताल में हर दिन औसतन 50 नए मरीज भर्ती हुए, जो सांस की बीमारियों से परेशान थे। सबसे ज्यादा परेशान करने वाली बात यह थी कि इनमें से अधिकतर मरीज 14 साल से कम उम्र के बच्चे थे। एबीवीआईएमएस-आरएमएल अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड के एक वरिष्ठ रेजिडेंट डॉक्टर अंबावसन ए ने बताया कि सांस की समस्या वाले बच्चों से अस्पताल भर गया था। इनमें से बहुत से बच्चों की हालत बेहद गंभीर थी। मरीजों की संख्या और लक्षणों की तीव्रता सीधे प्रदूषण स्तर पर निर्भर कर रही थी।” चाचा नेहरू बाल चिकित्सालय की एंडोक्राइनोलॉजिस्ट मेधा मित्तल ने कहा, “दिल्ली के वायु प्रदूषण के कारण बच्चों में सांस संबंधी बीमारियां तेजी से बढ़ रही हैं।”
बच्चे वयस्कों की तुलना में वायु प्रदूषण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं और इसके पीछे कई वैज्ञानिक कारण हैं। बच्चों, खासकर नवजात और शिशुओं का श्वसन तंत्र पूरी तरह विकसित नहीं होता, इसीलिए वे पर्याप्त ऑक्सीजन रक्त में पहुंचाने के लिए वयस्कों की तुलना में तेजी से सांस लेते हैं। बच्चों का मेटाबॉलिक रेट भी ज्यादा होता है, यानी वे ऊर्जा को तेजी से उपयोग करते हैं। इससे उनकी ऑक्सीजन की मांग बढ़ जाती है और इसी कारण उनकी सांस लेने की दर भी वयस्कों से कहीं ज्यादा होती है। अध्ययन बताते हैं कि बच्चे औसतन प्रति मिनट 40 बार सांस लेते हैं, जो वयस्कों की तुलना में दोगुनी दर है। जर्मनी और चेक गणराज्य के शोधकर्ताओं द्वारा 4 जून, 2022 को “अर्बन क्लाइमेट” में प्रकाशित एक अध्ययन में कहा गया है, “बच्चे अपने शरीर के आकार के अनुपात में अधिक हवा सांस में लेते हैं और वयस्कों की तुलना में उनके श्वसन मार्ग छोटे होते हैं, इस कारण अस्थमा जैसी बीमारियों का खतरा बच्चों में अधिक होता है।”
बच्चों द्वारा सांस के साथ लिए जाने वाले वायु प्रदूषकों में से सबसे खतरनाक है पीएम 2.5 यानी 2.5 माइक्रोन से छोटे महीन कण, जो वाहनों, उद्योगों और कचरा जलाने जैसी स्थानीय गतिविधियों से निकलते हैं और जहरीले रसायनों से लिपटे होते हैं। ये कण लाल रक्त कोशिकाओं से भी छोटे होते हैं और फेफड़ों में गहराई तक जा सकते हैं, फिर वहां से रक्त प्रवाह में प्रवेश कर सकते हैं और यहां तक कि ब्रेन-ब्लड बैरियर को भी पार कर सकते हैं। इन सूक्ष्म कणों से सैकड़ों ज्ञात और अज्ञात बीमारियों का खतरा जुड़ा हुआ है। जर्मन और चेक शोधकर्ताओं के अध्ययन में पाया गया कि जर्मन और चेक गणराज्य के शोधकर्ताओं ने शहरी क्षेत्र में बच्चों और वयस्कों के बीच पीएम 2.5 के संपर्क में संभावित अंतर की जांच की और पाया कि जैसे-जैसे जमीन से ऊंचाई बढ़ती है, पीएम 2.5 की सांद्रता घटती है। लेकिन, बच्चों का सांस लेने का स्तर जमीन के बहुत करीब होता है, इसलिए ट्रैफिक से निकलने वाले प्रदूषक और जमीन से उड़ते सूक्ष्म कण बच्चों को अधिक प्रभावित करते हैं।
गुरुग्राम के मेदांता में इंस्टीट्यूट फॉर चेस्ट सर्जरी-चेस्ट ऑन्को सर्जरी एंड लंग ट्रांसप्लांटेशन के चेयरपर्सन और लंग केयर फाउंडेशन के संस्थापक अरविंद कुमार ने डाउन टू अर्थ पत्रिका के साथ फेफड़ों की कुछ तस्वीरें साझा कीं, ताकि खराब वायु गुणवत्ता वाले क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के श्वसन स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को दिखाया जा सके। कुमार ने बताया, “स्वस्थ फेफड़े एकदम गुलाबी दिखाई देते हैं। हालांकि, हम धूम्रपान न करने वाले लगभग उन सभी वयस्कों और 14 साल तक की उम्र के बच्चों के फेफड़ों में भी काले रंग का जमाव देखते हैं, जो हमारे पास सांस की बीमारियों का इलाज कराने आते हैं। फेफड़ों में जम चुके ये काले धब्बे हटाए नहीं जा सकते और धीरे-धीरे उन्हें नुकसान पहुंचाते रहते हैं।” उन्होंने बताया कि वयस्कों की तुलना में बच्चे ज्यादा जहरीली हवा में सांस ले रहे हैं।