भारत में आवाजाही : पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं पब्लिक टॉर्चर है देहरादून की हकीकत 

देहरादून स्मार्ट सिटी होने के नाते कुछ इलेक्ट्रिक बसें भी आई हैं लेकिन उनके रूट काफी लंबे हैं, वह छोटी दूरी को कवर नहीं करते
देहरादून में निजी वाहनों का ट्रैफिक, फोटो : वर्षा सिंह
देहरादून में निजी वाहनों का ट्रैफिक, फोटो : वर्षा सिंह
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पंत घर से निकलने से पहले खुद को सिर से पांव तक ढकती है। सिर पर कॉटन का स्कार्फ जिससे आंखें छोड़कर नाक और चेहरा पूरी तरह ढक जाए। धूप और धूल से बचने के लिए आंखों पर धूप का चश्मा। हाथ पर लंबे दस्ताने। जरूरत पड़ने पर इस्तेमाल के लिए पर्स में एक एक्स्ट्रा मास्क। गर्मियों में भी वह जुराबें पहनना नहीं भूलती। स्कूटी के पावर का बटन दबाने से ठीक पहले वे मन में अपनी सुरक्षित यात्रा की प्रार्थना करती हैं और फिर शहर के ट्रैफिक से बचते-बचाते अपनी मंज़िल पर पहुंचने की जंग शुरू हो जाती है। 

एक बच्चे की मां, 38 वर्षीय और मेघा देहरादून में एक डायरेक्ट सेलिंग कंपनी से जुड़ी हैं। ऑफिशियल मीटिंग्स से लेकर अपने क्लाइंट्स से मुलाकात तक, रोजाना शहर में कम से कम 20 से 25 किलोमीटर का सफ़र तय करती हैं। वह बताती हैं कि महीने के कुछ दिन ऐसे होते हैं जब तकरीबन 50 किलोमीटर की आवाजाही हो जाती है।

 “लॉकडाउन के बाद मैंने स्कूटी चलाना सीखा। उससे पहले शेयरिंग ऑटो (विक्रम) से ही आती-जाती थी। अब भी कभी-कभी घर का कोई सदस्य स्कूटी ले जाता है तो मुझे विक्रम से जाना पड़ता है। इसका अनुभव पहले भी खराब था और आज भी खराब है।”

मेघा शहर में आवाजाही के अपने अनुभव को साझा करती हैं, “विक्रम तभी अपने स्टॉप से आगे बढ़ता है जब सवारियां भर जाती हैं। कायदे से पीछे की तरफ दो सीट पर तीन-तीन यात्री और ड्राइवर के साथ एक यात्री होना चाहिए। लेकिन वो पीछे चार लोगों को तो बिठाते ही हैं। उनका वश चले तो पांच लोगों को भी बिठा दें।”

“विक्रम में आप कंफर्ट की बात कर ही नहीं सकते। इतनी धूप और गर्मी में सभी को चिपक-चिपक कर बैठना होता है। दोनों तरफ खुली खिड़कियों से धूल-धुआं-मिट्टी-शोर सब अंदर आ रही होती है। हमें मीटिंग्स में जाना होता है और हम खुद को तरोताजा महसूस कर ही नहीं सकते। ये एक तरह का टॉर्चर है और आप उसे सहते हैं क्योंकि कोई और विकल्प नहीं होता”। 

स्कूटी की सवारी ने मेघा की जिंदगी कुछ आसान बना दी है। “पहले मुझे विक्रम से अपने घर जोगीवाला से राजपुर रोड (7-8 किमी.) जाने में एक से  डेढ़ घंटा लग जाता था। दो विक्रम बदलने पड़ते थे। सवारियों के भरने का इंतज़ार करना पड़ता था। स्कूटी से मैं ट्रैफिक जाम में भी 30-40 मिनट में पहुंच जाती हूं”।

शहर के व्यस्ततम रिस्पना पुल चौराहे के नजदीक मेघा से बातचीत के दौरान पर यहां सबसे ज्यादा मौजूदगी निजी कारों और दो-पहिया वाहनों की थी। कारों के शीशे चढ़े हुए। पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा करने वालों के चेहरे पसीने और धूल से सने हुए। रुमाल, स्कार्फ, छातों के जरिये बचते हुए। 

चौराहे के नजदीक ही एक निजी अस्पताल में नर्स शालिनी शर्मा चेहरा स्कार्फ से ढके हुए और हाथ में छतरी लेकर तेज कदमों से आगे बढ़ रही थी। वह बताती हैं, “मुझे पैदल चलना पसंद है। विक्रम का इंतजार करना नहीं। मुझे  करीब आधा घंटा लगता है पैदल चलकर अस्पताल पहुंचने में”। उनके मुताबिक सुरक्षित चलने के लिए शहर में कुछ-कुछ जगह फुटपाथ हैं। जहां फुटपाथ नहीं है वहां पैदल चलना भी सुरक्षित नहीं है।

वहीं, पिछले 25 वर्षों से देहरादून में विक्रम चलाने वाले प्रवीण कुमार बताते हैं कि रिस्पना पुल से आईएसबीटी की करीब 7 किलोमीटर की दूरी पहले सवारियों के साथ 30-40 मिनट में तय होती थी। अब ये दूरी तय करने में एक घंटा लगता है और कभी-कभी इससे भी ज्यादा। 

देहरादून रेजिडेंट वेलफेयर फ्रंट के अध्यक्ष और पूर्व पार्षद देविंदर पाल सिंह मोंटी शहर में बढ़ते ट्रैफिक पर चिंता जताते हैं “देहरादून में  शहर के एक से दूसरे हिस्से में पहुंचने के लिए ज्यादातर 10-15 किलोमीटर का सफर करना होता है। अधिकांश लोग 5-7 किलोमीटर के दायरे में ही अपने घर से दफ्तर या अन्य कार्यों के लिए दूरी तय करते हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के दो ही मुख्य जरिये हैं-  विक्रम और बस। इसके अलावा कुछ ई-रिक्शा भी हैं। पुरानी सिटी बसें बहुत ही खस्ता हालत में हैं। देहरादून स्मार्ट सिटी होने के नाते कुछ इलेक्ट्रिक बसें भी आई हैं। लेकिन उनके रूट लंबे हैं। जिले के एक हिस्से से दूसरे हिस्से को कवर करते हैं। शॉर्ट रूट नहीं बनाए गए। एक रूट पर दो इलेक्ट्रिक बसें लगाई हैं। इसलिए एक बस निकल गई तो दूसरी बस के लिए कब तक इंतज़ार करना होगा ये भी अनिश्चित रहता है।” इस  फ्रंट से शहर की 60 से अधिक सोसाइटी जुड़ी हुई हैं।"

वह आगे कहते हैं, “पिछले दस सालों में शहर की सड़कों पर निजी गाड़ियां तेजी से बढ़ी हैं और पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल कम हुआ है। इसीलिए शहर में ट्रैफिक जाम और प्रदूषण दोनों बढ़ा है। स्कूल और दफ्तर के समय पूरा शहर जाम हो जाता है। ये जाम भी शहर के कुछ खास स्पॉट जैसे घंटाघर, ईसी रोड, सहारनपुर चौक, प्रिंस होटल, राजपुर रोड पर ही लगता है। शहर का ज्यादातर ट्रैफिक इन्हीं स्पॉट्स से होकर गुजरता है।”

सड़कों पर निजी वाहनों का भारी दबाव

देहरादून की सड़कों पर वाहन लगातार बढ़ रहे हैं लेकिन सार्वजनिक परिवहन की स्थिति बेहद चिंताजनक है। परिवहन निगम से डाउन टु अर्थ को मिले आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल 2025 तक शहर में कुल 10.53 लाख से अधिक वाहन पंजीकृत हो चुके हैं। इनमें निजी वाहनों की हिस्सेदारी लगभग 94% है जबकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिर्फ 2.26% है।

उत्तराखंड परिवहन निगम के अनुसार, अप्रैल 2025 तक कुल 23,832 सार्वजनिक परिवहन वाहन शहर में पंजीकृत हैं। इनमें 2,453 स्टेज कैरिज और कॉन्ट्रैक्ट कैरिज वाहन शामिल हैं। इनमें 250 सिटी बसें और बाकी डीज़ल से चलने वाले विक्रम हैं।  स्टेज कैरिज वाहन नियमित स्टॉप के साथ संचालित होते हैं, जबकि कॉन्ट्रैक्ट कैरिज वाहन बुकिंग आधारित होते हैं। इसके अलावा 12,409 मोटर कैब, 5,213 मैक्सी कैब, 424 ओमनी बस, और 2,180 ऑटो रिक्शा शामिल हैं।
निजी वाहनों में शहर में 7,09,035 दोपहिया वाहन और 2,86,219 कारें निजी इस्तेमाल में हैं। यानी कुल 9,95,254 निजी वाहन।
जबकि इलेक्ट्रिक वाहनों में शहर में  7,811 दोपहिया, 3,106 ई-रिक्शा, 188 ई-कार्ट, 893 ई-कार और 39 ई-बस शामिल हैं।
अन्य कमर्शियल वाहनों में रिकवरी वैन, कंस्ट्रक्शन वाहन, एंबुलेंस, ट्रैक्टर, ट्रॉली, वाटर टैंकर, और विभिन्न सरकारी व अर्ध-सरकारी संस्थानों की गाड़ियां आतीं हैं।

परिवहन निगम के आंकड़ों को देखें तो बीते बीस वर्षों में वाहनों की संख्या में लगभग 1300% की बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2004-05 में देहरादून की सड़कों पर कुल वाहन 70,000 से अधिक थे। अगले दस वर्ष यानी 2014-15 तक यह संख्या करीब 186% बढ़कर 2 लाख से ज्यादा हो गई। इसके अगले दस वर्ष यानी 2025 तक यह आंकड़ा पांच गुना बढ़कर 10 लाख पार कर गया। 

इस दौरान शहर की आबादी भी तेजी से बढ़ी है। एमडीडीए के देहरादून मास्टर प्लान 2041 के मुताबिक वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देहरादून प्लानिंग क्षेत्र की कुल जनसंख्या लगभग 9.5 लाख थी। इसमें तकरीबन 9 लाख लोग शहरी क्षेत्र में और बाकी ग्रामीण क्षेत्र में रहे रहे थे।  

मास्टर प्लान के मुताबिक दस वर्षों में शहर की आबादी 32.60% औसत की दर से बढ़ी है। इस लिहाज से 2021 तक शहर की आबादी 12.56 लाख और वर्ष 2025 तक 14 लाख से अधिक होने का आकलन है।

इस बढ़ी आबादी के लिहाज से सार्वजनिक परिवहन की उपलब्धता बेहद सीमित है। प्रति 1000 लोगों पर सिर्फ 17 सार्वजनिक वाहन उपलब्ध है।

यानी देहरादून में हर 60 लोगों पर एक सार्वजनिक परिवहन वाहन है। लेकिन इनमें अधिकांश 3 से 7 सीट वाले ऑटो और विक्रम हैं। इस लिहाज से हर 1000 लोगों के लिए औसतन सिर्फ 10 से 15 सीटें ही उपलब्ध हैं, जबकि शहरी परिवहन मानकों के अनुसार यह संख्या 30 से 50 सीटों के बीच होनी चाहिए। सार्वजनिक परिवहन की संख्या के साथ-साथ क्षमता और कवरेज में भी शहर पिछड़ रहा है।

देहरादून, ऋषिकेश और हरिद्वार के लिए बनाए गए मोबिलिटी रिपोर्ट में देहरादून को सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था में चिंता की स्थिति में रखा गया है। रिपोर्ट के मुताबिक निजी बसें सिर्फ फायदे वाले रूट पर ही चलती हैं जिससे शहर के कई हिस्सों में सार्वजनिक परिवहन पहुंच ही नहीं पाता। रिपोर्ट में शहर में बसों की संख्या बढ़ाने के साथ ही कवरेज बढ़ाने के लिए भी कहा गया है।

देहरादून के क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी संदीप सैनी बताते हैं कि सार्वजनिक परिवहन से जुड़े वाहन चालक अधिकतर उन्हीं रूटों के लिए परमिट लेते हैं जो अधिक लाभदायक और व्यस्त होते हैं, जिससे शहर के कई हिस्से कवर नहीं हो पाते। उन्होंने ज़ोर दिया कि लास्ट माइल कनेक्टिविटी को मजबूत करना और पब्लिक ट्रांसपोर्ट को अधिक आरामदायक बनाना जरूरी है तभी लोग निजी वाहनों की बजाय सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता देंगे।

देहरादून में सड़क हादसों की संख्या और मौतों का आंकड़ा लगातार बढ़ता रहा है। उत्तराखंड पुलिस के यातायात निदेशालय के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2020 में देहरादून में कुल 246 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गईं, जिनमें 115 लोगों की मौत हुई। 2021 में हादसों की संख्या बढ़कर 365 हो गई, और 165 लोगों की जान गई। 2022 में 465 दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 177 लोगों की मौत दर्ज की गई। वर्ष 2023 में यह आंकड़ा और बढ़ा—481 सड़क हादसों में 201 लोगों ने अपनी जान गंवाई। 2024 में भी स्थिति गंभीर बनी रही, जब 470 दुर्घटनाओं में 185 मौतें दर्ज की गईं। 

ग्रीनपीस की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2017 में देहरादून में पीएम-10 का वार्षिक स्तर 238 तक पहुंच गया था, जिससे यह शहर खराब वायु गुणवत्ता वाले इलाकों की सूची में शामिल हो गया। इसी रिपोर्ट के बाद देहरादून क्लीन एयर एक्शन प्लान की जरूरत महसूस की गई। जिसमें वाहनों से होने वाले प्रदूषण को हवा में पीएम-10 और पीएम 2.5 के उच्च स्तर की मुख्य वजह माना गया।  

बिगड़ती हवा और बढ़ते बीमार

बिगड़ती हवा को स्वच्छ बनाने के उद्देश्य से राष्ट्रीय क्लीन एयर एक्शन प्लान (एनकैप) में भी देहरादून को उत्तराखंड के 2 अन्य शहरों के साथ शामिल किया गया। एनकैप डैशबोर्ड के मुताबिक देहरादून में वर्ष 2018 से 2024 के बीच पीएम-10 के स्तर में सुधार हुआ है, लेकिन यह अब भी निर्धारित मानकों से काफी ऊपर बना हुआ है।

बिगड़ती हवा दूनवासियों की सेहत बिगाड़ रही है। वायु प्रदूषण का सेहत पर पड़ने वाले असर को लेकर किए गए एक शोध में पाया गया कि पीएम10 और पीएम 2.5 जैसे सूक्ष्म कण फेफड़ों में गहराई तक जाकर सांस की समस्याएं, ब्रोंकाइटिस, अस्थमा, हृदय रोग और फेफड़ों के कैंसर तक का खतरा बढ़ाते हैं। 

देहरादून के हिमालयन जौलीग्रांट अस्पताल में छाती और श्वास रोग विभाग की विभागाध्यक्ष और श्वास रोग विशेषज्ञ डॉ. राखी खंडूड़ी कहती हैं कि दिल्ली की तरह ही देहरादून में भी वायु प्रदूषण और उसके स्वास्थ्य पर गंभीर असर देखने को मिल रहे हैं। बच्चे और युवा सांस से जुड़ी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। 

"धूम्रपान नहीं करने वाले लोगों के फेफड़े भी नियमित स्मोकर की तरह प्रभावित हैं। एलर्जी, अस्थमा से लेकर टीबी और फेफेड़े के कैंसर के मामले भी बढ़े हैं। जैसे सिगरेट पीने से हमारे फेफड़ों में जहरीला धुआं जाता है, वैसे ही वायु प्रदूषण से हानिकारक गैसें और केमिकल फेफड़ों में पहुंचते हैं और हमारी इम्यूनिटी कमज़ोर करते हैं”।

डॉ. खंडूड़ी बताती हैं, "मैं 2012 से जौलीग्रांट अस्पताल में कार्यरत हूं। तब हमारी ओपीडी में प्रतिदिन 30-40 मरीज आते थे। आज यह संख्या बढ़कर 80-90 तक पहुंच गई है। यानी पिछले दस-बारह वर्षों में सांस से जुड़ी बीमारियों के मामले दो गुना से अधिक बढ़ गए हैं।"

स्वच्छ ईधन पर बदलाव की जरूरत

वाहनों से निकलने वाला धुआं दून वासियों की सेहत पर भारी पड़ रहा है। क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी संदीप सैनी बताते हैं, “स्वच्छ दून के उद्देश्य से राज्य सरकार ने उत्तराखंड क्लीन मोबिलिटी पॉलिसी-2024 की शुरुआत की, जिसके पहले चरण में देहरादून शहर के सार्वजनिक परिवहन को स्वच्छ ईंधन जैसे सीएनजी या यूरो-6 मानकों वाले वाहनों में बदलना था। इसमें डीज़ल से चलने वाली सिटी बसें, विक्रम और तिपहिया जैसे वाहनों को शामिल किया गया। नीति के अनुसार, 15 वर्ष या उससे अधिक पुराने वाहनों को स्क्रैप कर, नए सीएनजी या यूरो-6 मॉडल के वाहनों को खरीद पर सब्सिडी का प्रावधान किया गया था। हालांकि, एक वर्ष के लिए लागू की गई इस नीति के तहत केवल 796 तिपहिया वाहन ही यूरो-6 में परिवर्तित हो सके, जबकि एक भी सिटी बस स्वच्छ ईंधन पर नहीं आ सकी”। सैनी बताते हैं कि इस नीति को लागू करने में सॉफ्टवेयर संबंधी तकनीकी समस्याएं सामने आईं, जिससे इसका प्रभाव सीमित रहा। सरकार अब इस नीति को दोबारा लागू करने की तैयारी में है।

वहीं, देहरादून में पिछले 8 वर्षों से मेट्रो नियो प्रणाली पर भी कार्य चल रहा है। इसके लिए उत्तराखंड मेट्रो रेल, अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर एंड बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन लिमिटेड का गठन किया गया है। हालांकि धरातल पर इस परियोजना का कोई कार्य अभी तक शुरू नहीं हो सका है। 

केंद्र सरकार की मेट्रो रेल नीति 2017 के अनुसार, पारंपरिक मेट्रो परियोजनाओं को 20 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में ही मंजूरी दी जाती है। चूंकि देहरादून की आबादी इस सीमा से कम है, इसलिए राज्य सरकार ने अपने बजट से 'मेट्रो नियो'  प्रणाली को अपनाया। 

यूकेएमआरसी के पूर्व प्रबंध निदेशक जितेंद्र त्यागी के अनुसार, “देहरादून की संकरी सड़कों और मौजूदा ट्रैफिक जाम की स्थिति को देखते हुए 'मेट्रो नियो' प्रणाली सबसे बेहतर विकल्प है, जो अगले 50 वर्षों तक शहर की परिवहन आवश्यकताओं को पूरा कर सकती है। इस परियोजना से देहरादून शहर के साथ ही, हरिद्वार और ऋषिकेश के बीच बेहतर कनेक्टिविटी होगी”।

विक्रम के शोर, धुएं, और धूल के साथ खस्ताहाल सिटी बसों से दूरी बनाने वाले मेघा पंत जैसे दूनवासी बेहतर सार्वजनिक परिवहन के इंतज़ार में हैं जो शहर के भीतर उनकी यात्रा सहूलियत भरी बना सके।

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