आयरन हॉर्स यानी साइकिल: सतत गतिशीलता का वाहन
“पेडल मोर
पॉल्यूट लेस
अकुपाई ऑल स्ट्रीट्स
रिपब्लिक ऑन रोअड्स” (टी. विजयेन्द्र)
पढ़ना वस्तुतः आसपास देखना है। टी. विजयेन्द्र की पुस्तक ‘द बाईसाइकिल इन इंडिया’ (2024) को पढ़ते हुए प्रयागराज में रहने वाले उन छात्रों की छवि दिखने लगी जो नयी-पुरानी साइकिलों से अपने भविष्य का रास्ता तय करते हैं।
हम उनकी साइकिल की सवारी को ‘मदर-अर्थ’ या ‘धरती-माता’ के कई बड़े संकटों के एक समाधान के रूप में देखने लगे। इन छात्रों को नहीं पता कि साइकिल से चलकर वे दुनिया की कितनी समस्याओं के समाधान में एक बड़ी भूमिका निभा रहें हैं।
साइकिल की यह परंपरा सुन्दर और सुखद है, लेकिन इसे गायब या कमजोर करने का वैश्विक-पूंजीवाद का प्रयास भी संगठित और सुनयोजित है। नव-उदार होते अर्थतंत्र में साइकिल और इसे चलाने वालों के प्रति अनुदारता बढती गई है।
जैसे- साइकिल को कारों, रेसिंग बाइकों आदि ने हासिये पर कर दिया, वैसे ही साइकिल चलाने वालों को भी जीवन की दौर से बाहर करने का प्रयास किया गया, लेकिन साइकिल रक्तबीज की तरह है- यह अपने रक्त की एक बूंद से ही अस्तित्व का साम्राज्य खड़ा कर लेती है।
पूंजीवादी वैश्वीकरण के उपरान्त और कोविड महामारी से पहले तक इसके उत्पादन और मांग में लगातार कमी आ रही थी, लेकिन महामारी के उपरांत इसमें तेजी आ गई।
महामारी ने जीवन को एक अर्थ प्रदान किया और इस अर्थ के केंद्र में साइकिल भी आई। वर्ष 2019 में जहां इसका उत्पादन लगभग 1.2 करोड़ यूनिट था, तो वर्ष 2020 में यह 1.45 करोड़ पार कर गया।
महामारी ने सतत विकास की चेतना विकसित की। जीवन की वास्तविक जरूरतों और सीमाओं से भी हमें परिचय कराया। साइकिल की खोज भले ही लगभग दो सौ वर्ष पहले जर्मन वैज्ञानिक बैरन कार्ल वोन डेरिस के द्वारा वर्ष 1817 में की गई, लेकिन अपने अविष्कार के बाद से लगातार यह अपनी उपयोगिता सिद्ध करती रही है।
इसलिए कहा जाता है कि साइकिल और सिलाई मशीन आधुनिक सभ्यता के दो ऐसे अविष्कार हैं जो अबतक किसी न किसी रूप में हमारे बीच मौजूद रहें हैं।
साइकिल के चिरंजीवी होने के कई कारण हैं जैसे यह पर्यावरणीय दृष्टिकोण से उपयुक्त है; आम आदमी और कामगार समूहों के जीवन संघर्षों से जुड़ा है; यह गांवों के साथ-साथ नगरों के लिए भी उपयुक्त रहा है; इसकी सवारी स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी अहम् है. इसके आलावा भी अन्य अनगिनत वजहें हो सकती हैं जिसने इसे ‘फ़ास्ट-और फ्युरिअस’ की संस्कृति के दौर में भी पूर्णतः विस्थापित नहीं होने दिया है।
इसके आलावा इस ‘आयरन-हॉर्स’ या ‘इस्पाती-घोड़े’ को कई बार पूंजीवादी आत्मा के विरुद्ध जाकर ‘पॉपुलिस्ट-पॉलिसी’ में भी व्यापक स्थान दिया गया। बिहार और बंगाल जैसे राज्यों में सामाजिक परिवर्तन में इसने बड़ी भूमिका निभाई।
बिहार जैसे सामंती राज्य में छात्राओं को दी जाने वाली साइकिलों ने वहां सदियों से जकड़ी लड़कियों को नयी उड़ाने दी। वे पढने के लिए घर से बाहर निकली और अपना भविष्य अपने हाथों में लेना प्रारंभ किया।
बंगाल की सरकार ने भी ‘सबुज-साथी’ नाम से इस तरह की एक योजना चलाई थी। सौ साल पहले यूनाइटेड किंगडम की एक नारीवादी ऐलिस हव्किंस ने अपने मताधिकार से सम्बंधित मांगों के लिए साइकिल की ही सवारी की थी।
विभिन्न नारीवादी संघर्षों में इसके योगदान को देखते हुए ही अमेरिकन नागरिक अधिकार कार्यकर्ता सुसान बी अन्थोनी ने वर्ष 1896 में लिखा- “दुनिया में अन्य किसी चीज की तुलना में साइकिल ने महिलाओं की मुक्ति में अधिक भूमिका निभाई है”। महिला आन्दोलन ही नहीं, बल्कि यह कई तरह के प्रतिरोधी आन्दोलनों में संघर्ष के एक टूल या प्रतीक की तरह प्रयुक्त होती रही है.
जैसे-जैसे पूंजीवादी राजनीतिक-अर्थव्यस्था का विस्तार होता जा रहा है वैसे-वैसे साइकिल का स्पेस घटता जा रहा है. सड़के उनके लिए न तो सुरक्षित रही और न ही विधिसम्मत। सड़कों पर साइकिल सवारों को कार सवार ऐसे देखते हैं जैसे वे कीड़े-मकोड़े हों, उन्हें कुचलने से हमारी संवेदना शायद ही आहत होती है।
इसी तरह बड़ी सड़कों पर साइकिल जैसी छोटी सवारी के लिए जगह नहीं दिया जा रहा है। जैसे बंगाल में ही एक समय करीब 174 ऐसी सड़के थी, जहां साइकिल चलाना प्रतिबंधित था और आज भी उसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है, जबकि इसको लेकर साइकिल संगठनों ने कई आन्दोलन भी किए।
और जहां उन्हें जगह दी गई, वहां बाइकों ने अपना कब्जा जमा लिया। साइकिल और साइकिल सवार चुपचाप देख रहे हैं। यह प्रवृति पूरे भारत में तेजी से बढती गई है।
सड़कों की डिजाइनिंग साइकिल के अस्तित्व को अनदेखा करके की जा रही है, ठीक वैसे ही जैसे दुनिया के अनगिनत देशों में राजकीय नीतियाँ आम जनमानस को विस्मृत करके बनाई जा रही है. हम लगातार ‘पोस्ट-इंडस्ट्रियलिज्म’ की तरफ उन्मुख हो रहे हैं।
इसमें सड़कें केवल कारों को ही प्रतीकात्मक रूप से वैधता देती है; जैसे एआई (आर्टिफिशएल इंटेलीजैंस) द्वारा संचालित कारें, चालक-रहित कारें, आदि के दौर में साइकिल कहां अपना अस्तित्व बचाएगी!
सड़कें लगातार हिंसक होती जा रही है. यह दुर्घटनाओं, प्रदुषण, और मानवीय-आर्थिक आपदाओं का कारण बनती जा रही है, ऐसे में साइकिल का विस्थापन और बड़े संकट को जन्म देगा।
सवाल है कि साइकिल का संकट और भविष्य क्या है? हमें प्रसिद्ध अफ्रीकन लेखक नागुगी वा थ्योंगो की पंक्ति याद आ रही है जो उन्होंने अफ़्रीकी भाषा के सन्दर्भ में कही थी कि कोई भी चीज अपने किसी आन्तरिक दोष आदि के कारण विलुप्त नहीं होती, बल्कि सत्ता की अनदेखी की वजह से गायब होती है।
आज जब संसाधनों की कमी एक बड़ी वैश्विक समस्या बनी हुई है ऐसे में साइकिल की महत्ता पुनः स्थापित करने की जिम्मेवारी समाज के साथ-साथ सत्ता की भी है. इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कई सरकारों द्वारा भारत में इसपर थोड़े बहुत कार्य किये गए, लेकिन इसके, उत्पादन, वितरण, प्रबंधन आदि कई स्तरों पर बड़ी और दीर्घकालिक योजनाओं के साथ कार्य करने की आवश्यकता है।
डेनमार्क के नगरीय प्रबंधन के विशेषज्ञ माइकल एंडरसन तो यहां तक कहते हैं कि नगरीय समाज के लिए सबसे उपयुक्त सवारी साइकिल है न कि कारें या अन्य बड़ी गाड़ियां। आज शहरों में जाम और प्रदूषण को देखते हुए इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता।
भारत के अनगिनत ऐसे बड़े शहर हैं जो पंद्रह से बीस किलोमीटर की दूरी में तय किये जा सकते हैं, ऐसे में बड़ी प्रदूषण वालें वाहनों के बदले साइकिल अधिक व्यावहारिक और तर्कसंगत सवारी है. यह गतिशील जीवन का ‘सस्टेनेबल’ तरीका है।