भारत में आवाजाही: जाम की गिरफ्त में 'बेअदब' हुआ लखनऊ, तेजी से बढ़ रहे निजी वाहन

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में सार्वजनिक परिवहन की खस्ता हालत की वजह से लोग निजी वाहन खरीदने को मजबूर हो रहे हैं
लखनऊ में सड़कों पर बेतरतीब परिवहन की वजह से जगह-जगह जाम लगा रहता है। सभी फोटो: नीतू सिंह
लखनऊ में सड़कों पर बेतरतीब परिवहन की वजह से जगह-जगह जाम लगा रहता है। सभी फोटो: नीतू सिंह
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उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के अलीगंज इलाके में रहने वाले शिवम लखनऊ विश्व विद्यालय में पीएचडी स्कॉलर हैं। वो बताते हैं, “कोविड के बाद से मैं विश्वविद्यालय बाइक से ही जा रहा हूं। 12 किलोमीटर की जो यात्रा पहले हम 20 मिनट में पूरी कर लेते थे अब 40 से 50 मिनट लगते हैं। लखनऊ में जगह-जगह निर्माण कार्य, ई रिक्शा की वजह से जाम, सिटी बसों की कम संख्या के कारण लोग निजी वाहन खरीदने को मजबूर हैं।”

शिवम की तरह बाइक से यात्रा करने वाले महेंद्र प्रताप बताते हैं, “हमारे पास कार है, लेकिन हर दिन जाम में कौन फंसे? कोविड के बाद लखनऊ में भीड़ ज्यादा बढ़ गयी है। बहुत लोग कोविड के बाद दूसरे शहरों में काम के लिए वापस ही नहीं गये। शहर में पीजीआई और मेडिकल कॉलेज में इलाज कराने हर दिन दूसरे जिलों से हजारों की संख्या में लोग आते हैं। हजारों गाड़ियां आती हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर में कोई विशेष बदलाव हुआ नहीं, दूसरा मैनेजमेंट स्तर पर बढ़ती गाड़ियों को व्यवस्थित करने की ठोस रणनीति नहीं बनाई गयी।”

महेंद्र पीजीआई के पास वृन्दावन कॉलोनी में रहते हैं। उन्होंने बताया, “ऑफिस पहुंचने में अब पहले से ठीक दोगुना समय लगता है। ई-रिक्शा और निजी वाहन यहां बहुत तेजी से बढ़े हैं। जोमेटो, स्वीगी, ओला, ऊबर जैसी जितनी भी ये ऑनलाइन सर्विसेज हैं, सभी में दोपहिया और चारपहिया वाहनों का खूब इस्तेमाल हो रहा है। उन लोगों के लिए यह रोजगार है पर आम जनता के लिए मुश्किलें हैं।”

लखनऊ में दो-पहिया वाहन से यात्रा करने वालों की संख्या 21 लाख से ज्यादा है।

परिवहन विभाग के वाहन पोर्टल पर दर्ज आंकड़ों के अनुसार लखनऊ में रजिस्टर्ड कुल वाहनों की संख्या 31,79,651 है. जिसमें दोपहिया 21,69,599, तिपहिया 10,73,514, चार पहिया 7,80,605, एंबुलेंस 6,072, निर्माण उपकरण वीकल 3,290, गुड्स वीकल 76,551, पब्लिक सर्विस वीकल 6143, स्पेशल कैटेगिरी वीकल 838, ट्रेलर 1245, ट्रैक्टर 27957 हैं।

इस समय उत्तरप्रदेश में सबसे अधिक इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) चल रहे हैं। यूपी में ईवी वाहनों की संख्या 4.14 लाख से अधिक है, जबकि दिल्ली में 1.83 लाख और महाराष्ट्र 1.79 लाख ईवी वाहन हैं इन दोनों राज्यों को यूपी ने पीछे छोड़ दिया है।

लखनऊ में बढ़ती गाड़ियों की संख्या पर लखनऊ आरटीओ प्रशासन संजय तिवारी ने डाउन टू अर्थ से बात करते हुए कहा, “लखनऊ में हर साल टू व्हीलर और फोर व्हीलर वाहनों की संख्या 10 से 12 प्रतिशत बढ़ रही है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट कम बढ़े हैं, लेकिन ई-रिक्शा और ई-ऑटो काफी तेजी से बढ़े हैं। ई-रिक्शा को कंट्रोल करने के लिए एक कमेटी गठित की गयी है, जिसमें आरटीओ, डीसीपी और जिला मजिस्ट्रेट के प्रतिनिधि शामिल हैं। ई-रिक्शा की वजह से बढ़ते जाम को कंट्रोल करने के लिए इसे नगर निगम जोन के हिसाब से चलाए जाएं. इसपर जिलाधिकारी की अध्यक्ष्यता में काम चल रहा है। यूपी में इलेक्ट्रिक वाहन सबसे ज्यादा हैं आने वाले समय में लखनऊ में यह संख्या और बढ़ेगी।”

उत्तरप्रदेश सरकार, नीति आयोग, एशियन डेवलपमेंट बैंक के सहयोग से 2023 में एक रिपोर्ट तैयार की है, जिसमें 2030  तक की कार्ययोजना बनी हुई है। लखनऊ कंप्रेहेन्सिव इलेक्ट्रिक मोबिलिटी प्लान के अनुसार लखनऊ शहर के लिए 3 लाख 50 हजार इलेक्ट्रिक वाहन लाने का लक्ष्य है जिससे 90,000 टन कार्बन उत्सर्जन हर साल कम होगा।

लखनऊ में सड़कों के मुकाबले गाड़ियां काफी तेजी से बढ़ रही हैं। पांच साल में नगर निगम की सड़कों का नेटवर्क 519.767 किमी से बढ़कर 1545.984 किमी हुआ है। वहीं पीडब्ल्यूडी की सड़कों का नेटवर्क 2021 में 6200 किमी था, जो साल 2024 में बढ़ाकर 8700 किमी किया गया है। शहर में 31 लाख से ज्यादा वाहनों की तुलना में पार्किंग क्षमता 3900 से कम है।

रुकसाना खातून एक दिहाड़ी मजदूर हैं वो ऐशबाग इलाके के बिहार नगर कालोनी में रहती हैं. हर रोज मजदूरी के लिए मछली मंडी से आगे जाती हैं। उन्हें वहां पहुंचने में एक घंटे से ज्यादा का वक़्त लग जाता है। रुकसाना पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर यात्रा करने का अपना अनुभव साझा करती हैं, “दिन का 450 रुपए मिलता है, जिसमें 90 रुपए किराया लग जाता है।

लखनऊ का भीड़भाड़ वाला इलाका हजरतगंज। फोटो: नीतू सिंह
लखनऊ का भीड़भाड़ वाला इलाका हजरतगंज। फोटो: नीतू सिंह

बस्ती से ऑटो पकड़ने के लिए एक किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। शहर में सरकारी बस समय से मिलती नहीं. अगर मिल भी गयी तो सीधे वहां तक नहीं जाती जहां हमें जाना होता है। हमारी बस्ती की बहुत औरतें मजदूरी करने जाती हैं. सबका आने-जाने का 100 रुपए तक किराया खर्च हो जाता है।

सड़क पर ट्राई साईकिल से यात्रा कर रहीं सुनीता देवी कहती हैं, “आम आदमी का सड़क पर पैदल चलना मुश्किल है। हम तो विकलांग हैं, हमारी ट्राई साईकिल भी थोड़ी चौड़ी है। हमें 2,3 किलोमीटर जाने में बहुत समय लग जाता है। सुबह जल्दी निकलती हूंं, जिससे जाम न मिले। शाम को काम करके थोड़ा पहले निकलती हूंं। तब भी बहुत समय लगता है। रेड लाईट को कोई नहीं मानता। जिसको जहां से मन गाड़ी निकाल देता है मैं बीच में कई बार फंसी रह जाती हूँ।”

ट्राइसाइकिल पर चलने वाली सुनीता के लिए सड़क पर चलना बड़ी मुसीबत है। फोटो:नीतू सिंह
ट्राइसाइकिल पर चलने वाली सुनीता के लिए सड़क पर चलना बड़ी मुसीबत है। फोटो:नीतू सिंह

लखनऊ में कुछ मुख्य जगहों को छोड़कर बाकी जगह अभी यातायात का ऐसा कोई साधन नहीं है कि आपको मुख्य सड़क पर मिले और आपके गंतव्य तक पहुंचा दे। सिटी बसें भी पर्याप्त संख्या में नहीं हैं। ऐशबाग चौराहे पर 15 मिनट से सिटी बस का इंतजार कर रहे श्रीराम यादव ने बताया, “सिटी बस के लिए इन्तजार करना पड़ता है, लेकिन कम पैसे में ड्यूटी करने पहुंच जाते हैं। 20 रुपए में इनकम टैक्स ऑफिस तक पहुंच जाते हैं। अगर ऑटो से जाएंगे तो 35-40 रुपए लगेंगे और दो ऑटो बदलने पड़ते हैं।”

शिवम साल 2015 में बने लखनऊ के साइकिल पथ को भी जाम की वजह मानते हैं। उनका कहना है कि साइकिल पथ से सड़कों की चौड़ाई कम हुई है और साइकिल पथ का भी इस्तेमाल नहीं हुआ। साइकिल पथ पर अवैध दुकानें लग गईं तो कहीं यह पथ टूटा हुआ है। साइकिल पथ पर कहीं दो-पाहिया पार्किंग बन गयी है।

काउंसिल ऑन एनर्जी एनवायरमेंट एंड वाटर (सीईईडब्लू) ने लखनऊ में करीब 900 यात्रियों पर एक सर्वे किया, जिसमें यह पाया गया कि यहां हर यात्री को सिटी बस के लिए औसतन 12 मिनट इंतजार करना पड़ता है, जबकि यात्री चाहते हैं कि उन्हें चार मिनट से ज्यादा इंतजार न करना पड़े। इसमें यह भी सामने आया है कि करीब 83 फीसदी महिलाएं निजी वाहन न होने के कारण सिटी बस का सहारा लेती हैं, वहीं पुरुषों में यह संख्या 78 फीसदी है। 40 फीसदी से अधिक यात्री बस स्टॉप पर पहुंचने या बस से उतरने के बाद गंतव्य तक पहुंचने के लिए पैदल चलना पड़ता है।

सीईईडब्लू की यह रिपोर्ट 2024 में आई। इसके अनुसार लखनऊ में केवल 22 प्रतिशत बस स्टॉप पर बैठने की सुविधा है। वहीं 90 प्रतिशत बस स्टॉप पर किसी तरह का साईनेज (संकेत) बोर्ड नहीं है। रूट के बारे में बताया नहीं गया हैं, समय सारणी नहीं लगी है। टैक्टाइल फ्लोरिंग नहीं है। रैम्प और रेलिंग नहीं है, जिन 61 प्रतिशत जगहों को इन्होंने आडिट किया है, वहां फुटपाथ नहीं है।

गोमतीनगर में रहने वाली पल्लवी अपनी कार से ड्राइव करके रोज ऑफिस जाती हैं। वो बताती हैं, “बड़े शहरों जैसे यहां यूटर्न बनाने की कोशिश हो रही है। लखनऊ को दिल्ली बनाने में समय लगेगा। ट्रैफिक सिग्नल कई जगहों के खराब हैं। ट्रैफिक नियमों का गम्भीरता से पालन नहीं होता है। ट्रैफिक को रेगुलेट करने का कोई विशेष सिस्टम नहीं बनाया गया, जिस वजह से मुश्किलें दिन पर दिन बढ़ रही हैं।

वो आगे बताती हैं, “आफिस टाइमिंग सुबह 9:30 से 11 बजे तक और शाम 06 बजे से 08 बजे तक रोड पर निकलना बहुत मुश्किल रहता है। जितने लोग उतनी गाड़ियां। गाड़ी में गर्मी में पूरे समय एसी चल रहा है, जो पर्यावरण के लिए बहुत घातक है। शहर में पार्किंग के इंतजाम नहीं, जिससे आप अपनी गाड़ी सही से खड़ी कर सको। दिक्कत ही दिक्कत है अगर इस पर काम नहीं किया गया तो स्थिति बदतर हो जाएगी।”  

लखनऊ में कुछ मुख्य चौराहों पर हमेशा जाम रहता है, जिसमें हजरतगंज, वालिंगटन, चारबाग, आलमबाग नहरिया, पीजीआई, मेडिकल कॉलेज, चौक चौराहा, पॉलिटेक्निक, तेलीबाग, कमता, अमीनाबाद, दुबग्गा, चिनहट, कैंट, लालबत्ती चौराहा, केसरबाग, नोवेल्टी, नेशनल पीजी कॉलेज चौराहा, हनुमंत धाम, निशातगंज, डालीगंज से आईटीचौराहा, इन्द्रागांधी प्रतिष्ठान चौराहा, आलमनगर पुल, पॉवर हाउस चौराहा, बीबीडी, आईटी चौराहा मुख्य हैं।

पुराने लखनऊ में रहने वाले पेशे से लेखक हफीज किदवई पहले अपने निजी वाहन से आवाजाही करते थे। फिर वो ऑटो पर शिफ्ट हुए। अभी ओला और ऊबर से यात्रा करते हैं। हफीज किदवई कहते हैं, “पिछले बीस सालों में बेहताशा गाड़ियां बढ़ीं। सड़कें चौड़ी हुई नहीं। जहां जाम लगा, वहां पुल बना दिए गए। उन पुलों को चौराहों पर उतार दिया गया। सड़क छह लेन है तो चौराहा दो लेन का बनाया गया। लखनऊ में बहुत लोड नहीं है, लेकिन मैनेजमेंट की कमी है। पांच छह बस अड्डे, अनगिनत टैक्सी स्टेण्ड बना दिए। ई-रिक्शों की शहर में भरमार है। वीआईपी रोड छोड़कर कहीं भी ई-रिक्शा चलाओ जिस वजह से भी अब बेतुका जाम लगता है।”

हफीज किदवई आगे बताते हैं कि नक्खास के विक्टोरिया स्टेट में बहुत जाम रहता था। उसपर पुल बना दिया गया। पुराने लखनऊ से नये लखनऊ को कनेक्ट करने वाली सड़क बनाई गयी इसपर ट्रैफिक बढ़ा तो लामार्ट से कुलिया घाट पर पुल बना दिया गया। जाम को कम करने के लिए शहर में पुलों की संख्या तेजी से बढ़ी, लेकिन जाम से फिर भी निजात नहीं मिला। फुटपाथ खत्म किए गए, साइकिल पथ खत्म किया गया, लेकिन कुछ भी सुधार नहीं हुआ। पुरानी जितनी सड़कें बनी हैं वो सब बेहतर हैं। हजरतगंज और मुख्यमंत्री आवास के बीच कोई इवेंट हुआ या धरना हुआ तो पूरा शहर जाम से जूझने लगता है, जबकि ये शहर की सेन्ट्रल जगह है इसे भी दुरस्त नहीं किया गया।

लखनऊ में शहीद पथ इसलिए बनाया गया था, जिससे जाम कम हो, लेकिन अगर शहर में ईकाना स्टेडियम में मैच हुआ या कोई इवेंट हुआ तो शहीद पथ पर पूरा जाम लग जाता है जहाँ से निकलने में लोगों को घंटों लग जाते हैं।

मेट्रो शहर में चली तो जरुर लेकिन शहर के एक हिस्से तक ही सीमित रह गयी जहां मेट्रो का होना सबसे ज्यादा जरूरी था वहां काम ही शुरू नहीं हुआ। पुराना लखनऊ, मेडिकल कॉलेज, पीजीआई, तेलीबाग, चिनहट, बीबीडी, नक्खास, कपूरथला, दुबग्गा, गोमतीनगर, मडियांव, राजाजीपुरम में अगर मेट्रो होती तो यात्रियों को काफी सहूलियत हो जाती।

जिस ई-रिक्शा को शहर में जाम की एक वजह माना जा रहा है, ये ई-रिक्शा चालक भी इससे परेशान हैं। ई-रिक्शा चला रहे ओमप्रकाश यादव बताते हैं, “कभी-कभी इतना भयानक जाम रहता है कि अमीनाबाद से चारबाग पहुंचने में एक घंटा लग जाता है। जब अमीनाबाद से चारबाग का किराया दो रुपए था, हम तबसे रिक्शा चला रहे हैं। पहले पैडल वाला रिक्शा चलाते थे अभी 10 सालों से ई-रिक्शा चला रहे हैं। गाड़ियां बढ़ीं, लेकिन सड़कें नहीं।”

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