
हर सुबह ठीक 8:30 बजे, गीता एच अपने किराए के घर से बाहर निकलती हैं। यह घर बेंगलुरु के पूर्वी उपनगर केआर पुरम के एक कोने में बसे कित्तगनूर इलाके में स्थित है। उनके पति उन्हें रोजाना अपनी बाइक पर ओल्ड मद्रास रोड पर स्थित टीसी पलया बस स्टैंड तक छोड़ने जाते हैं। इस काम में उन्हें 10 मिनट का समय लगता है।
उन्हें वहां से शिवाजी नगर जाना होता है, जहां उनका दफ्तर है। वे एक लेखा अधीक्षक (अकाउंट्स सुपरिटेंडेंट) के पद पर कार्यरत हैं। उनके घर से दफ्तर की दूरी लगभग 16 किलोमीटर है, लेकिन वहां पहुंचने में समय लगता है — डेढ़ घंटा, वो भी एक तरफ का।
सोलह किलोमीटर। नब्बे मिनट। तीन बसें। एक मेट्रो। यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि बेंगलुरु की बिगड़ी हुई परिवहन व्यवस्था के साथ गीता की रोज की लड़ाई है।
गीता की कहानी बेंगलुरु के बदनाम ट्रांसपोर्ट संकट का प्रतीक है। जहां दूरी नहीं, बल्कि कनेक्टिविटी और जाम असली चुनौती हैं। उनके वर्तमान कार्यालय तक कोई सीधा सार्वजनिक परिवहन साधन नहीं है, और इसी वजह से उनकी दिनचर्या कई साधनों के जोड़-जोड़ से बनती है। पहले बाइक, फिर बस, उसके बाद मेट्रो और अंत में फिर बसें।
यह कहानी सिर्फ गीता की नहीं, बल्कि उस शहर की है, जो देश की टेक (टेक्नोलॉजी) राजधानी कहलाने के बावजूद अपने नागरिकों को सुगम यात्रा देने में असफल रहा है।
उदाहरण के तौर पर देखें: जब उनके पति उन्हें टीसी पलया बस स्टैंड पर छोड़ते हैं, तो गीता वहां से पहली बस लेती हैं बेन्निगनहल्ली मेट्रो स्टेशन के लिए। वहां से वह मेट्रो पकड़ती हैं जो उन्हें बेंगलुरु के सेंटर यानी विधान सौधा मेट्रो स्टेशन तक पहुंचाती है।
इसके बाद वह एक और बस लेती हैं कैंटनमेंट बस स्टैंड के लिए और फिर आखिरी बस से सीएसआई बस स्टॉप (शिवाजी नगर) पहुंचती हैं। यहां से वह 5–6 मिनट पैदल चलती हैं और अपने कार्यालय पहुंचती हैं।
वह कंधे उचका कर कहती हैं, "एक-दो बार बदलना तो ठीक है"। टीसी पलया से बेन्निगनहल्ली की भीड़भाड़ वाली बस सेवा की ओर इशारा करते हुए वह बताती हैं, "लेकिन यह सब बहुत ज्यादा हो जाता है। कई दिन तो ऐसे होते हैं, जब मुझे पहली बस में बैठने की जगह भी नहीं मिलती।"
यह सिलसिला न केवल समय लेता है, बल्कि थकावट और मानसिक तनाव भी देता है। खासकर तब, जब हर बदलाव में अनिश्चितता जुड़ी हो।
बेन्निगनहल्ली से विधान सौधा तक की मेट्रो यात्रा के लिए गीता अब एक तरफ का 40 रुपए किराया देती हैं — जो कुछ समय पहले इससे आधा हुआ करता था। फरवरी में बेंगलुरु मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड ने 'नम्मा मेट्रो' के किरायों में एक साथ 40-50 प्रतिशत की भारी बढ़ोतरी की, जिससे यह देश की सबसे महंगी मेट्रो सेवा बन गई।
स्थानीय निवासियों और शहरी परिवहन विशेषज्ञों ने इस कदम पर सवाल उठाए हैं। उनका कहना है कि बेंगलुरु जैसे शहर, जहां निजी वाहनों की भरमार से ट्रैफिक और प्रदूषण चरम पर है, वहां सार्वजनिक परिवहन को सस्ता और सुलभ बनाना चाहिए, न कि उसे और महंगा कर देना।
एक विशेषज्ञ ने टिप्पणी करते हुए कहा, "जब मेट्रो का किराया भी जेब पर भारी पड़ने लगे, तो लोग दोबारा बाइक या कार की ओर लौटने लगते हैं।" यह स्थिति शहर की पहले से ही संकटग्रस्त ट्रैफिक व्यवस्था को और जटिल बना सकती है।
मुफ्त, लेकिन आसान नहीं
कर्नाटक सरकार की ‘शक्ति योजना’ के कारण गीता को राहत जरूर मिली है। इस योजना के तहत महिलाओं को राज्य की साधारण सरकारी बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा मिलती है। लेकिन “मुफ्त” का मतलब यह नहीं कि यह यात्रा सुविधाजनक या सुलभ हो गई है। किराया नहीं देना पड़ता, लेकिन इसकी कीमत वह समय, ऊर्जा और रोजाना के तनाव के रूप में चुकाती हैं।
शाम का सफर तो और भी थकाने वाली होता है। अगर किस्मत साथ दे और वह ठीक 5:30 बजे कार्यालय से निकल सके, तो लगभग 7 बजे तक घर पहुंच जाती हैं। लेकिन जरा सी देर हुई नहीं कि बेन्निगनहल्ली में लंबी कतार के बाद भीड़भाड़ भरी बस उनका इंतजार करती है। ऐसे में उन्हें कई बार बस छोड़ देनी पड़ती है।
वह कहती हैं, “शाम को तो बसें मिस भी कर सकती हूं, इसलिए थोड़ी राहत होती है। लेकिन सुबह की भाग-दौड़ में कोई चूक नहीं कर सकती।” घर पहुंचने के बाद भी उनका दिन खत्म नहीं होता। उन्हें अपने पति और दो बच्चों के लिए रात का खाना बनाना होता है। कई बार तो वह सुबह ही पूरा दिन का खाना तैयार कर देती हैं — जानती हैं कि सफर की थकावट शाम को उन्हें शायद रसोई में टिकने न दे।
गीता बताती हैंं, “मैं पीक ऑवर्स में सफर करती हूं और यह बहुत थका देने वाला होता है। हर कोई भाग रहा होता है। ओल्ड मद्रास रोड पूरी तरह जाम रहती है। ट्रैफिक रेंगता है। चार लेन हैं, फिर भी काफी नहीं हैं।”
यह कहानी सिर्फ एक महिला कर्मचारी की नहीं, बल्कि उस पूरी व्यवस्था की है जो आज भी कामकाजी लोगों, विशेषकर महिलाओं, की रोजमर्रा की जरूरतों को प्राथमिकता देने में नाकाम रही है।
ओल्ड मद्रास रोड (एनएच-4), जो बेंगलुरु को चेन्नई और अन्य शहरों से जोड़ती है और व्हाइटफील्ड जैसे प्रमुख आईटी हब तक पहुंचती है, कभी एक शांत सड़क मानी जाती थी। लेकिन अब यह अफरा-तफरी का गलियारा बन चुकी है। यहां ट्रैफिक जाम और खड़ी बसें उतनी ही आम हैं जितनी नई ऊंची इमारतें जो आसमान को छूती दिखती हैं।
बेंगलुरु में ही जन्मी और पली-बढ़ी गीता ने इस बदलाव को अपनी आंखों से देखा है। वह कहती हैं, “पहले इस सड़क पर जगह होती थी। अब तो चारों ओर अपार्टमेंट ही अपार्टमेंट हैं। और हर किसी के पास कार है। यह शहरीकरण पूरी रफ्तार पर है।"
इस थकाऊ और बिखरे हुए सफर से राहत पाने के लिए गीता अब अगली योजना बना चुकी हैं — अगले महीने से वह अपनी टू-व्हीलर से ऑफिस जाना शुरू करेंगी। यही है उनका “बचाव” इस रोजमर्रा की थकान भरी जद्दोजहद से।
वह मुस्कुरा कर कहती हैं, “स्कूटी से लगेंगे एक घंटा। लेकिन कम से कम बसें तो नहीं बदलनी पड़ेंगी,”
शहर की सार्वजनिक परिवहन प्रणाली की विफलता अब नागरिकों को फिर से निजी साधनों की ओर धकेल रही है — और यह बेंगलुरु जैसे ट्रैफिक से जूझते शहर के लिए एक और चेतावनी है।
गीता की योजना कोई अपवाद नहीं है। बेंगलुरु में अब कई शहरी यात्री सार्वजनिक परिवहन से मुंह मोड़ रहे हैं। न सिर्फ इसकी बढ़ती लागत के कारण, बल्कि इसकी असुविधाजनक और समय लेने वाली प्रकृति के चलते भी। एक ऐसा शहर जिसे ‘भारत की सिलिकॉन वैली’ और वैश्विक आईटी राजधानी कहा जाता है, वहां यह रुझान चिंताजनक है।
कर्नाटक परिवहन विभाग के आंकड़ों के अनुसार, 30 अप्रैल 2025 तक बेंगलुरु में 25.5 लाख (2.55 मिलियन) कारें पंजीकृत हैं। 2020–21 में यह आंकड़ा 20 लाख था। यानी चार वर्षों में शहर में कारों की संख्या में 27.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
डच नेविगेशन टेक्नोलॉजी फर्म टॉमटॉम के अनुसार, 2024 में बेंगलुरु भारत के सबसे ज्यादा ट्रैफिक ग्रिडलॉक वाले शहरों में सबसे ऊपर रहा। पीक ऑवर के दौरान औसत गति सिर्फ 18 किलोमीटर प्रति घंटे दर्ज की गई। लेकिन इसके बावजूद, निजी वाहन खरीदने की होड़ थमी नहीं।
यह परिदृश्य एक दुष्चक्र की ओर इशारा करता है कि सार्वजनिक परिवहन असुविधाजनक है, इसलिए लोग निजी वाहन खरीदते हैं। इससे ट्रैफिक और बढ़ता है और फिर सार्वजनिक परिवहन और भी सुस्त हो जाता है। इस चक्र को तोड़ना सिर्फ नीतियों की बात नहीं, बल्कि शहरी नियोजन की प्राथमिकताओं को फिर से तय करने की मांग करता है।
कारों के अलावा बेंगलुरु में टू-व्हीलर की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। 2020–21 में जहां यह संख्या 67 लाख थी, वहीं 30 अप्रैल 2025 तक यह बढ़कर 83 लाख हो चुकी है। कुल मिलाकर, शहर की सड़कों पर चलने वाले वाहनों की संख्या 2020–21 के 1 करोड़ (10 मिलियन) से बढ़कर अप्रैल 2025 में 1.24 करोड़ (12.4 मिलियन) हो गई है।
विशेषज्ञों का मानना है कि ये आंकड़े शायद वास्तविकता से भी कम हो सकते हैं, क्योंकि शहर में रहने वाले कई प्रवासी अपने वाहन को अपने गृहनगर में पंजीकृत करवाते हैं — इसकी एक बड़ी वजह कर्नाटक में देश के सबसे ऊंचे रोड टैक्स में से एक होना है।
आईआईएससी बेंगलुरु के प्रोफेसर और सस्टेनेबल ट्रांसपोर्टेशन लैब के संयोजक डॉ. आशीष वर्मा के अनुसार, कार और टू-व्हीलर की बढ़ती संख्या शहरी यात्रा की मांग और उस मांग को पूरा करने वाले बुनियादी ढांचे की आपूर्ति के बीच की गहरी खाई को दर्शाती है।
डॉ. वर्मा बताते हैं, “जब शहर की जनसंख्या और आर्थिक गतिविधियां तेजी से बढ़ती हैं, लेकिन सार्वजनिक परिवहन और सड़क नेटवर्क उसी गति से विकसित नहीं होते तो लोग निजी साधनों की ओर रुख करते हैं। यह न केवल ट्रैफिक को बढ़ाता है, बल्कि वायु प्रदूषण, समय की बर्बादी और जीवन की गुणवत्ता पर भी असर डालता है।”
बेंगलुरु का अनुभव हमें यह सिखाता है कि सिर्फ बुनियादी ढांचे का निर्माण नहीं, बल्कि परिवहन को समावेशी, किफायती और टिकाऊ बनाना भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत है।
बसें वहीं की वहीं, गाड़ियां दौड़ रहीं आगे
एक तरफ बेंगलुरु में निजी वाहनों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है, वहीं शहर में बसों की संख्या लगभग स्थिर बनी हुई है। बेंगलुरु मेट्रोपॉलिटन ट्रांसपोर्ट कॉर्पोरेशन, जो शहर में बस सेवाएं संचालित करता है, पिछले एक दशक में न तो अपने बेड़े का विस्तार कर पाया है, न ही बस यात्रियों की संख्या में कोई उल्लेखनीय वृद्धि कर सका है।
बीएमटीसी के आंकड़ों के अनुसार, 2011–12 में शहर में कुल 6,064 बसें थीं, जो अब बढ़कर केवल 6,835 हो पाई हैं। यानी इतने वर्षों में बसों की संख्या में केवल 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि इस दौरान शहर में वाहनों की कुल संख्या में 24 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हुई।
गिरती हवा की गुणवत्ता
निजी वाहनों में तेजी से वृद्धि का एक और गंभीर परिणाम है — बढ़ता ईंधन उपभोग और गिरती वायु गुणवत्ता। सरकार की कंप्रिहेंसिव मोबिलिटी प्लान 2020 के अनुसार, बेंगलुरु देश में दिल्ली के बाद दूसरा सबसे अधिक ईंधन खपत करने वाला शहर है। इंडियन ऑयल के आंकड़ों के अनुसार, बेंगलुरु में हर महीने औसतन 70,000 किलोलीटर पेट्रोल की खपत होती है।
इससे उत्सर्जन में भारी इजाफा होता है और बेंगलुरु जैसे घाटी शहर में यह प्रदूषण लंबे समय तक वातावरण में बना रहता है। नतीजतन, शहर की हवा लगातार जहरीली होती जा रही है।
शहर को अगर सचमुच 'स्मार्ट' और टिकाऊ बनाना है तो इसके लिए केवल तकनीकी समाधान नहीं, बल्कि सार्वजनिक परिवहन को प्राथमिकता देना, निजी वाहन निर्भरता को कम करना और पर्यावरणीय सोच के साथ शहरी नीति बनाना अनिवार्य हो गया है।
एक 2019 के शोध पत्र “एयर क्वालिटी, एमिशन एंड सोर्स कंट्रीब्यूशन एनालिसिस फॉर ग्रेटर बेंगलुरु रीजन ऑफ इंडिया" के अनुसार, बेंगलुरु में वायु प्रदूषण के सबसे बड़े स्रोत सड़क पर चलने वाले वाहन और सड़कों की धूल हैं।
इस अध्ययन में यह पाया गया कि पीएम2.5 (सूक्ष्म कणीय प्रदूषण) का 56 प्रतिशत हिस्सा वाहनों के धुएं से आता है। वहीं, पीएम10 (बड़े कणीय प्रदूषण) का 70 प्रतिशत हिस्सा सड़क की धूल और उसको दोबारा उड़ाने से उत्पन्न होता है।
इसका मतलब है कि शहर में जो हवा हम रोज सांस के जरिए भीतर लेते हैं, वह बड़ी हद तक गाड़ियों के धुएं और असमान्य सफाई व्यवस्था के कारण प्रदूषित हो रही है।
यह आंकड़े न सिर्फ परिवहन नीति की विफलता को उजागर करते हैं, बल्कि यह भी दर्शाते हैं कि जब तक बेंगलुरु निजी वाहनों की संख्या को नियंत्रित नहीं करता और सार्वजनिक परिवहन को सशक्त नहीं बनाता, तब तक वायु गुणवत्ता में स्थायी सुधार संभव नहीं है।
इस शोध को शहर के नीति-निर्माताओं के लिए चेतावनी की तरह देखा जाना चाहिए — और इसके आधार पर एक साफ, स्वस्थ और सुगम बेंगलुरु की दिशा में ठोस कदम उठाने चाहिए।
भले ही बेंगलुरु खुद को देश की सबसे तेजी से बढ़ती मेट्रो प्रणालियों वाले शहरों में गिनवाता हो, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी शहर के कई रिहायशी इलाके मेट्रो नेटवर्क से पूरी तरह कटे हुए हैं। 2008 में मेट्रो निर्माण की शुरुआत और 2011 में पहले चरण के शुरू होने के बाद भी 14 वर्षों में बेंगलुरु मेट्रो का कुल परिचालन नेटवर्क केवल 77 किलोमीटर तक ही पहुंच पाया है। इसके उलट, इसी अवधि में शहर की आबादी दोगुनी हो चुकी है।
आईआईएससी बेंगलुरु के प्रोफेसर आशीष वर्मा के अनुसार, “इस असंतुलन के चलते सार्वजनिक परिवहन की भारी कमी बनी हुई है।”
विलंब और गलत योजना से बढ़ा संकट
मेट्रो परियोजना में बार-बार होने वाली देरी ने न सिर्फ लोगों की उम्मीदों को तोड़ा है, बल्कि इससे ट्रैफिक जाम और भी बढ़ गए हैं। स्थानीय निवासी बताते हैं कि मेट्रो के कई प्रस्तावित रूट उनकी जरूरतों के हिसाब से नहीं बनाए गए हैं। कुछ मार्ग ऐसे इलाकों को जोड़ते ही नहीं, जहां से हजारों लोग रोजाना सफर करते हैं।
संसदीय रिपोर्ट ने भी किया था खुलासा
2022 में लोकसभा में प्रस्तुत की गई एक संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट ने बेंगलुरु मेट्रो की कम सवारियों पर सवाल उठाए थे। रिपोर्ट में बताया गया कि: मेट्रो की वास्तविक औसत दैनिक सवारी संख्या मात्र 96,000 थी, जबकि ब्रेक-ईवन (लागत-राजस्व संतुलन) के लिए औसतन 18.5 लाख (1.85 मिलियन) यात्रियों की आवश्यकता थी।
यह आंकड़े सिर्फ एक सेवा की विफलता नहीं दर्शाते, बल्कि किसी भी शहर की एक व्यापक योजना के संकट को उजागर करते हैं। जहां तेजी से फैलते शहर को सार्वजनिक परिवहन के बुनियादी ढांचे के बिना ही आगे बढ़ा दिया गया। बेंगलुरु के लिए यह एक स्पष्ट संकेत है कि टिकाऊ और समावेशी शहरी गतिशीलता (अर्बन मोबिलिटी) के बिना स्मार्ट सिटी का सपना अधूरा ही रहेगा।
सार्वजनिक परिवहन: निराशा का सबब
साईं कृष्ण टट्टा और प्रेम कुमार, दोनों सरकारी कर्मचारी और बेंगलुरु के अलग-अलग इलाकों में रहते हैं। उनके लिए रोजाना ऑफिस जाने का सफर एक आम दिनचर्या नहीं, बल्कि एक जंग है। दोनों के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उनके इलाकों से चलने वाली मेट्रो लाइनें सीधे उनके ऑफिस तक नहीं जातीं। बल्कि, उन्हें पहले अपने गंतव्य से दूर ले जाया जाता है और फिर वहां से वापस लूप बनाकर आना पड़ता है — इस प्रक्रिया में कई बार लाइन बदलनी पड़ती है।
साईं कृष्ण टट्टा, जो शहर के दक्षिण-पूर्वी हिस्से एचएसआर लेआउट में रहते हैं, बताते हैं कि वह 14 किलोमीटर की दूरी कार से ही तय करते हैं क्योंकि सार्वजनिक परिवहन में बेहतर विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। एचएसआर लेआउट से विघाना सौधा के लिए कोई सीधी मेट्रो नहीं है। प्रस्तावित मेट्रो लाइन पूरी होने के बाद भी उन्हें दो-तीन बार ट्रेन बदलनी पड़ेगी। पहले मेट्रो लाइन पर जाना होगा जो ऑफिस से दूर जाती है, फिर दूसरी-तीसरी लाइन पर स्विच करना होगा। यह कोई व्यावहारिक समाधान नहीं है।
इस तरह के फंसे हुए और जटिल परिवहन विकल्प शहरी यात्रियों के लिए निराशा बढ़ाते हैं और लोगों को निजी वाहन के इस्तेमाल के लिए मजबूर करते हैं। जो शहर के ट्रैफिक और प्रदूषण की समस्या को और बढ़ाता है।
वह अपनी कार खुद चलाते हैं और अक्सर दो-तीन साथियों के साथ कारपूल करते हैं। इस तरह उनका रोजाना ऑफिस आने-जाने का औसत समय लगभग एक घंटा होता है, कभी-कभी यह एक घंटे से डेढ़ घंटे तक भी पहुंच जाता है।
कुछ ऐसे हिस्से हैं, जैसे होसूर रोड का एक विशेष मार्ग, जो शहर के कई आईटी कंपनियों तक पहुंचने वाला प्रमुख रास्ता है, जहां वह केवल 100 मीटर की दूरी तय करने में भी लगभग 10 मिनट फंसे रहते हैं। वह बताते हैं कि यहां अराजकता का माहौल है। तीन लेन वाली सड़क बॉटलनेक और नियम तोड़ने के कारण दो लेन रह जाती है।
दरअसल टॉमटॉम की रिपोर्ट के अनुसार 2024 के वैश्विक ट्रैफिक इंडेक्स में बेंगलुरु का ट्रैवल टाइम के लिहाज से तीसरा सबसे धीमा शहर है, जो केवल कोलंबिया के बारैंक्विला और भारत के कोलकाता से पीछे है।
उन्होंने माना कि अपनी खुद की कार से आना-जाना आदर्श समाधान नहीं है, लेकिन कम से कम उसे नियंत्रण तो रहता है। शहर की बसें भीड़ से भरी होती हैं और वे समय की पाबंदी नहीं करतीं।
अपनी झुंझलाहट साफ जाहिर करते हुए उन्होंने कहा, “बस से जाने में मुझे डेढ़ घंटे लगते हैं और सीट मिलना बहुत कम होता है। रास्ते बिल्कुल दुःस्वप्न जैसे हैं, और बस ड्राइवर गड्ढों के बीच तेजी से चलते हैं। तीन घंटे रोजाना खड़े रहने का दर्द सचमुच बहुत होता है। फिर सुबह-शाम ऑटो वालों से मोलभाव भी करना पड़ता है। यह सब मानसिक तनाव बहुत बढ़ा देता है।”
प्रेम कुमार श्रीरामोजु, जो शहर के उत्तरी इलाके येलहंका में रहते हैं और बाइक से ऑफिस जाते हैं, टट्टा की ही निराशाओं को साझा करते हैं। वे सुबह 9 बजे घर से निकलते हैं और लगभग 10:15 बजे पहुंचते हैं। उनके लिए सार्वजनिक परिवहन बस एक दूर का सपना है। उन्होंने बताया, “मेरे इलाके से प्रस्तावित मेट्रो स्टेशन 5-6 किलोमीटर दूर है। और उस मेट्रो लाइन का नक्शा भी ऐसा है कि यह पहले मेरी मंजिल के बिल्कुल उलट दिशा में जाता है।”
दोनों की कहानी बेंगलुरु की उस बड़ी समस्या की ओर इशारा करती है, जहां तेजी से बढ़ते शहर के लिए सार्वजनिक परिवहन नेटवर्क न सिर्फ अधूरा है, बल्कि यात्रियों की जरूरतों के मुताबिक भी डिजाइन नहीं किया गया।
बेंगलुरु ने महिलाओं के लिए मुफ्त बस यात्रा जैसे कदम उठाए हैं और ‘स्मार्ट’ योजनाओं की शुरुआत भी की है, लेकिन गति और सुगमता का बुनियादी वादा लगातार टूटता जा रहा है।
शहर के निवासियों की इस स्थिति को सबसे बेहतर तरीके से समझाती हैं गीता की यह बात, “मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपनी पूरी जिंदगी बस सफर करते हुए ही बिता रही हूं।”
यह शब्द बेंगलुरु की ट्रैफिक और सार्वजनिक परिवहन की उस जटिलता और थकान को बयां करते हैं, जो लाखों शहरवासियों की रोजमर्रा की जिंदगी पर गहरा असर डाल रही है।