भारत में आवाजाही: आठ पावर प्लांट व 11 कोयले खदानों वाले सिंगरौली की सड़कों पर साइकिल चलाना तक मुश्किल
चिंतामणि (51 वर्ष) साइकिल पर कपड़े का गट्ठर रखा हुआ है। वह साइकिल से उतर कर पैदल-पैदल आगे बढ़ रहे हैं। पूछने पर बताते हैं कि सड़क पर जाम इतना है कि साइकिल लगातार नहीं चला सकते, इसलिए वह किनारे-किनारे पैदल ही साइकिल खींच रहे हैं।
भारत के शहरों में आवाजाही की पड़ताल करने के लिए डाउन टू अर्थ की टीम कई बड़े शहरों का सफर कर रही है। इसी कड़ी में डाउन टू अर्थ संवाददाता जब मध्य प्रदेश के शहर सिंगरौली पहुंचे तो सिंगरौली की ज्यादातर सड़कों पर जाम दिखा।
इस जाम का कारण है सिंगरौली में स्थित 8 पॉवर प्लांट और 11 कोयले की खदानों में आने जाने वाले ट्राला व ट्रक। सड़क पर 24 से 36 पहियों वाले बड़े-बड़े ट्राले सातों दिन चौबीसों घंटे दौड़ते हैं।
चिंतामणि कहते हैं, “ऐसे में यदि आपको अपनी जान प्यारी है तो सड़क से उतर कर धीरे-धीरे पैदल चलने में ही भलाई है।” जिले में हर 48 घंटे के दौरान हुई सड़क दुर्घटनाओं में एक वाहन चालक की मौत हो जाती है।
यह बात आरटीआई (सूचना का अधिकार) कार्यकर्ता सुरेश कुमार ने डाउन टू अर्थ को बताई। कुमार ने बताया कि उन्होंने सूचना अधिकार अधिनियम के तहत पिछले दस साल (2016 से 2025) में हुई सड़क दुर्घटनाओं की जानकारी मांगी थी।
इन आंकड़ों के मिलने के बाद इसकी गणना करने के बाद यह बात सामने आई कि दो दिन में औसतन एक व्यक्ति की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है। क्षेत्रीय परिवहन कार्यालय (आरटीओ) द्वारा जारी आंकड़ों से पता चलता है कि 2017 से लेकर गत 2024 तक सड़क दुर्घटनाओं में लगातार बढ़ोतरी दर्ज की गई है। 2017 में जहां 163 लोगों की मौत हुई थी, वहीं 2024 में यह संख्या बढ़कर 285 पहुंच गई। 2025 के फरवरी तक यह आंकड़ा 39 तक जा पहुंचा है।
चिंतामणि कहते हैं, “यह जाम और मौत के डर जैसी स्थिति आज से दस साल पहले नहीं थी। अब यह दिन-ब-दिन और भयावह होती जा रही है।” वह बताते हैं कि जैसे-जैसे पॉवर प्लांट लगते जा रहे हैं तो उसी रफ्तार से बड़े ट्रालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।
पहले उन्हें अपनी गुमटी (छोटी दुकान) तक पहुंचने पर बमुश्किल से दस से पंद्रह मिनट ही लगते थे और अब उन्हें लगता है लगभग एक से सवा घंटा। हालांकि उनके घर से और काम की जगह की दूरी बहुत अधिक नहीं है। बस तीन किलोमीटर दूर ही है, लेकिन यह दूरी तय करने में उनकी बहुत सारी ऊर्जा चली जाती है।
पेशे से वह दर्जी हैं। जिले में कितने लोग साइकिल चलाते होंगे? इस सवाल पर वह कहते हैं कि जिले का तो पता नहीं लेकिन मेरे संयुक्त परिवार में आज से 15 साल पहले 24 साइकिलें हुआ करती थीं और अब केवल मेरी साइकिल ही बची है। हालांकि वह कहते हैं कि साइकिल की संख्या कम हुई लेकिन अब हमारे घर में 16 बाइक आ गई हैं।
जिले में बाइक की संख्या में पिछले एक दशक के दौरान बेतहाशा तेजी आई है। इसका कारण बताते हुए सुरेश कुमार कहते हैं कि यहां पर आए दिन पॉवर प्लांट के नए-नए खिलाड़ी अपना प्लांट लगाने आ रहे हैं। इसके लिए उन्हें जमीन चाहिए होती है। ऐसे में विस्थापित होने वाले परिवार को मुआवजे की अच्छी-खासी रकम मिल जाती है और वह इससे सबसे पहले बाइक ही खरीदते हैं। जिले में बाइक की संख्या मे बढ़ोतरी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिले में वाहनों की नौ श्रेणी में बाकी सारे वाहनों की संख्या तीन अंकों में ही सिमटी हुई है, लेकिन बाइक की संख्या पिछले कुछ सालों से चार अंकों में बनी हुई है।
क्षेत्रीय अखबार के संपादक दिवाकर द्विवेदी बताते हैं कि यहां बाइक की संख्या भले ही तेजी से बढ़ रही हो लेकिन यहां एक अजीब तरह का विरोधाभास है। वह बताते हैं कि हर मुआवजा पाने वाला बाइक जरूर खरीदता है लेकिन उनमें से चालीस प्रतिशत को बाइक चलानी नहीं आती है। ऐसे में वे बाइक चलाने के लिए ड्राइवर रखते हैं। इसलिए यहां आप अक्सर देखेंगे कि बाइक सवार अकेले नजर कम ही आएगा क्योंकि एक तो ड्राइवर होता है और दूसरा उसका मालिक। वह बताते हैं कि पास में बगइया गांव तो ऐसा है जहां, सौ प्रतिशत बाइक ड्राइवरों द्वारा ही चलाई जाती है। हालांकि वे कहते हैं कि जो लोग ड्राइवर रखते हैं वे बाइक चलानी सीखने की कभी कोशिश भी नहीं करते हैं।
निजी क्षेत्र की कंपनी में कार्य करने वाली गायत्री सिंह कहती हैं कि मैं इस शहर में पिछले चालीस सालों से रह रही हूं। मेरे घर से मेरे कार्यालय के बीच की दूरी कुल जमा दो किलीमीटर ही है। लेकिन इस दूरी को तय करने में मुझे डेढ़ घंटे से अधिक लग जाते हैं।
पहले गायत्री यहां चलने वाली सिटी बस से आती-जाती थीं। लेकिन इनकी संख्या कुल चार ही है और इसमें भी दो हमेशा खराब ही रहती हैं। जैसे-जैसे विस्थापितों की संख्या में इजाफा होते गया सिटी बसों में और अधिक भीड़ होने लगी।
सिटी बसों का संचालन सिंगरौली नगर निगम करता है। कुछ समय पहले तक सिटी बसों की संख्या 13 थी, लेकिन अब यह घटकर 4 रह गई है।
ऐसे में वह शेयर आटो से आने-जाने लगी। लेकिन उनको वहां भी अधिक भीड़ के कारण दिक्कत होने लगी। साथ ही आने-जाने में अधिक समय लगने लगा। आखिरकार वह मजबूर होकर पैदल ही आने लगीं। लेकिन यह दो किलोमीटर की दूरी तय करने में भी उन्हें एक से डेढ़ घंट लग जाते हैं क्योंकि मुख्य सड़क पर बड़े-बड़े ट्राला सबसे अधिक जाम का कारण बनते हैं
जिले में कनेक्टिविटी बहुत अच्छी नहीं होने के कारण बड़ी संख्या में बाहरी वाहनों का भी यहां आना-जाना बना रहता है। इस संबंध में मध्य प्रदेश खनिज निगम के पूर्व अध्यक्ष भुवनेश्वर सिंह कहते हैं कि सरकार ऐसे स्थानों पर एयरपोर्ट बना रही है जहां सवारियां न के बराबर हैं, लेकिन यहां पर अच्छी खासी सवारी होने के बावजूद अब तक एक अच्छा एयरपोर्ट नहीं बन सका है। इसके कारण लोगों को या तो प्रयागराज जाना पड़ता है या वाराणसी। यहां से इन दोनों स्थानों की दूरी दो सौ किलोमीटर से अधिक है।
शहर में वायु प्रदूषण का मुख्य कारण वाहन हैं, लेकिन पूरे जिले में वायु प्रदूषण का कारण पॉवर प्लांट और कोयला खदानें ही हैं। जिले के पूर्व क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी (आरटीओ) एसपी दुबे ने डाउन टू अर्थ को बताया कि वास्तव में जिले में 95 प्रतिशत वायु प्रदूषण पॉवर प्लांट व कोयले की खदानों से होता है और वाहनों से केवल पांच प्रतिशत वायु प्रदूषण ही होता है। ध्यान रहे कि शहरी क्षेत्र में ही अधिकांश कोयला खदानें आती हैं। जिले में स्थित पॉवर प्लांट तमाम सरकारी दिशा-निर्देशों का सही से पालन नहीं करते हैं। जैसे कि प्रदूषण विभाग से मिली जानकारी के अनुसार पॉवर प्लांट में एसओ-टू का उत्सर्जन कम करने व वायु गुणवत्ता बनाए रखने के लिए फ्लू गैस डिसल्फराइजेशन (एफजीडी) लगाने का निर्देश है। इसके तहत अभी केवल एनटीपीसी विंध्याचल में यूनिट 12 व 13 में एफजीडी लग सका है, शेष 11 यूनिटों को जून 2025 तक का मौका दिया गया है। इसी प्रकार निजी पॉवर प्लांट को दिसंबर 2026 तक समय दिया गया है। इसके अलावा एनसीएल की कोयला खदानों में ऑटोमैटिक व्हील वॉशिंग सिस्टम स्थापित करने का निर्देश था। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रीय कार्यालय से मिली जानकारी के अनुसार 11 कोयला खदानों में से अब तक सिर्फ खड़िया, निगाही, जयंत व ब्लॉक-बी में ही यह सिस्टम लग सका है।
ऐसा नहीं है कि जिले के पॉवर प्लांट से वायु प्रदूषण को कम करने की कवायद केवल सरकारी स्तर पर ही हो रही है बल्कि जिले में वायु प्रदूषण फैलाने वाली सभी इकाइयों के खिलाफ आरटीआई कार्यकर्ता सुरेश कुमार ने 2020 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में एक याचिका दायर की थी। इस संबंध में सुरेश कुमार ने बताया कि उस याचिका के दायर करने के पांच साल बाद अब एनजीटी ने जिले के 323 सरकारी महकमों को नोटिस जारी किया है कि अब इनको बुलाकर सुनवाई की जाएगी। इस पर सुरेश का कहना है कि यह केवल भ्रमित करने का प्रोपेगेंडा है। वह सवाल उठाते हुए कहते हैं कि इतने सरकारी महकमों की कब सुनवाई होगी और कब उसका फैसला आएगा? वह निराशा भरे स्वर में कहते हैं कि मुझे तो नहीं लगता कि मेरे जीते जी इसका फैसला हो पाएगा।
जिले में इस भयावह वायु प्रदूषण के कारण स्थानीय लोगों को कई प्रकार की बीमारियों से जूझना पड़ रहा है। जिला अस्पताल में पदस्थ डॉक्टर संतोष कुमार बताते हैं कि यहां पर सबसे अधिक बीमारी पुरुषों में स्टोन (पथरी) की है, वहीं ज्यादातर महिलाएं डायबिटीज की परेशानी से जूझ रही हैं। इसका कारण पूछने पर वह कहते हैं कि महिलाओं को इतनी जगह नहीं मिल पाती है कि वह ठीक से घूम-फिर सकें। कॉलोनियों में बने घरों की बनावट इतनी छोटी होती है कि महिलाओं की चहलकदमी न के बराबर होती है।
वहीं भीषण रूप से झेल रहे जिले के लोगों के स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इसके लिए एक अध्ययन फरवरी 2025 से शुरू हुआ था। वह अब भी जारी है। यह अध्ययन अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) भोपाल की इंस्टीट्यूशनल ह्यूमन एथिक्स कमेटी द्वारा किया जा रहा है। एम्स की यह टीम जिले में संचालित पॉवर प्लांट व कोयला खदानों के आसपास रहने वाले लोगों का समय-समय पर सैंपल व आंकड़े एकत्रित करती है। टीम विशेष रूप से सांस संबंधी रोग, त्वचा रोग, नेत्र रोग और पाचन तंत्र संबंधी रोगों का आंकलन करेगी। ध्यान रहे कि यह अध्ययन एम्स भोपाल की एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर नेहा आर्या के नेतृत्व में किया जा रहा है।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश को उजाला करने वाला यह जिला स्वयं ही विकास की अंधेरी गुफाओं में धीरे-धीरे गुम होते जा रहा है।
यह स्टोरी हमारी खास सीरीज भारत में आवाजाही का हिस्सा है, जो शहरों और कस्बों में वायु गुणवत्ता और लोगों की आवाजाही (परिवहन सेवाओं) के बीच संबंधों पर फोकस है। पूरी सीरीज पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें