आवरण कथा, थमती हवाएं: जाने कहां गए वो धूल भरे अंधड़?

राजस्थान से लेकर सहारा तक के रेगिस्तानी इलाकों में बदलती हवाओं ने धूल भरी आंधियों पर भी असर डाला है
आवरण कथा, थमती हवाएं: जाने कहां गए वो धूल भरे अंधड़?
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बीकानेर में 20 साल पहले ऐसी आंधी आई कि पूरा शहर और आसपास के इलाके में अंधेरा छा गया। अजीज भुट्टा तब हिंदी दैनिक समाचार पत्र राजस्थान पत्रिका में फोटो पत्रकार थे। उन्हें आज भी वह आंधी याद है, वह इतनी काली, पीली व घनी थी कि लगा पूरा शहर में धूल के गुब्बारे में समा गया हो। अखबार के लिए उन्होंने जो तस्वीरें खींची। उन तस्वीरों को बहुत सराहा गया। उन्हें इंटरनेशनल इफ्रा एशिया सहित कई अवार्ड मिले। अजीज तब से लेकर अब तक हर साल आने वाली आंधी की तस्वीरें खींचते हैं। वह कहते हैं कि अप्रैल से जून के बीच बीकानेर व आसपास के इलाकों में आंधियां आती रहती हैं, लेकिन अब ‘वो’ बात नहीं रही। मतलब, अब आंधियों की संख्या कम हो गई है और बल्कि उनका असर भी।

अजीज कहते हैं कि बीकानेर में इमारतें बहुत बन गई हैं। नहरों की संख्या बढ़ने के कारण ग्रामीण इलाकों में भी खेती और हरियाली बढ़ गई है। हवा आती है, लेकिन रेत न होने के कारण धूल भरी आंधी में तब्दील नहीं हो पाती। पिछले साल बहुत तेज तूफान (बिपरजॉय) आया था, कई साल बाद ऐसा तूफान देखा गया। वह ठीक से याद करते हुए कहते हैं कि इस साल तीन या चार बार आंधी आई, परंतु असर उतना नहीं था, जितना पहले होता था।

हवा में आ रहे बदलावों का सामना न केवल राजस्थान बल्कि दुनिया के लगभग सभी रेतीले इलाके कर रहे हैं। राजस्थान में पिछले कई दशकों में आंधियों की संख्या घटी है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान से संबद्ध केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान के प्रधान वैज्ञानिक पीसी मोहराणा के एक अध्ययन के मुताबिक हवा की ताकत में भारी गिरावट आई है, जिसके चलते धूल भरी आंधियों की संख्या औसतन सालाना 17 से घटकर पांच रह गई है। पूरे राज्य में 1970 से 2013 के बीच रेत के टीलों में 16 प्रतिशत की गिरावट आई है। पश्चिमी राजस्थान में मरुस्थलीकरण यानी रेगिस्तानी क्षेत्र घटा है। मोहराणा के मुताबिक पश्चिमी राजस्थान में 1992 में 1,91,218 वर्ग किलोमीटर (91.6 प्रतिशत) क्षरित भूमि थी, जो 2003-05 में घटकर 1,76,418 (83.85 प्रतिशत) व 2011-13 में 1,66,692 (79.8 प्रतिशत) रह गई और यहां हवा के कटाव का खतरा क्षेत्र 2000 में 76 प्रतिशत की तुलना में 2013 में 73 प्रतिशत तक कम हो गया है।

आंधियों की संख्या घटने के कई कारण हैं। इनमें से एक रेिगस्तानी क्षेत्र में कमी आना भी है। साल 2000 से 2013 के बीच राजस्थान में लगभग 99,092 हेक्टेयर भूमि की हालत में सुधार आया। मोहराणा ने डाउन टू अर्थ से कहा, “जलवायु परिवर्तन के कारण राजस्थान में बारिश बहुत हो रही है। साथ ही, जल संचयन के स्थानीय प्रयासों व नहरी पानी का बेहतर प्रबंधन के हरियाली व वनस्पति बढ़ गई है। नमी बढ़ने से जमीन का सतही तापमान(एलएसटी) कम हो रहा है। इसके अलावा हवा के पैटर्न में भी बदलाव आया है, हालांकि यह स्थानीय कारणों से नहीं बल्कि वैश्विक कारणों से हो रहा है। यह सब राजस्थान के लिए बिल्कुल असमान्य है”। हालांकि जहां राजस्थान में मरुस्थलीकरण कम हो रहा है, वहीं आसपास के राज्यों में मरुस्थलीकरण बढ़्ा है। इनमें गुजरात, पंजाब, हरियाणा में शुष्क क्षेत्र बढ़ रहा है।

राजस्थान में धूल भरी आंधी का लंबा इतिहास है। स्वयंसेवी संगठन तरूण भारत संघ से जुड़े 65 वर्षीय चतर सिंह जाम जैसलमेर के रामगढ़ के रहने वाले हैं। वह राजस्थान की रेगिस्तानी पारिस्थितिकी की अच्छी समझ रखते हैं। जाम ने डाउन टू अर्थ से कहा, “हमारे राजस्थान में दो तरह की आंधी चलती हैं। एक दक्षिण पश्चिम से आती है और दूसरी उत्तर से। उत्तर से आने वाली आंधी को स्थानीय लोग काली-पीली आंधी कहते हैं। इसकी चौड़ाई 150 से 200 किलोमीटर हुआ करती है। हवा की गति 40 से 50 किलोमीटर प्रति घंटा होती है। यह आंधी गुजर तो जाती थी, लेकिन हमारे पूरे घर में ऐसी मिट्टी जम जाती है, जिसे हम “पुड़पुड़ मिट्टी” कहा करते हैं। यह मिट‌्टी पाउडर जैसी होती थी, जिसका रंग काला-पीला होता है। यह आंधी पाकिस्तान के पंजाब व सिंध इलाके से आती है। यह बहुत डरावनी होती थी, इससे बुजुर्गाें व कमजोर लोगांे को खांसी शुरू हो जाती है और दमे के मरीजों के लिए तो यह आंधी जानलेवा तक हो जाती है”।

दूसरी तरह की आंधी दक्षिण पश्चिम से आती है। जो कच्छ-भुज की ओर से समुद्र की रेत लेकर आती है। इस आंधी से लोगों को परेशानी कम होती है। इस आंधी की गति शुरू में 35 से 40 किलोमीटर प्रति घंटा होती है, लेकिन घरों में रेत ज्यादा समय नहीं टिकती। जाम कहते हैं कि अब काफी बदलाव आ गया है। जाम ने कहा, “जब मैं जवान था, यानी 30-35 साल पहले तक हर साल काली-पीली आंधी या अंधड़ आया करता था। लेकिन धीरे-धीरे इसमें कमी आई और अब तो तीन-चार साल में एक बार ही आता है। इसी तरह दक्षिण पश्चिम से आने वाली आंधी अप्रैल से जून के बीच 20 से 25 दिन चलती थी। लेकिन अब इसमें काफी कमी आ गई है। इस साल यानी 2024 में तो मात्र चार दिन ही यह आंधी चली”।

आंधी में कमी के कारणांे को लेकर स्थानीय लोगों की समझ भी वैज्ञानिकों जैसी ही है। जाम बताते हैं, “मेरी उम्र 65 साल हो चुकी है। इस उम्र में पिछले कुछ सालों से बड़ी तेजी से बदलाव होते देख रहा हूं। मौसम काफी बदल गया है। पहले हमारे जैसलमेर में बारिश बहुत कम हुआ करती थी, लेकिन अब इतनी बारिश होती है कि जलजमाव होने लगा है। तापमान का पैटर्न भी बदल रहा है। कभी ज्यादा हो रहा है तो कभी सामान्य से बहुत कम। यही हाल आंधी का भी है। अंधड़ कम होने का एक कारण यह भी है कि बसावट के आसपास हरियाली अधिक हो गई है, इसलिए हवाएं चलती भी हैं तो आंधी का रूप नहीं ले पाती। ऐसा पिछले 25-30 साल से लगातार बढ़ रहा है”।

दुनिया के 17वें सबसे बड़े रेिगस्तानी क्षेत्र में न केवल धूल भरी आंधियां कम हुई हैं, बल्कि बवंडर में भी कमी आई है। बवंडर यानी बहुत तेजी से आता हवा का झोंका चक्कर खाते हुए आसमान की ओर उठता है और अपने साथ मिट्टी या रेत को ऊपर ले जाता है। हनुमानगढ़ के 55 वर्षीय फ्रीलांस जर्नलिस्ट अमरपाल सिंह वर्मा कहते हैं कि अप्रैल से जून के बीच अकसर ऐसे मौके आते थे, जब बवंडर की वजह से लोग जहां हैं, वहीं खड़े रह जाते थे। बचपन में हमें लगता था कि जो बवंडर में फंस गया तो वह लापता हो जाता है, इसलिए बवंडर से बहुत डरते थे। अब इनकी संख्या काफी कम हो गई है। बल्कि किसी साल तो एक भी बवंडर नहीं आता और कभी-कभार आता भी है तो खुले रेतीले मैदानों में दिख जाता है। वह भी मानते हैं कि क्षेत्र में हवा की गति में बदलाव आया है, इस पर व्यापक अध्ययन किया जाना चाहिए।

दुनिया की आबादी का पांचवां हिस्सा शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में रहता है। पृथ्वी पर स्थित सभी गर्म रेगिस्तानों में से सहारा को सबसे बड़ा एवं सबसे शुष्क स्थान माना जाता है। राजस्थान जैसा ही असर सहारा पर भी देखा जा रहा है। यहां पिछले कुछ सालों में भारी बारिश की घटनाएं बढ़ी हैं। जलवायु परिवर्तन व ग्लोबल वार्मिंग के बड़े शिकार के तौर पर सहारा को देखा जाता है। हवाएं हर साल सहारा रेगिस्तान से अनुमानित 10 करोड़ टन धूल उठाती हैं , और इसका एक बड़ा हिस्सा उत्तरी अटलांटिक महासागर में उड़ जाता है। सहारा रेगिस्तान अब तक धरती पर हवा में उड़ने वाली धूल का सबसे बड़ा स्रोत है, और यहां धूल भरे तूफान साल के किसी भी समय चल सकते हैं। लेकिन जून 2022 में इसमें एक नया परिवर्तन देखने को मिला। नासा की अर्थ ऑब्जर्वेटरी वेबसाइट पर प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक जून 2022 की शुरुआत में सहारा से धूल की एक नई आपूर्ति हवाई मार्ग से लाई गई थी, और ऐसा लग रहा था कि इसमें से कुछ अमेरिका की ओर जा रही है। धूल का यह गुबार फ्लोरिडा, टेक्सास और अन्य दक्षिणी अमेरिकी राज्यों तक पहुंच गया और पूरे इलाके में अंधेरा छा गया। रिपोर्ट के मुताबिक गर्मियों में धूल भरी आंधी आमतौर पर वायुमंडल में मिट्टी, धूल कणों को ऊपर ले जाती हैं। यह आंधी हजारों किलोमीटर जैसे अफ्रीका से कैरिबियन और मैक्सिको की खाड़ी तक जा सकती है, लेकिन दक्षिणी अमेिरका तक पहुंचने की घटना पहली बार घटी। ऐसा ही कुछ अप्रैल 2024 को हुआ। सहारा से उठी धूल हजारों मील दूर ग्रीस के एथेंस तक पहुंच गई, जिसके परिणामस्वरूप वहां सब कुछ लाल-नारंगी रंग का हो गया।

कोपरनिकस एटमोस्फेयर मॉनिटरिंग सर्विस (सीएएमएस) द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में वरिष्ठ वैज्ञानिक मार्क पैरिंगटन ने कहा: “सहारा की यह नवीनतम घटना पिछले दो सप्ताहों में अपनी तरह की तीसरी घटना है और यह मौसम के पैटर्न से संबंधित है, जिसके कारण हाल के दिनों में पश्चिमी यूरोप में मौसम गर्म रहा। पिछली दो घटनाएं मुख्य रूप से भूमध्य सागर और दक्षिणी यूरोप में हुई थीं, हालांकि इसका कुछ प्रभाव स्कैंडिनेविया के उत्तर में भी दिखा। सहारा के धूल के गुबार का यूरोप तक पहुंचना असामान्य नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में ऐसी घटनाओं की तीव्रता और आवृत्ति में वृद्धि हुई है, जिसे संभवतः वायुमंडल के सर्कुलेशन पैटर्न में बदलाव के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।”

इतनी भी बुरी नहीं होती आंधी

बेशक धूल भरी आंधी न चलने पर स्थानीय लोग राहत की सांस लेते हैं, क्योंकि इससे जहां भवनों व सामान का नुकसान होता है, वहीं इंसानों के फेफड़ों के अलावा शरीर के अन्य हिस्सों पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। बावजूद इसके, रेगिस्तानी व सहारा क्षेत्र में आंधियों के चलने के फायदे भी हैं। जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरमेंटल साइंसेज के पूर्व डीन उमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि वायुमंडलीय धूल की प्रचुरता को एक वरदान भी माना जा सकता है, क्योंकि यह भारतीय वायुमंडल में अम्लीकरण को नियंत्रित करती है। कैल्शियम कार्बोनेट से भरपूर मिट्टी की धूल वातावरण में कैल्शियम सल्फेट बनाने वाले सल्फर डाइऑक्साइड स्कैवेंजर के रूप में कार्य करती है। कुलश्रेष्ठ अप्रैल 2015 में वायुमंडलीय धूल के महत्व पर प्रकाशित रिसर्च पेपर इंपोर्टेंस ऑफ एटमोस्फेरिक डस्ट इन इंडिया: फ्यूचर स्कोप ऑफ रिसर्च के प्रमुख लेखक हैं।

वायुमंडलीय धूल विकिरण बल में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कुलश्रेष्ठ ने डाउन टू अर्थ से कहा, “धूल भरी आंधियों पर किए गए कुछ अध्ययनों ने पृथ्वी की सतह के ठंडा होने को कुछ हद तक ग्रीनहाउस गैसों के गर्म होने के प्रभाव को कम करने की बात मानी है, इसलिए, वायुमंडलीय धूल इस क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक प्राकृतिक भू-इंजीनियरिंग उपकरण है।” वह कहते हैं कि पश्चिमी भारत और पूर्वी पाकिस्तान में स्थित थार रेगिस्तान भारतीय उपमहाद्वीप में धूल के गुबारों का प्राथमिक संभावित स्रोत है। हालांकि कुछ अध्ययनों में ओमान और अन्य मध्य पूर्वी क्षेत्रों से भी धूल भरी आंधी के उत्पन्न होने की बात कही गई है। कुलश्रेष्ठ सलाह देते हैं कि क्षेत्रीय जलवायु परिवर्तन की वजह से आंधियों पर पड़ रहे असर के लिए व्यापक अध्ययन किया जाना चाहिए।

जर्मनी की समाचार प्रसारण सेवा डीडबल्यू में प्रकाशित एक लेख में बार्सिलोना सुपरकंप्यूटिंग सेंटर के रेत और धूल विशेषज्ञ कार्लोस पेरेज गार्सिया पांडो के हवाले से कहा गया, “धूल लगभग पृथ्वी जितनी ही पुरानी है। धूल हमेशा एक बुरी चीज नहीं होती: उदाहरण के लिए, यह जंगलों और महासागरों के लिए एक तरह के पोषक तत्व के रूप में काम करती है, जिससे उन्हें लोहा और फास्फोरस मिलता है”। इसका आशय है कि धूल भरी आंधियों का भी एक पारिस्थितिक महत्व है।

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