सांसों का आपातकाल : वायु प्रदूषण के कारण गंगा के मैदानी भाग में कम हो रहा जीवन

सीएसई की नई किताब "सांसों का आपातकाल" के दूसरे अध्याय में वायु प्रदूषण के कारण शिशुओं के सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का विश्लेषण
गंगा के निचले मैदानी इलाके
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अप्रैल 2022 में साइंस ऑफ द टोटल एनवायरनमेंट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन से पता चलता है कि पीएम 2.5 और शिशु, नवजात और प्रसव के तुरंत बाद मृत्यु दर के बीच संबंध हैं। अध्ययन इस बात का सबूत देता है कि पीएम 2.5 की वजह से नवजात मृत्यु दर एवं शिशु मृत्यु दर प्रभावित होती है। जर्मनी के हीडलबर्ग विश्वविद्यालय और फ्रांस के रेनेस विश्वविद्यालय के जर्नल ऑफ एनवायरमेंटल इकोनॉमिक्स एंड मिर्जामिर में प्रकाशित अपने अध्ययन में इस बारे में स्पष्ट तौर पर बताया गया है। मई 2022 में प्रकाशित इस शोध के अनुसार, यदि औसत प्रदूषण स्तर को विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक तक कम कर दिया जाए, तो भारत में अविकसित और गंभीर रूप से अविकसित बच्चों में क्रमशः 10.4 और 5.17 प्रतिशत कमी आएगी।

पॉपुलेशन काउंसिल, नई दिल्ली और इंटरनेशनल डेवलपमेंट डिपार्टमेंट, यूनिवर्सिटी ऑफ बर्मिंघम, यूके ने एक व्यापक अध्ययन किया, जिसकी रिपोर्ट जुलाई 2020 में बीएमजे ग्लोबल हेल्थ जर्नल में प्रकाशित हुई। इस अध्ययन के अनुसार, पीएम 10 के संपर्क से न सिर्फ बच्चों पर, बल्कि गर्भवती महिलाओं पर भी असर पड़ता है और समय से पहले प्रसव का खतरा बढ़ जाता है। पीएम 10 के स्तर में हर 10 यूनिट की बढ़ोतरी से नवजात मृत्यु दर की आशंका 6 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

बच्चों के स्वास्थ्य पर पीएम 2.5 के प्रभावों पर किए गए अपनी तरह के पहले अध्ययन में पाया गया कि भारत में पांच साल से कम उम्र बच्चों में पीएम 2.5 और जन्म के वक्त कम वजन (एलबीडब्ल्यू), अनीमिया, श्वसन संबंधी संक्रमण (एक्यूट रेस्पिरेटरी इंफेशन) के बीच एक महत्वपूर्ण संबंध है। हाल ही में 31 अक्टूबर, 2023 को नेचर जर्नल में प्रकाशित अध्ययन “कम्युलेटिव इफेक्ट ऑफ पीएम 2.5 कंपोनेंटस इज लार्जर देन दी इफेक्ट ऑफ पीएम 2.5 मास ऑन चाइल्ड हेल्थ इन इंडिया” से पता चला है कि पीएम 2.5 में हर 10 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर की वृद्धि होने से भारत में पांच वर्ष से कम आयु के बच्चों में अस्थमा, श्वसन संक्रमण और एलबीडब्ल्यू में क्रमश: 10 प्रतिशत, 11 प्रतिशत व 5 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। पीएम 2.5 कई अलग-अलग स्रोत से निकलने वाले प्रदूषकों का मिश्रण है। 

इस अध्ययन से पता चला है कि भारत में बच्चों के स्वास्थ्य पर पीएम 2.5 के कुल द्रव्यमान से ज्यादा असर इसके घटकों का होता है, जिनमें अमोनिया (एनओ 3⁻), फाइन अमोनियम (एनएच 4⁺), एलिमेंटल कार्बन (ईसी) और ऑर्गेनिक कार्बन (ओसी) शामिल हैं। अप्रैल 2022 में दिल्ली आधारित एक और अध्ययन प्रकाशित हुआ, उसमें भी सर्दियों के दौरान पीएम 2.5 के रासायनिक घटकों के तीव्र संपर्क और मृत्यु दर के बीच संबंध पाया गया। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन की शोधकर्ता और लेखिका एकता चौधरी ने कहा, “अध्ययनों के तरीकों और डिजाइन, जैसे कि टाइम सीरीज, क्रॉस-सेक्शनल, एक्सपोजर पर आधारित स्वास्थ्य परिणाम आदि में अंतर हो सकता है, लेकिन रोचक तथ्य यह है कि इन दोनों ही अध्ययनों में एनओ 3 (नाइट्रेट) का प्रभाव सबसे अधिक देखा गया।”

जांच का एक और विषय बचपन में होने वाला कैंसर है। यह साबित करने के लिए तो काफी सबूत हैं कि वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से वयस्कों को कैंसर हो सकता है, भारत में बच्चों में कैंसर और वायु प्रदूषण के इस संबंध पर शोध अभी बेहद सीमित है। आमतौर पर, दुनिया भर में शोध अध्ययनों से पता चलता है कि वायु प्रदूषण का संपर्क तीव्र माइलॉयड ल्यूकेमिया (एएमएल) और नॉन-हॉजकिन लिंफोमा से जुड़ा हुआ है। बेंजीन, एनओएक्स और पार्टिकुलेट मैटर जैसे प्रदूषकों को बच्चों में नॉन हॉजकिन लिम्फोमा के लिए जिम्मेदार माना गया है। नेचर जर्नल में जनवरी 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में पीएम 2.5 स्तर के संपर्क और बच्चों में तीव्र लिम्फोब्लास्टिक ल्यूकेमिया के जोखिम के बीच संबंध पाया गया।

राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम द्वारा नवीनतम उपलब्ध आंकड़े 2012 से 2016 तक हैं। यह आंकड़ा दिखाता है कि विभिन्न शहरों में सभी आयु वर्गों के मुकाबले शून्य से 14 साल तक के बच्चों में कैंसर का अनुपात 0.7 प्रतिशत और 3.7 प्रतिशत के बीच है। कैंसर रजिस्ट्री के मुताबिक, दिल्ली में सबसे अधिक कैंसर प्रभावित हैं। यहां प्रति 10 लाख पर 203.1 लड़के सभी प्रकार के कैंसर से प्रभावित थे, जबकि अरुणाचल प्रदेश के पासीघाट में केवल 12.2 लड़के प्रति 10 लाख थे। पटियाला की कैंसर रजिस्ट्री में प्रति 10 लाख लड़कों पर 121.2 मामले दर्ज किए गए। प्रदूषण से जूझ रही मुंबई भी 10वें स्थान पर रही। इसके अलावा 0-14 वर्ष की आयु की लड़कियों के मामले में दिल्ली में यह संख्या 125.4 प्रति 10 लाख थी, जबकि पूर्वी खासी हिल्स जिले में यह संख्या 12.1 प्रति 10 लाख थी। प्रति 10 लाख पर 74 मामलों के साथ पटियाला 9वें स्थान पर रहा।

भारत के राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के आंकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली भी ल्यूकेमिया से बुरी तरह प्रभावित है। यहां 0-14 वर्ष की आयु के बीच 84.2 युवा प्रति 10 लाख ल्यूकेमिया से पीड़ित मिले, जबकि मेघालय में केवल 7.3 प्रति 10 लाख युवक प्रभावित थे, वहीं 47.2 प्रति 10 लाख लड़कियां प्रभावित थीं। कछार जिले में यह केवल 4.9 प्रति 10 लाख है। लिम्फोमा के मामले में दिल्ली में लड़कों में यह संख्या 30.7 प्रति 10 लाख है, जो मेघालय में देखे गए 2.3 प्रति 10 लाख मामलों से काफी कम है। लड़कियों के मामले में, दिल्ली में लिम्फोमा के मामले तीसरे स्थान पर हैं, जो हर 10 लाख पर केवल 10 है। रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि अध्ययन में शामिल एशियाई देशों में दिल्ली में सबसे अधिक लड़के प्रभावित हैं, इसके बाद चीन का जियानमेंग है। लड़कियों के मामले में दिल्ली छठे स्थान पर है। अध्ययन में शामिल सभी देशों में लड़कों के मामले में दिल्ली छठे स्थान पर और लड़कियों के मामले में 10वें स्थान पर है।

अगर आप उत्तरी भारत के विशाल इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र (आईजीपी) में रहते हैं, जो पूर्वी पाकिस्तान, दक्षिणी नेपाल और बांग्लादेश के अधिकतर हिस्सों तक फैला है, तो आप देश के अन्य हिस्सों के लोगों की तुलना में सात साल कम जीएंगे। यह अध्ययन 2019 में शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट (ईपीआईसी) ने किया था। इसके अनुसार, अगर आप बिहार, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के निवासी हैं, तो आपका औसत जीवन भारत के बाकी हिस्सों के लोगों की तुलना में कम होगा।

इसके कई कारण हैं। फसल जलाने से निकलने वाला धुआं प्रमुख कारणों में से एक है, लेकिन यह इकलौता कारण नहीं है। नासा के अनुसार, पश्चिम में थार रेगिस्तान से आने वाली धूल, मोटर वाहन उत्सर्जन, औद्योगिक और निर्माण गतिविधियां, पटाखे, और हीटिंग के साथ ही खाना पकाने के लिए जलने वाली आग भी पार्टिकुलेट मैटर और अन्य प्रदूषकों का उत्पादन करती है। नासा के मुताबिक, “भूगोल और मौसम इस क्षेत्र में हवा की गुणवत्ता को खराब कर सकते हैं। नवंबर और दिसंबर में तापमान पलटना आम बात है। जब ठंडी हवा तिब्बती पठार से नीचे आती है, तो इंडो-गैंगेटिक क्षेत्र के धुएं वाली हवा से मिल जाती है। यह उलटफेर एक ढक्कन की तरह काम करता है, जहां गर्म हवा प्रदूषकों को सतह के पास फंसा लेती है। इस तरह कम ऊंचाई पर छाई धुंध उत्तर में हिमालय और दक्षिण में विंध्य पर्वतमाला के बीच फंसकर रह जाती है।” यह खबर उन लोगों के लिए अच्छी नहीं है, जो इस क्षेत्र में रहते हैं। आईजीपी क्षेत्र में विश्व की लगभग 9 प्रतिशत जनसंख्या रहती है।

भारत में आईजीपी के अधिकतर हिस्से शामिल हैं और यहां देश की 40 प्रतिशत आबादी रहती है। शिकागो विश्वविद्यालय के अध्ययन के अनुसार, 1998 से 2016 के बीच आईजीपी में वायु प्रदूषण 72 प्रतिशत बढ़ गया। डाउन टू अर्थ ने 2019 में रिपोर्ट दी थी कि हवा में मौजूद सूक्ष्म प्रदूषण कणों का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय की गई सुरक्षित सीमा से कहीं ज्यादा था। यानी, हवा उतनी साफ नहीं थी, जितनी डब्ल्यूएचओ के मानकों के हिसाब से होनी चाहिए।

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