जहरबुझी हवा: एयरशेड में है वायु प्रदूषण का ठोस इलाज
कलाकृति: योगेन्द्र आनंद / सीएसई

जहरबुझी हवा: एयरशेड में है वायु प्रदूषण का ठोस इलाज

शहरीकरण के विस्तार ने गर्म द्वीपों को जन्म दे दिया है जो न सिर्फ वायुमंडल को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि खतरनाक वायु प्रदूषण में लगातार इजाफा भी कर रहे हैं विवेक चट्टोपाध्याय
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जहरबुझी हवा: एयरशेड में है वायु प्रदूषण का ठोस इलाज

दुनियाभर में अतीत से ही भौगोलिक क्षेत्रों और मौसम की प्रवृत्तियों को समझने-बूझने का काम हो रहा है। हवा का बहना या स्थिर हो जाना और मौसम के साथ इसका दिशा बदलते रहना अध्ययन का विषय रहा है। उदाहरण के लिए ठंड के समय हवा दिल्ली में उत्तरी-पश्चिमी दिशा से आती है और प्रदूषण का बड़ा कारक बनती है। आमतौर पर, जमीन के पास गर्म हवा ऊपर उठती है और प्रदूषण को दूर ले जाती है, लेकिन सर्दियों के दौरान गर्म हवा की परत एक ढक्कन की तरह काम करती है, जिससे ठंडी हवा सतह पर बनी रहती है। इससे “थर्मल इनवर्जन” होता है, जो तब बनता है जब ऊपर गर्म हवा की एक परत ठंडी हवा और प्रदूषण को जमीन के करीब फंसा लेती है।

इस बात को लंदन के स्मॉग प्रकरण से और अच्छे से समझा जा सकता है। हर वर्ष भारत में भी ठंड के समय स्मॉग शब्द का खूब प्रयोग होता है। स्मॉग शब्द दरअसल लंदन में मूल रूप से धुएं और कोहरे के मिश्रण की स्थिति के लिए गढ़ा गया था। नवंबर और दिसंबर 1952 की शुरुआत में लंदन में ठंड का प्रकोप हुआ, जिससे वहां के लोगों को गर्म रहने के लिए बड़ी मात्रा में कोयला जलाना पड़ा। आम तौर पर, चिमनी का धुआं फैल जाता था, लेकिन हवाओं की एक प्रणाली ने ऐसा नहीं होने दिया और एक जानलेवा स्थिति बन गई। पवन की इस प्रणाली को हम एंटीसाइक्लोन या प्रतिचक्रवात के तौर पर जानते हैं। एंटीसाइक्लोन एक ऐसी स्थिति होती है जब उच्च दबाव का क्षेत्र बनता है और चारों तरफ हवा बाहर की तरफ बहती हैं। उत्तरी गोलार्ध में उच्च दबाव क्षेत्र के चारों तरफ बाहर निकलने वाली यह हवा घड़ी की दिशा में घूमती है और मौसम स्थिर हो जाता है।

लंदन में 4 दिसंबर, 1952 को एंटीसाइक्लोन बनने के कारण धुआं और कारखाने का उत्सर्जन व प्रदूषण जमीन के करीब ही रह गया। अनगिनत चिमनियों से निकलने वाले धुएं के साथ मिलकर स्थिर मौसम में एक ऐसा स्मॉग बना जो इतिहास की सबसे कुख्यात वायु प्रदूषण घटनाओं में से एक है। इसे लंदन का ग्रेट स्मॉग कहा गया।

यह 5 दिसंबर से 9 दिसंबर, 1952 तक चला था और हजारों लोगों ने इस स्मॉग में जान गवांई। वहां की संसद को चार साल बाद स्वच्छ वायु अधिनियम पारित करना पड़ा। अधिकारियों ने यह समझा कि उन्हें उत्सर्जन को कम करना होगा क्योंकि “प्रतिकूल मौसम की स्थिति” शहरों में वायु की गुणवत्ता को खराब कर सकती है।

यह बात लंदन स्मॉग के बाद और गहराई से समझी गई कि पवन प्रणाली कैसे प्रदूषण के लिए अहम कड़ी बन सकता है। वायु की गतिशीलता बहते हुए जल के समान है। इसीलिए कई बार वाटरशेड और एयरशेड को लगभग एक जैसा माना जाता है।

वर्ष 1905 में बंगाल में वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए स्मोक न्यूसेंस एक्ट पेश किया गया था। इसका असर स्वच्छ हवा के रूप में कुछ ही महीनों में दिखने लगा था

एयरशेड स्तरीय प्रदूषण

आमतौर पर वाटरशेड यानी जलतंत्र के प्रवाह को हम ज्यादा समझते हैं लेकिन एयरशेड को समझना हमारे लिए थोड़ा जटिल होता है। वाटरशेड वर्षा जल के गिरने और संचय होने वाले जलक्षेत्र के साथ नदी, झीलों और समुद्रों में पानी के बहाव वाले क्षेत्र को कहते हैं। वहीं, एयरशेड को वायुमंडल के उस हिस्से के रूप में परिभाषित किया जाता है जो प्रदूषकों के फैलाव के संबंध में सुसंगत तरीके से व्यवहार करता है।

दूसरे शब्दों में, यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें उस वायु क्षेत्र में पैदा होने वाला उत्सर्जन इसकी सीमाओं के भीतर रहते हैं। यह कम प्रदूषण स्रोतों वाले एक छोटे क्षेत्र से लेकर जटिल वायु गुणवत्ता समस्याओं वाले बड़े महानगरीय समूह तक हो सकता है। हालांकि, यह वाटरशेड जैसा ही लग सकता है लेकिन भौतिक या दृश्यमान आयामों की कमी और बड़े क्षेत्र में फैलाव की संभावना के कारण एयरशेड बहुत अधिक जटिल है। जैसा कि सेटेलाइट इमेज से देखने पर पाकिस्तान से भारत और बांग्लादेश तक पूरा गंगा का मैदानी भाग प्रदूषण की एक नदी की तरह दिखाई देता है।

एयरशेड के कारण वायु प्रदूषण के बड़े क्षेत्र में फैलाव की संभावना को लेकर भारत में नीतियों में काफी काम किए जाने बाकी हैं, जिसमें क्षेत्रीय स्तर पर आपसी सहयोग और सामंजस्य की जरूरत होगी। सिर्फ एक भौगोलिक क्षेत्र से एयरशेड स्तरीय वायु प्रदूषण की समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

मिसाल के तौर पर कैलिफोर्निया में एकदम शुरुआत में वायु प्रदूषण के स्तर का मापन आंखों में जलन के स्तर से किया जाता था और यह पाया गया कि यह फसलों को गंभीर नुकसान पहुंचा रहा था। 1940 के दशक के अंत में वैज्ञानिकों ने इस स्मॉग के कारणों की खोज शुरू की। वर्ष 1950 में कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के जैव रसायनविद डॉ. ए. जे. हैगन-स्मिट ने पाया कि फोटोकेमिकल प्रतिक्रियाएं धुएं के मुख्य घटक ‘ग्राउंड-लेवल’ ओजोन के निर्माण के लिए जिम्मेदार थीं। ऊपरी वायुमंडल में ओजोन हमें पराबैंगनी विकिरण से बचाता है, लेकिन सतह का ओजोन तबाही मचाता है।

वर्ष 1946 में कैलिफोर्निया ने पहला वायु प्रदूषण नियंत्रण कानून बनाया, जिससे काउंटी ‘वायु प्रदूषण नियंत्रण जिलों’ का गठन हुआ लेकिन 1950 तक यह स्पष्ट हो गया कि प्रदूषण राजनीतिक सीमाओं से बाहर फैल रहा है और ‘सिंगल-काउंटी जिला’ समाधान नहीं था। 1955 में बे एरिया वायु प्रदूषण नियंत्रण कानून अपनाया गया, जिससे राष्ट्र की पहली ‘क्षेत्रीय वायु प्रदूषण नियंत्रण एजेंसी’ का गठन हुआ। 1958 तक, एजेंसी का प्रयोगशाला पूरी तरह चालू हो गई और वायु गुणवत्ता नमूनों का रासायनिक विश्लेषण करने लगी, जिससे वायु गुणवत्ता को ठीक करने में काफी मदद मिली।

प्रदूषण की चपेट में भारतीय शहर

वायु प्रदूषण की समस्या भारतीय शहरों में भी विकराल रूप ले रही है और इस समस्या में भी क्षेत्रीय और स्थानीय प्रदूषक शामिल हैं जो नए उत्सर्जनों और जटिल वायुमंडलीय प्रक्रियाओं द्वारा निरंतर प्रभावित होती है। बढ़ते शहरीकरण के कारण जमीनों के बदलते उपयोग सतह के पास पृथ्वी के ऊर्जा संतुलन को बदलती है और स्थानीय जलवायु परिवर्तनों में योगदान देती है।

इसका सबसे प्रमुख परिणाम गरम शहरी टापू या द्वीप (अर्बन हीट आइलैंड) प्रभाव है। इस प्रभाव के कारण शहरों का तापमान आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। यह गरम शहरी द्वीप केवल वायुमंडलीय परिस्थितियों को नहीं बदलते, बल्कि प्रदूषण की सघनता या सांद्रता को भी प्रभावित करते हैं और शहरी और आसपास के क्षेत्रों में थंडरस्टॉर्म निर्माण को भी प्रभावित कर सकते हैं। जब प्रचंड गर्मी होती है तब गरम शहरी द्वीपों का प्रभाव वायु प्रदूषण घटनाओं को तीव्र करता है। खासतौर से ग्राउंड-लेवल ओजोन को यह प्रभावित करता है। गंगा के मैदानी भागों में यह देखा गया है कि जितना प्रदूषण ठंड के दौरान दिल्ली में होता है उतना ही प्रदूषण छोटे शहरों में भी दर्ज किया जा रहा है। वास्तव में यह स्थिति हमें वायु प्रदूषण के लिए एयरशेड स्तरीय समाधान की जरूरत को बताता है।

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