महिला किसानों की पहचान का खोला मोर्चा

महिला किसान ने कहा, हमारी मेहनत हमें भीख के रूप में मिलती है। देशभर की 79 फीसद महिला कृषि कामगार हैं और सिर्फ 9 फीसद के पास ही अपनी जमीन का स्वामित्व है
दिल्ली में जुट रहे देशभर के दो सौ से अधिक किसान संगठनों के कार्यकर्ताओं में कई महिलाएं भी शामिल हैं, फोटो: आदित्यन पीसी
दिल्ली में जुट रहे देशभर के दो सौ से अधिक किसान संगठनों के कार्यकर्ताओं में कई महिलाएं भी शामिल हैं, फोटो: आदित्यन पीसी
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“मैंने किसान क्रेडिट कार्ड के लिए आवेदन किया तो अधिकारी ने कहा कि अपने पति को साथ लेकर आओ। इस पर मैं बहुत गुस्से से बोली कि जब मेरे पति ने इसके लिए कार्ड लिया था तो आपने कहा था कि पत्नी को लेकर आओ।” उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के रहीमपुर में खुद की 1.6 एकड़ जमीन पर खेती करने वाली 39 साल की सुरेश सैनी कहती हैं कि वे एक किसान हैं, लेकिन उनकी एक किसान की पहचान नहीं क्योंकि वे एक महिला हैं। वे कहती हैं कि भारत के हर कोने में खेतों में काम करते हुए महिलाएं दिख जाती हैं लेकिन उन्हें किसान नहीं माना जाता है। दिल्ली में जुटे किसान संगठनों का  एक अहम मकसद यह है कि खेती के असली योगदानकर्ता को उनकी पहचान और उनका हक दिलाया जाए।

देशभर से दो सौ किसानों के संगठन के बैनर तले एक लाख से अधिक किसान राजधानी में जुट चुके हैं। ये शुक्रवार को संसद की ओर कूच करेंगे। इनकी कई अहम मांगों में एक मांग यह भी है कि देश की महिला किसानों की पहचान तय हो। इस आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य कृषि में वास्तविक योगदानकर्ता को सशक्त बनाने की कोशिश है। यदि कोई 2011 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के आंकड़ों को देखे तो पता चलता है कि भारत में ग्रामीण महिलाएं कृषि कार्यबल का 79 प्रतिशत हिस्सा हैं, जबकि उनमें से केवल 9 प्रतिशत के पास ही अपनी कृषि भूमि है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की स्थिति हमारे और आपकी सोच में भी संकीर्ण है।

सुरेश सैनी कहती हैं कि खेती कार्य में हाथ बंटाने वाली महिलाओं के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि वे अस्सी फीसदी हैं। लेकिन इतना काम करने के बाद भी उनकी उपस्थिति को पुरुष समाज मानने को तैयार नहीं है। मध्य प्रदेश के रीवा जिले के पकरा गांव में अपने खेतों में काम करने वाली सीमा पांडे कहती हैं कि हम रात-दिन काम करते हैं लेकिन जब फसल के बेचने की बारी आती है तो हमारे घर वाले हमसे पूछना गवारा नहीं समझते कि बेचना ठीक है कि नहीं। वे आगे कहती हैं कि यही नहीं, फसलों के बेचने से आया सारा पैसा पुरुष अपने पास ही रख कर हमें ऐसे देते हैं जैसे हम भीख मांग रहे हैं। जबकि हमें पैसों की जरूरत बस अपने घर को चलाने के लिए ही पड़ती है।

इसी तरह खेती में काम के बंटवारे में भी भेदभाव किया जाता है। खेती के जितने भी कठिन काम हैं वह सब काम महिलाओं के हिस्से में आता है। जैसे कटाई, निंदाई, फसल का रख-रखाव आदि और पुरुषों का काम होता है खेतों की रखवाली यानी बस बैठे-बैठे और इसके अलावा फसल तैयार होने पर उसके विक्रय की तैयारी करना आदि। इस संबंध में खेती काम में हाथ बंटाने वालीं रीवा के देवतलाव गांव की मनीषा मिश्रा कहती हैं कि हर हाल में महिला ही खटती है। 

इस संबंध में महिला किसानों के हितों की रक्षा के लिए 2011 में राज्यसभा में लाए गए निजी बिल प्रस्तुत करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन का कहना है कि हर हाल में महिला किसानों की स्थिति में सुधार करने के लिए पहले पंचायतों में महिलाओं को सशक्त बनाना होगा। यही कारण है कि इस वर्ष फरवरी में ‘ग्राम सभा से विधान सभा’ नामक एक मार्च का भी आयोजन किया गया था जिसकी प्रमुख मांग थी कि खेती में लिंग के आधार पर भेदभाव खत्म हो और भूमि के संयुक्त स्वामित्व की मांग के साथ सरकारी रिकॉर्ड में उनके नामों को भी शामिल किया जाए ताकि वे अपने परिवार की पितृभूमि के सह-मालिक हों। यह मार्च ‘अरो’ नामक अभियान का हिस्सा था, जिसका अर्थ है प्रगति की ओर। इसे गोरखपुर पर्यावरण क्रिया समूह (जीईएजी) ने 2006 में शुरू किया था। अभियान का उद्देश्य कृषि में वास्तविक योगदानकर्ता का सशक्तीकरण करना था। उत्तर प्रदेश के 50 जिलों के 100 पंचायतों में एक सर्वेक्षण आयोजित किया गया। इसके नतीजे चौंकाने वाले थे। इसके अनुसार 97.7 फीसदी महिलाएं कृषि संबंधी कार्यों में योगदान दे रही हैं। लेकिन इनमें से केवल 6.5 फीसदी महिलाओं के पास ही भूमि का स्वामित्व है। इनमें 81 फीसदी महिलाएं विधवा थीं।

जीईएजी के अध्यक्ष शिराज अख्तर वाजिह का कहना है कि महिलाओं की भागीदारी के बिना सतत कृषि संभव नहीं है। वे कहते हैं कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में कृषि में अधिक योगदान दे रही हैं। हमने महसूस किया कि किसानों के रूप में महिलाओं की पहचान करना उन्हें सिर्फनाम देने से अधिक है। इसमें सरकारी योजनाओं के तहत भूमि अधिग्रहण और लाभ के हकदार होना शामिल है।
अख्तर ने बताया कि अभियान की पहली बड़ी सफलता 2007 में आई थी जब 38 दिनों के लंबे, महिला किसानों के अधिकारों के लिए1,500 किलोमीटर का मार्च  किया गया था। पचास हजार महिलाएं और 15,000 पुरुषों ने भाग लिया, जिनमें से 832 पुरुष अपनी पत्नियों के साथ अपनी भूमि के स्वामित्व को साझा करने पर सहमत हुए। 2009 में आयोजित एक अन्य मार्च में 97,000 लोगों की भागीदारी देखी गई, जिनमें से 23 प्रतिशत पुरुष थे। मार्च के दौरान 6,800 पुरुषों के किसानों ने अपनी भूमि को अपनी पत्नियों के साथ साझा करने के लिए समझौते के पत्रों पर हस्ताक्षर किए। उत्तर प्रदेश के इसी तरह के समूह पड़ोसी राज्यों बिहार और ओड़ीशा में  भी उभर रहे हैं।

इस संबंध में एमएस स्वामीनाथन का कहना था कि मेरे निजी बिल का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी, क्रेडिट, बीमा, इनपुट, सिंचाई का पानी, विस्तार सेवाओं और सभी क्षेत्र में महिला किसानों की विशेष आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता पैदा करना था। महिला किसानों की स्थिति दूसरे देशें में भिन्न होती है। औद्योगिक देशों में पुरुषों और महिलाओं को खेती के हर पहलू में काम का भार साझा करना होता है। कई विकासशील देशों में महिलाएं फसल के बाद के प्रबंधन में एक अहम भूमिका निभाती हैं। लगभग सभी मामलों में, महिलाओं को सौंपा गया कार्य पुरुषों द्वारा संभाले जाने वाले लोगों की तुलना में अधिक कठोर होता है। वे कहते हैं कि महिला किसानों के भूमि अधिकारों की चेतना जागृत बहुत जरूरी है। जमीन पर पट्टा के बिना महिला किसान क्रेडिट तक पहुंच नहीं पा रही हैं। जहां तक सरकार की बात है तो वह सिद्धांत में रुचि रखती है। सौभाग्य से हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री महिला किसानों के सशक्तीकरण के लिए अधिक प्रतिबद्ध हैं। जमीन के स्तर पर चीजों को बदलने के लिए पंचायतों में 50 प्रतिशत महिलाओं  को नए कौशल के साथ सशक्त बनाना है।

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