देश के 14 जिले ऐसे हैं, जहां एक लाख हेक्टेयर से अधिक क्षेत्र में मक्के की खेती होती है। इन जिलों की उत्पादन क्षमता का सही उपयोग किया जाए तो मक्के की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी हो सकती है और पैदावार 2.3 मीट्रिक टन तक बढ़ सकती है। हैदराबाद स्थित केंद्रीय बारानी कृषि अनुसंधान संस्थान और अंतरराष्ट्रीय अर्ध-शुष्क ऊष्ण कटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रीसैट) के ताजा अध्ययन में यह बात उभरकर आई है।
देश के ज्यादातर मक्का उत्पादक जिलों में पैदावार क्षमता से काफी कम है। शोधकर्ताओं ने देश के 146 मक्का उत्पादक जिलों को 26 एक समान कृषि जलवायु क्षेत्रों में बांटकर ऐसे क्षेत्रों की पहचान की है, जहां मक्का उत्पादन की क्षमता का भरपूर उपयोग अभी तक नहीं किया जा सका है।
इस अध्ययन से पता चला है कि देश के कई जिले ऐसे हैं, जहां उत्पादन क्षेत्र अधिक होने के बावजूद प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बेहद कम है। राजस्थान के भीलवाड़ा, उदयपुर, बांसवाड़ा, गुजरात के सबारकांठा तथा पंचमहल और मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले में उत्पादन क्षेत्र एक लाख हेक्टेयर से अधिक होने के बावजूद उत्पादकता दो टन प्रति हेक्टेयर से भी कम दर्ज की गई है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि उपयुक्त जलवायु दशाओं के बावजूद मक्के की कम उत्पादकता के लिए उन्नत किस्म के बीजों और पोषक तत्वों का उपयोग न होना भी प्रमुख कारण है।
इस अध्ययन से स्पष्ट हुआ है कि मक्के के कम उत्पादकता वाले जिले उन्नत किस्म के बीजों के उपयोग में पिछड़े हुए हैं। इनमें जम्मू कश्मीर के डोडा, बारामूला, कुपवाड़ा, बडगाम और उत्तर प्रदेश का गोंडा जिला शामिल है। वहीं, तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले में उन्नत किस्म के बीजों के उपयोग की दर सर्वाधिक 100 प्रतिशत दर्ज की गई है। जबकि, उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती और बहराइच समेत अन्य कई जिलों में पोषक तत्वों के उपयोग में कमी उत्पादकता दर की बढ़ोत्तरी में प्रमुख बाधा बनी हुई है।
अध्ययन के दौरान सिंचित क्षेत्र, फसल सत्र, मिट्टी की गुणवत्ता, पोषक तत्वों के उपयोग, मिट्टी की जल धारण क्षमता, आर्द्रता सूचकांक, उत्पादन क्षेत्र और उत्पादकता संबंधी तथ्यों को केंद्र में रखकर निष्कर्ष निकाले गए हैं। आर्द्रता सूचकांक के आधार पर ही जिलों का वर्गीकरण शुष्क, अर्ध्दशुष्क और आर्द्र दशाओं के अनुरूप किया गया है। प्रति हेक्टेयर क्षेत्र में फॉस्फोरस, पोटैशियम और नाइट्रोजन जैसे पोषक तत्वों और उन्नत किस्म के बीजों के उपयोग को केंद्र में रखकर कम उत्पादकता वाले जिलों की तुलना अधिक उत्पादकता वाले जिलों से की गई है।
अध्ययन में शामिल प्रत्येक जिले में कम से कम 10 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में मक्के की खेती होती है। इसलिए शोध के दौरान 10 से 50 हजार हेक्टेयर, 50 हजार से एक लाख हेक्टेयर और एक लाख हेक्टेयर से अधिक मक्का उत्पादन क्षेत्र के आधार पर इन जिलों को तीन समूहों में बांटा गया है। जिले में मक्के की उत्पादकता को भी अध्ययन में शामिल किया गया है, ताकि उत्पादन क्षेत्र और उत्पादकता की तुलना की जा सके।
अध्ययनकर्ताओं में शामिल बी.एम.के. राजू के अनुसार, “देश के अधिकतर क्षेत्रों में मक्के की खेती वर्षा आधारित है। वर्षा आश्रित क्षेत्रों में मक्का उत्पादन की दर 1.9 टन प्रति हेक्टेयर और सिंचित क्षेत्रों में यह दर 3.5 टन प्रति हेक्टेयर है। कई वर्षा आश्रित मक्का उत्पादन क्षेत्रों में उत्पादकता क्षमता मौजूद होने के बावजूद इसक उपयोग अभी नहीं किया जा सका है। इस अध्ययन का उद्देश्य मक्के की उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की बाधाओं को दूर करना है।”
वैज्ञानिकों के अनुसार, मौजूदा उत्पादन के मुकाबले वर्ष 2050 तक भारत में मक्का उत्पादन की मांग पांच गुना तक बढ़ सकती है। फसल उत्पादन क्षेत्र में सीमित बढ़ोत्तरी के कारण भविष्य में मक्के की उत्पादकता बढ़ाना ही एकमात्र विकल्प हो सकता है। ऐसे में उन मक्का उत्पादक क्षेत्रों की पहचान जरूरी है, जहां उत्पादकता में बढ़ोत्तरी की संभावनाएं मौजूद हैं।
बी.एम.के. राजू के मुताबिक, “मक्का उत्पादक जिलों को समरूप कृषि जलवायु वाले समूहों में बांटने का उद्देश्य विभिन्न जिलों में उत्पादकता में अंतर को प्रभावित करने वाले कारकों की पहचान करना है। ऐसा करके उत्पादन प्रक्रिया की खामियों को दूर करके, फसल प्रबंधन और उपयुक्त तकनीकों के चयन से उत्पादकता को बढ़ाया जा सकेगा।”
फसल क्षेत्र के मामले में गेहूं और चावल के बाद मक्का भारत की तीसरी प्रमुख खाद्यान्न फसल है। वर्ष 2013-14 में भारत में 2.68 टन प्रति हेक्टेयर की दर से 90 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में 24 लाख मीट्रिक टन से अधिक मक्का उत्पादन हुआ था। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक मक्का उत्पादन की मांग बढ़कर 121 मीट्रिक टन हो सकती है। तेजी से बढ़ते पॉल्ट्री उद्योग को इसके लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार माना जा रहा है।
वर्षा, तापमान, हवा की गति और सिंचाई जैसे संसाधनों पर तो किसान का नियंत्रण नहीं होता। हालांकि, उन्नत बीजों के प्रयोग और पोषक तत्वों के उचित प्रबंधन जैसे कारकों पर किसानों का नियंत्रण रहता है। उत्पादन की सही रणनीति के उपयोग से उत्पादकता में वृद्धि करके भविष्य में मक्के की बढ़ती मांग को पूरा करने में मदद मिल सकती है।
शोधकर्ताओं का कहना यह भी है कि “इस शोध के नतीजों के आधार पर मक्के की कम उत्पादकता से ग्रस्त किसान और जिलों के कृषि विभाग अपने क्षेत्र की उत्पादकता क्षमता का पता लगा सकते हैं, जिससे सही रणनीति बनाकर पैदावार में सुधार किया जा सकेगा।”
अध्ययनकर्ताओं में राजू के अलावा सी.ए. रामाराव, के.वी. राव, सी.एच. श्रीनिवास राव, जोसिली सैमुअल, ए.वी.एम. सुब्बा राव, एम. उस्मान, एम. श्रीनिवास राव, एन. रवि कुमार, आर. नागार्जुन कुमार, वी.वी. सुमंत कुमार, के. ए. गोपीनाथ और एन. स्वप्ना शामिल थे। यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।
(इंडिया साइंस वायर)