मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पिछले साल अगस्त में जब भावांतर भुगतान योजना (बीबीवाई) की घोषणा की थी, तब किसानों ने खुले दिल से इसे स्वीकार किया था। इस योजना का मकसद राज्य की 257 मंडियों में न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर फसल बिकने पर किसानों को हुए नुकसान की भरपाई करना है। राज्य के कुल 98 लाख किसानों में से करीब 20 लाख किसानों ने 11 सितंबर 2017 से 25 नवंबर 2017 तक सरकार द्वारा तयशुदा समय में सात मुख्य फसलों का पंजीकरण कराया था। इन फसलों में सोयाबीन, उड़द, मक्का, मूंग, तिल, रामतिल और मूंगफली शामिल हैं।
अब किसानों का उत्साह ठंडा पड़ चुका है। डाउन टू अर्थ ने होशंगाबाद और सीहोर जिले के 6 गांवों में 200 से ज्यादा किसानों से बात की। ये दोनों जिले राज्य में सबसे अधिक उड़द और सोयाबीन का उत्पादन करने वाले जिले हैं। अधिकांश किसानों का कहना है कि रबी के सीजन में वे योजना के लिए पंजीकरण नहीं कराएंगे। आखिर योजना से इस मोहभंग की वजह क्या है?
किसानों का कहना है कि एक तरफ से देखने में योजना आकर्षक लगती है लेकिन गौर से देखने में इसका दूसरा पहलू नजर आता है क्योंकि सरकार 7 में 5 फसलों के दाम का एक परिवर्तनशील मॉडल दर ले आई है। दाम का निर्धारण किसी तयशुदा दिन में मंडी में बेचे गए मूल्य और दो राज्यों में उत्पादित फसल की मात्रा को ध्यान में रखकर किया जाता है। उदाहरण के लिए अगर मध्य प्रदेश में सोयाबीन एक्स और महाराष्ट्र और राजस्थान में क्रमशः वाई और जेड दाम पर बिकता है तो उस दिन का दाम एक्स, वाई और जेड का औसत होगा। ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार मॉडल प्राइस का इस्तेमाल तभी करती है जब वह एमएसपी से कम हो। तिल और रामतिल के मॉडल प्राइस इसलिए नहीं जारी किए गए क्योंकि यह फसल की एमएसपी से अधिक थे।
किसानों को भुगतान दो व्यवस्थाओं के तहत किया जाता है। अगर फसल ट्रेडिंग प्राइस (ए) जो एमएसपी (बी) से कम है, पर बेची जाती है तो किसान को बी और ए का अंतर प्राप्त होगा। लेकिन अगर ट्रेडिंग प्राइस मॉडल प्राइस (सी) से भी कम है तो किसान को बी और सी का अंतर प्राप्त होगा। यही किसान की चिंताओं के स्रोत हैं। इन दो व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ रहने पर किसानों ने अपनी फसलें मॉडल प्राइस से कम दाम पर बेची। उदाहरण के लिए होशंगाबाद के रोहना गांव के भगवत सिंह ने उड़द नवंबर में 7,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से बेची। उस समय मॉडल रेट 41,200 रुपए था। सीहोर जिले के हामिदगंज के राम गोपाल के साथ भी यही हुआ।
उन्होंने नवंबर में 2.8 टन सोयाबीन 25,000 रुपए प्रति टन के हिसाब से बेची जबकि मॉडल रेट 26,400 रुपए था। उन्हें लगता था कि भावांतर भुगतान योजना के अंतर्गत उन्हें विक्रय मूल्य और एमएसपी के अंतर का भुगतान किया जाएगा लेकिन उन्हें एमएसपी और मॉडल रेट के अंतर का भुगतान ही मिलेगा, बजाय ट्रेडिंग प्राइज के। मॉडल रेट भी एमएसपी से कम है।
मंडियों का दौरा करने के बाद पता चला कि ज्यादातर बिक्री मॉडल रेट से कम पर हुई है। रेहती मंडी के व्यापारी पंकज चंद्रवंशी बताते हैं कि अक्टूबर में उन्होंने सोयाबीन को उच्चतम दाम 24,800 रुपए प्रति टन के हिसाब से खरीदा था, उस वक्त मॉडल रेट 25,800 रुपए था। नवंबर और दिसंबर में भी यही ट्रेंड था।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संघ के अध्यक्ष शिव कुमार शर्मा उर्फ कक्काजी बताते हैं, “यह मध्य प्रदेश कृषि उपज मंडी अधिनियम 1972 की धारा 35 का खुला उल्लंघन है। यह धारा कहती है कि कोई भी कृषि उत्पाद सरकार द्वारा घोषित समर्थन मूल्य से कम पर नहीं बेचा जा सकता। इस मुद्दे को वह मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में लेकर गए हैं।”
भावांतर भुगतान योजना के लिए जिन किसानों ने पंजीकरण कराया है, उनमें सबसे अधिक सोयाबीन उगाने वाले किसान हैं। ऐसे किसानों की संख्या करीब 10 लाख है। इसके बाद उड़द के लिए पंजीकरण कराने वाले 60 हजार हैं। इसके बाद मक्का, मूंगफली और मूंग की खेती करने वाले किसानों की बारी आती है। मध्य प्रदेश सरकार में एक अधिकारी ने नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया, “मध्य प्रदेश भावांतर भुगतान योजना के तहत खरीफ की फसल के लिए 1,727 करोड़ रुपए का भुगतान किसानों को करेगा लेकिन इसका बड़ा हिस्सा (1,567 करोड़) उन किसानों को भुगतान करने में प्रयोग किया जाएगा जिन्हें मॉडल प्राइस के आधार पर भुगतान किया गया है।
महज 159 करोड़ रुपए एमएसपी के आधार पर दिए जाएंगे।” पंजाब में रहने वाले कृषि नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “मॉडल प्राइस का विचार दोषपूर्ण है। सरकार कोशिश कर रही है कि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से दूर रखा जाए। हरियाणा सरकार ने बिना जमीनी हकीकत जाने आंखें मूंदकर ऐसी ही योजना लागू कर दी और नीति आयोग भी इस पर जोर दे रहा है। यह योजना व्यापारियों के लाभ के लिए है।”
आपूर्ति की लहर
किसानों की तकलीफ का एक और कारण है। हामिदगंज के महिंद पटेल बताते हैं, “योजना ने विक्रय संकट (डिस्ट्रेस सेलिंग) को बढ़ावा दिया है। अगर सोयाबीन के किसान ने योजना में पंजीकरण कराया है तो वह अपने उत्पाद की बिक्री 16 अक्टूबर से 31 दिसंबर के बीच ही कर सकता है। सभी खरीफ फसलों के लिए इस तरह की व्यवस्था है। इस कारण सभी किसानों को एक ही समय में मंडी पहुंचना पड़ता है। इस कारण अक्सर मांग की तुलना में आपूर्ति अधिक हो जाती है और ट्रेडिंग मूल्य कम हो जाते हैं।” उनका कहना है, “भावांतर योजना से पहले मंडी में सोयाबीन 30,000 रुपए प्रति टन के मूल्य पर बिकता था लेकिन योजना के वक्त यह 22,000-24,000 रुपए प्रति टन के दाम पर बिक रहा है।
योजना के बाद दाम 40,000 रुपए तक बढ़ गए हैं। डाउन टू अर्थ ने किसानों से जब पूछा कि उनके पास भावांतर भुगतान योजना के वक्त फसल न बेचने का विकल्प है तो सोहना के बीर सिंह ने जवाब दिया, “हम योजना के वक्त के अंत होने का इंतजार वहन नहीं कर सकते क्योंकि खरीफ की फसल बेचकर हमें जो मिलता है, उसका निवेश रबी की फसल पर करते हैं। बुआई का समय अहम होता है और यह सिर पर होता है।”
किसान विक्रय संकट से इतने परेशान हो गए हैं कि वे चाहते हैं कि सरकार इस योजना से अपने हाथ पीछे खींच ले। होशंगाबाद के बरखेड़ा गांव के राम भरोस यादव कहते हैं, “इस साल हमारे डर से अधिक दाम कम हो गए हैं।” कृषि के प्रमुख सचिव राजेश राजोरा कहते हैं कि कीमतें इसलिए कम हुईं क्योंकि फसलों की गुणवत्ता ठीक नहीं थी। उनका कहना है कि मध्य प्रदेश में जब कीमतें गिरती हैं तो दूसरे राज्यों में भी ऐसा होता है, इसलिए इस गिरावट के लिए भावांतर भुगतान योजना को दोष नहीं देना चाहिए। लेकिन केंद्र सरकार की वेबसाइट agmarketnet.gov.in पर उपलब्ध आंकड़े दूसरी ही कहानी बता रहे हैं।
जिन सात राज्यों के आंकड़े वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, वे बताते हैं कि मध्य प्रदेश में नवंबर व दिसंबर में उड़द के दाम सबसे कम 29,100 रुपए प्रति टन थे। मक्का का भी यही हाल है। इसका दाम 10,300 रुपए प्रति टन था जो 18 राज्यों में सबसे कम था। सोयाबीन के मामले में मध्य प्रदेश 10 राज्यों में 7वें स्थान पर था। किसानों को डर है कि रबी की फसलों के दाम भी कम हो सकते हैं। लेकिन राजोरा बताते हैं कि रबी की फसलों के लिए बिक्री खिड़की लंबी होगी। इसकी तिथियां अभी तय की जानी हैं।
सरकार ने भावांतर भुगतान योजना के तहत भुगतान के लिए सीमा निर्धारित कर दी है। उदाहरण के लिए सरकार हरदा जिले में सोयाबीन के लिए किसानों को 1,412 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक के अंतर का ही भुगतान करेगी। अगर किसान इससे ज्यादा उत्पादन करता है तो वह भावांतर भुगतान योजना के दायरे में नहीं आएगा। होशंगाबाद के बैखेड़ी गांव में रहने वाले धर्म एस. मीणा कहते हैं, “विक्रय संकट ने पहले ही दाम गिरा रखे हैं। इसके इतर सरकार बाकी फसलों के कीमतों में अंतर का भुगतान नहीं करेगी। यह दोहरा झटका है।”
अनिश्चित देरी
रोहना गांव के किसान अविनाश परजाई ने नवंबर में इटारसी की मंडी में 0.5 टन उड़द बेची थी। वह बताते हैं, “मुझे अब तक पांच पैसे नहीं मिले हैं। नहीं पता कितने पैसे मिलेंगे और कब मिलेंगे।”
किसान को योजना के लिए सरकारी पोर्टल में पंजीकरण कराना होता है। साथ ही अपना बैंक खाता, मोबाइल नंबर और आधार नंबर उपलब्ध कराना होता है। इसके बाद सरकार मंडी से बिक्री के आंकड़े लेने के बाद राशि हस्तांतरित करती है। मध्य प्रदेश स्टेट सिविल सप्लाईज कारपोरेशन किसानों को भुगतान के बारे में एसएमएस से सूचित करना होता है।
डाउन टू अर्थ ने जिन किसानों से बात की उनमें से किसी ने भी संदेश मिलने की पुष्टि नहीं की। होशंगाबाद जिले के किसान भगवत सिंह बताते हैं, “हम बैंकों के चक्कर लगा रहे हैं लेकिन अब बैंककर्मी भी हम पर चिल्लाने लगे हैं। भगवत सिंह ने जनवरी में 0.7 टन सोयाबीन बेचा था।
मध्य प्रदेश मंडी बोर्ड के प्रबंध निदेशक फैज अहमद किदवई बताते हैं, “किसानों को भुगतान करने की कोई समयसीमा नहीं है। कायदे से जिस दिन बिक्री होती है, उसके बाद अगले महीने के 25वें दिन में किसान को भुगतान होना चाहिए।”
किसानों की यह भी मांग है कि सभी फसलों को भावांतर भुगतान योजना के दायरे में लाया जाए। लेकिन राजोरा का कहना है कि कोई सरकार यह उपाय नहीं कर सकती। उनका तो यहां तक कहना है कि उन्होंने सरकार को प्रस्ताव दिया है कि उन किसानों को योजना के दायरे में लाने की जरूरत नहीं है जिन्होंने अपनी फसल एमएसपी से 50 प्रतिशत से कम दाम पर बेची है। वह कहते हैं, “अगर गुणवत्ता इतनी खराब है तो राज्य सरकार क्यों भुगतान करें? हम खराब गुणवत्ता वाली कृषि को बढ़ावा नहीं देना चाहते।” अगर राज्य सरकार इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है तो इससे किसानों की तकलीफें और बढ़ेंगी।