आज से पांच दशक पहले पर्यावरण के प्रति शुरू बहस अब घर-घर तक पहुंच चुकी है क्योंकि हालिया वर्षों में इसका सीधा प्रभाव स्पष्ट और वीभत्स हो गया है। पर्यावरण के प्रति इस बहस को तेज करने और उसके मुद्दे उठाने के लिए ही 1992 में डाउन टू अर्थ पत्रिका की शुरुआत हुई थी। तब से यह पत्रिका तथ्यों के साथ सच से रूबरू करा रही है। दरअसल, तथ्य आंकड़ों पर आधारित होते हैं और ये सच से पर्दा उठाते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से आंकड़ों की उपलब्धता प्रभावित हुई है और उनको अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ा मरोड़ा जा रहा है।
ऐसा इसलिए ताकि असहज करने वाले तथ्य सामने न आ पाएं। लेकिन आंकड़े जाने-अनजाने बाहर आ ही जाते हैं। डाउन टू अर्थ पत्रिका का मौजूदा अंक इन्हीं सामने आए आंकड़ों के जरिए पाठकों को ऐसी अहम जानकारियां देने का प्रयास है जो उनके लिए मायने रखती हैं। यह अंक पर्यावरण के प्रति हमारी प्रतिबद्धता का दस्तावेज है। इसमें जटिलताओं में उलझे आंकड़ों को आसान भाषा में समझाने का प्रयास है। इसमें दर्ज हर आंकड़ा कुछ न कुछ कहता है
इंफोग्राफिक:तरुण सहगल और विनीत त्रिपाठी