
पश्चिमी राजस्थान के जोधपुर जिले से महज 35 किमी दूर एक कस्बा जिसका नाम मथानिया है, जो स्वयं की स्थानीय किस्म की लाल मिर्च के जायके के लिए पूरे देश ही नहीं बल्कि विदेश भर में काफी मशहूर था। मशहूर होने की वजह मिर्च में बहुत तीखापन, बीज की कम मात्रा, अच्छा भार व 6-7 इंच लंबाई व लाल मांस के लिए सबसे बेहतर पाउडर इत्यादि थे, जो जोधपुर के प्रसिद्ध मिर्चीबड़ा का स्वाद बढ़ाती थी।
मथानिया की मिर्च एक देशी किस्म है जो मुख्यतया जोधपुर जिले में उगाई जाती है। जिसमें मथानिया, तिवरी, ओसिया व सोयला क्षेत्र आते है। यह लाल मिर्च के पाउडर रूप में व आचार के लिए देश के अनेक हिस्सों तक मशहूर थी।
लेकिन किसानों ने धीरे धीरे साल दर साल इसकी खेती करना बंद कर दिया। वर्तमान में यही मथानिया की मिर्च जीआई टैग (भौगोलिक संकेत) दिलाने के प्रयासों के कारण फिर से सुर्खियों में आई है। सरकार व कृषि विभाग, प्रगतिशील किसानों के साथ मिलकर इस लोकल किस्म के लिए जीआई टैग हासिल करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय के आकड़ों के अनुसार 1998-99 में मथानिया सूखी हुई लाल मिर्च का बुआई क्षेत्रफल जोधपुर में कुल 10,500 हेक्टेयर था व एक हेक्टेयर में कुल उपज 1.8 टन थी लेकिन 2008-09 में फसल का क्षेत्रफल घटकर 3900 हेक्टेयर व प्रति हेक्टेयर उपज 0.6 टन तक रह गई। जो 2019-20 मे 692 हेक्टेयर और प्रति हेक्टेयर कुल उपज 0.5 टन पर रुक गई।
मथानिया मिर्च के उपज व क्षेत्रफल में गिरावट की मुख्य वजह जानने के संदर्भ में कृषि विश्वविधालय जोधपुर से पूर्व क्षेत्र अनुसंधान निर्देशक व कृषि विश्वविधालय बीकानेर के पूर्व प्रोफेसर डॉ. रामपाल जागिड़ ने बताया, “आवश्यकता से अधिक सिंचाई करने से मिट्टी में नमी की अधिकता हो गई, जिससे मृदा व पौधे मे रोगों व कीटों का प्रकोप बढ़ गया। इसके अलावा भू-जल का स्तर अत्याधिक रूप से गिर गया, जिस कारण पानी में खारापन (लवणता) की शिकायत दर्ज हुई।”
अमेरिका के मिनेसोटा विश्वविधालय के प्रोफेसर ने 1988 में लिखे शोध पत्र “द ‘मिर्च-मसाला’ ऑफ चिली पेपर” में मथानिया व इसके आस पास के गावों की मिर्च उत्पादन के बारे मे जिक्र करते हए लिखते है, “कुछ किसान रोज 50 हजार गैलन पानी का उपयोग कर रहे है और 9 महीने के फसल मौसम में 40-60 बार सिंचाई कर रहे हैं, जो कि पानी का अति दोहन है।” उस वक्त भूजल का स्तर 500 फुट तक था जो बाद मे 850 से 950 फुट तक हो गया।
लेकिन महज पानी की समस्या मुख्य नहीं थी इसके अलावा फसल व मृदा में लगने वाले कीट व बीमारी भी कारण थे। डॉ. जागिड़ के अनुसार मिर्च में अधिक सिचाई व नमी के कारण एंथ्राक्नोज़ नामक फफूंद जनित रोग लग जाता है जिसे लीफ कर्ल या पत्ती मरोड़ भी कहा जाता है। इसके कारण पौधे की पत्ती मुड़ने और सिकुड़ने लग जाती है जिसके बाद पौधा कमजोर पड़ जाता है। जिससे पौधे पर मिर्च नहीं लगती है व फसल उत्पादन प्रभावित होता है।
मथानिया के किसान अशोक कुमार 18 बीघा जमीन में मिर्च की खेती करते है। इससे पहले इनके पिता अमृतलाल ने 30 बीघा खेत मे 32 साल तक मिर्च की खेती की है। किसान अशोक बताते है कि “पिताजी के वक्त एक क्यारी में 25- 30 किग्रा मिर्च का उत्पादन होता था लेकिन अब महज 10-12 किग्रा उपज प्राप्त होती है। व पहले 1 से 2 रासायनिक स्प्रे में फसल अच्छी होती थी लेकिन अब 5 से 6 महंगे स्प्रे उपयोग में लेने के बाद भी उपज काफी कम होती है। इस कारण कुछ वर्ष तक मथानिया मिर्च की खेती न करके कपास, अरंडी व अन्य फसल को खेती की”।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में बाजार में मथानिया मिर्ची की आवक वापिस हुई है। आंकड़े बताते हैं कि 2022 मे मथनिया मिर्च का बुआई क्षेत्र बढ़कर 822 हेक्टेयर हो गया। हाल ही में उत्पादन में भी थोड़ी बहुत वृद्धि हुई, जो 0.6 टन प्रति हेक्टेयर पहुंच गई। जून 2025 में जोधपुर कृषि विश्वविद्यालय की ओर से जीआई टैग हासिल करने के लिए तैयार किए गए प्रस्ताव के मुताबिक अब जोधपुर में 1000 हेक्टेयर में मथानिया मिर्च की बुआई की जा रही है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि कृषि अनुसंधान केंद्र, कृषि विश्वविधालय जोधपुर द्वारा मिर्च की आरसीअच-1 किस्म विकसित की गई है। यह किस्म जोधपुर व आस पास के जोन के लिए अधिक अनुकूल है और यह किसानों को मिर्ची के खेती की और वापिस लेकर आई और इसके साथ-साथ मथानिया मिर्च का बुवाई शुरू हुई। साथ ही मथानिया मिर्च के नाम पर इस किस्म को भी बेचा जाने लगा। इस किस्म व मथानिया मे फर्क यही है कि इसमे तीखेपन के साथ हल्का मिठास है व मिर्ची मे बीज की मात्रा अधिक है और लंबाई भी मथानिया की तुलना मे कम है।
इसके अलावा पिछले 6-7 साल मे जलवायु परिवर्तन के कारण पश्चिमी राजस्थान में बारिश पहले की तुलना में अधिक हुई है जिसका असर मिर्ची के किसानों पर पड़ा है। बारिश की अधिकता के कारण भूजल के स्तर मे सुधार हुआ जिससे पानी मे लवण्यता की समस्या कम हुई है। पानी की कमी को समझते हुए स्थानीय लोगों ने बारिश के पानी को संग्रहित किया है।
साथ ही मथानिया व तिवरी में मिर्च को लेकर कुछ किसान उत्पाद समूह (एफपीओ) बने है जिससे किसान वैज्ञानिक तौर- तरीके से पुन: खेती शुरू की है व कृषि पद्धति में सुधार किया। बाजार का व्यवस्थित होने से सामान्य मिर्ची के मुकाबले मथानिया मिर्च को अधिक भाव मिलता है जो कि मिर्च की खेती पुन: करने का कारण है।
जीआई टैग मिलने के बाद फसल व किसान को मिलने वाले फायदे के संदर्भ में कृषि महाविद्यालय नागौर में असिस्टेंट प्रोफेसर व राजस्थान के जीआई टैग मिशन के स्टेट काउंसलर डॉ. विकास पावड़िया ने बताया “जीआई टैग भौगोलिक क्षेत्र के विशेष महत्वता को देखते हुए भारत सरकार के अधिनियम 1999 के तहत दिया जाता है। इससे फसल या उत्पाद की विशेषता को बढ़ावा मिलता है व निर्यात का माध्यम मजबूत होता है। इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय बाजार में ट्रेडिंग के लिए जो मानक उपयोग किए जाते हैं वो और उत्पाद की पायरेसी बनी रहती है। इसलिए किसी भी विशेष जगह की उत्पाद या वस्तु का जीआई टैग होना उसकी नकलची को बढ़ावा देने से रोकता है व सही उत्पाद ग्राहक या लोगों तक पहुचता है।”