क्यों जरूरी है खेतों तक बिजली पहुंचना?

पिछले कुछ सालों में बिजली की खपत का गलत अनुमान और अलक्षित सोच के चलते पावर सेक्टर की दशा खराब हुई है
Photo: Agnimirh basu
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“खेती का तरीका अब बिल्कुल बदल चुका है। हम (किसान) जल संकट, मौसम की अनिश्चितता और बिजली सब्सिडी में कटौती का बोझ ढो रहे हैं। इसके बावजूद खेतों की जिम्मेदारी केवल और केवल हम पर है।” पिछले चार दशक से गन्ने की खेती कर रहे कोल्हापुर जिले के शिरोल तालुका के किसान अशोक पाटिल ये बातें कहते हैं।

दुनिया के अधिकांश विकासशील देशों में आजीविका का मुख्य स्रोत खेती-बाड़ी है, लेकिन ये कमाई सरकारी संसाधनों की कीमत पर होती है। अर्थव्यवस्था में खेती का अहम स्थान है, लिहाजा हमें इस क्षेत्र के मुख्य संचालकों और इसके विकास के माध्यमों पर गहराई से ध्यान देने की जरूरत है।

विकास दर के हिसाब से देखें, तो साल 1990 से साल 2000 तक कृषि में वृद्धि लगभग थमी रही। इससे पूर्व के दशकों में जो भी वृद्धि हुई, वो सिंचाई व्यवस्था में सुधार और खेती में नवोन्मेषी तकनीक के कारण हुई है। भूजल से सिंचाई अब बिजली के माध्यम से की जाती है और ऐसा संभव इसलिए हो पाया है, क्योंकि ग्रामीण विद्युतीकरण पर समर्पित फोकस किया गया।

केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय की 1997 की परिभाषा के अनुसार, किसी गांव में अगर बुनियादी ढांचा मसलन ट्रांसफॉर्मर और वितरण लाइनें बिछा दी गई हों; सार्वजनिक स्थानों पर बिजली पहुंच चुकी हो और कम से कम 10 प्रतिशत घरों में बिजली पहुंचती हो तो उसे विद्युतीकृत गांव मान लिया जाता है।

इन वर्षों में बिजली की खपत का गलत अनुमान लगाए जाने के चलते बिजली क्षेत्र की क्षमता बढ़ाने में अलक्षित दृष्टिकोण अपनाया गया। इसका परिणाम ये निकला कि मीटररहित बिजली उपभोग, फीडरों को अलग करने का आधा-अधूरा काम और तकनीकी व वाणिज्यिक नुकसान जैसी समस्याएं आईं।

खेती की बात करें तो जिन क्षेत्रों में बिजली की अनियमित सप्लाई होती है, उन क्षेत्रों में खेतीबाड़ी पारम्परिक तरीके से की जा रही है, जिससे संसाधानों की बर्बादी होती है। नकदी की किल्लत, भुगतान में विलम्ब और भारी उधारी के चलते ऊर्जा के परिस्थितिकी तंत्र में बिजली वितरण, आर्थिक व प्रचालन के लिहाज से किफायती व टिकाऊ नहीं होता है।

इसी वजह से पिछले 15 सालों में सरकार बेलआउट पैकेज देने को मजबूर हुई है। इनमें ज्यादातर पैकेज सरकारी (सब्सिडी) दर पर बिजली उपलब्ध कराने के लिए वित्तीय मदद के रूप में  दी गई है। ग्रामीण इलाकों में खराब गुणवत्ता वाले पानी या अनियमित पानी की सप्लाई होती है, जो इन क्षेत्रों के किसानों को नवोन्मेषी तकनीक अपनाने से रोक देती है क्योंकि इसके लिए समय पर और पर्याप्त बिजली चाहिए।

आज भी खेतों में फ्लड सिंचाई का चलन है, क्योंकि ड्रिप (बूंद-बूंद) सिंचाई के लिए बिजली चाहिए। तमिलनाडु और महाराष्ट्र में कृषि मंत्रालय द्वारा किए गए प्रयोग बताते हैं कि फ्लड सिंचाई की तुलना में ड्रिप सिंचाई से बिजली की खपत में 40 प्रतिशत तक की बचत होती है।  

महाराष्ट्र के सतारा जिले के सोनगांव गांव में पहली बार बिजली का कनेक्शन अप्रैल 2018 में पहुंचा। पड़ोस के कोल्हापुर में बिजली की सप्लाई शत-प्रतिशत है। यहां गन्ने की खेती ग्रामीण अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार है।

बिजली की छिटपुट सप्लाई से किसान किस तरह निबट रहे हैं, ये जानने के लिए मैंने फसल और उस पर लागत (बिजली, पानी व फर्टिलाइजर) के बीच के संबंधों का अध्ययन किया।

महाराष्ट्र में प्रति हेक्टेयर गन्ने के उत्पादन की लागत 1.47 लाख रुपए है, जो सबसे ज्यादा है। उत्तर प्रदेश में प्रति हेक्टेयर गन्ने की उत्पादन लागत 98,549 और कर्नाटक में 97411 रुपए है।

ये बात अब जगजाहिर है कि गन्ने की खेती महंगी हो चली है। ऐसी रपटें अब आम हैं, जिनमें कहा गया है कि सिंचाई के लिए पानी की किल्लत के चलते गन्ने की फसलें सूख गईं।

कोल्हापुर के किसान जगदीश ने हाल ही में ड्रिप सिंचाई पद्धति अपनाई है। उन्होंने कहा, “पहले हमलोग फ्लड सिंचाई करते थे। उस वक्त एक एकड़ खेत की सिंचाई के लिए 2 लाख लीटर पानी लगता था। अब हमने ड्रिप सिंचाई की तकनीक स्थापित कर ली है, तो एक एकड़ खेत में महज 12 हजार लीटर पानी की खपत हो रही है। लेकिन, एक एकड़ खेत के लिए इस तकनीक को स्थापित करने में 50 हजार रुपए हो जाते हैं और इसके लिए लगातार 8 घंटों तक बिजली की जरूरत पड़ती है। फ्लड सिंचाई में कई दिनों तक पाइप के जरिए खेतों में पानी की सप्लाई की जाती है।”

ड्रिप सिंचाई पाइपों के जाल के जरिए की जाती है, जो ग्रिड से जुड़े हुए और खेतों में फैले होते हैं। इसमें सेंट्रल पंप की मदद से नियमित अंतराल पर सीमित मात्रा में पानी की सप्लाई की जाती है। इसके लिए भूगर्भ जल को पंप के जरिए निकाल कर कुएं में स्टोर किया जाता है और फिर सिंचाई में इसका इस्तेमाल होता है।

किसान चौगुंदा पाटिल कहते हैं, “किसान जल संरक्षण के महत्व को समझ रहे हैं। मैंने प्रति एकड़ 82000 रुपए खर्च कर स्प्रिंकलर सिंचाई सिस्टम लगाया। ये कोल्हापुर का पहला स्प्रिंकलर सिंचाई सिस्टम है। इस सिस्टम से पानी बचाने में मदद मिलती है। इससे सतही तापमान कम रहता है, जो कीटनाशकों के हमले के खतरे को कम करता है। समस्या सिर्फ एक है – बिजली में उतार-चढ़ाव।” मैंने जब उनके खेत का दौरा किया था, तो देखना चाहती थी कि स्प्रिंकलर कैसे काम करता है, लेकिन बिजली कटौती के कारण वह दिखा नहीं सके।

प्रयास एनर्जी ग्रूप ने एक अध्ययन में खेती और बिजली के बीच गहरे और गूढ़ संबंध को रेखांकित किया है।  इस अध्ययन के मुताबिक, बिजली सप्लाई को केवल वितरण कंपनियों के नजरिए नहीं देखा जाना चाहिए। लगातार व सस्ती बिजली सप्लाई सतत कृषि तकनीकों को प्रोत्साहित करने में सहायक हो सकती है, जो जल संरक्षण में मदद करती है और किसानों को आधुनिक कृषि तकनीक अपनाने में समर्थ बनाती है।

इसका समाधान सही फसल पैटर्न लागू करने में है, जिससे बिजली की खपत खुद-ब-खुद कम हो जाएगी। साथ ही इससे खेती में बिजली का मीटररहित इस्तेमाल भी खत्म होगा। मीटररहित इस्तेमाल के कारण अनुमान में त्रूटियां आती हैं।

इसके साथ ही ऊर्जा क्षेत्र की सामान्य अक्षमता को छिपाने में कृषि क्षेत्र के लिए सरकारी दर पर बिजली सप्लाई का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। महाराष्ट्र में कुल तकनीकी व वाणिज्यिक नुकसान में 4 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। दिसंबर 2016 में ये नुकसान 18.8 प्रतिशत था, जो दिसंबर 2017 में बढ़कर 22.79 प्रतिशत हो गया। इससे संकेत मिलता है कि उदय और सौभाग्य जैसी नई स्कीमें भी इस समस्या का समाधान करने में समर्थ नहीं है।

दूसरी तरफ, विद्युतीकृत की परिभाषा में केवल आवास शामिल हैं, खेत नहीं। ये परिभाषा किसानों के लिए नजदीकी ऊर्जा स्रोत से खेतों को जोड़ने की प्रकिया को जटिल बना देती है। अतः ये सही वक्त है कि ग्रामीण इलाकों में स्थानीय स्तर पर नवीकरण (रिन्युएबल) ऊर्जा के अवसर तलाशे जाएं और कुछ गांवों की कृषि जरूरतों को पूरा करने के लिए छोटे प्लांट स्थापित हो।

ब्राजील जैसे देश लंबे समय से गन्ने के  उप उत्पाद (बाई-प्रोडक्ट) एथनॉल से अतिरिक्त बायो-एनर्जी का उत्पादन कर रहे हैं। गन्ने की बात करें, तो गन्ना उद्योग में आधुनिकीकरण तभी पूरा होगा, जब ‘ऊर्जा फसल’ के रूप में गन्ने की पूरी क्षमता का दोहन किया जाएगा।

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