निशांक चौधरी
पिछले 74 वर्षों में देश की अर्थव्यवस्था में तो काफी सुधार देखने को मिला है, परंतु किसान के हालात में नहीं। इसका मुख्य कारण जमीनी स्तर पर खादी और ग्रामोद्योग आयोग की नीतियों का ढंग से लागू नहीं करवा पाना रहा है। जब टमाटर का रेट 2 रुपए किलो होता है, तो किसान उसे सड़कों पर फेंक देता है, क्योंकि उसे मालूम है कि अगर वह इस टमाटर को इतने कम दाम पर मंडी में बेचने गया तो वह उल्टा अपने सिर कर्जा चढ़वा बैठेगा।
परन्तु इसका यह मतलब बिल्कुल भी नहीं है कि किसान को इस बात की जानकारी नहीं है कि वह इस टमाटर का वैल्यू एडिशन करके अनेक प्रकार के प्रोडक्ट बना सकता है जैसे टोमेटो सूप पाउडर, केचप और इन्हें मार्केट में बेचने पर टमाटर की फसल से कहीं ज्यादा मुनाफा कमा सकता है, साथ ही सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल 8 जो कि डीसेंट वर्क और इकोनामिक ग्रोथ की बात करता है उसे भी अपने साथ जोड़ सकता है , परन्तु हकीकत यह है कि किसान इस काम को करने में आने वाली लागत और बाजार संबंधित समस्याओं के बारे में सोचकर ही अपना मन मारकर बैठ जाता है।
इसका एक मुख्य कारण यह भी है कि किसानों को न तो उनकी ग्राम पंचायत और ना ही क्षेत्रीय अधिकारियों ने उनके बीच में जाकर सरकार द्वारा चलाए जा रहे प्राइम मिनिस्टर एंप्लॉयमेंट जनरेशन जैसे कार्यक्रम जो सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय के अंतर्गत आते है के बारे में बातकर इन्हे इससे जुड़ने के लिए प्रेरित और जागरूक नहीं किया। इन कार्यक्रमों के अंतर्गत सरकार न सिर्फ ग्राम्य उद्यमिता (रूरल एंटरप्राइज) में रुचि रखने वाले लोगों को ट्रेनिंग देती है, बल्कि फंड मुहैया कराने से लेकर प्रोजेक्ट तैयार कराने में भी पूरा सहयोग करती है।
आज की वर्तमान परिस्थितियों में रूरल एंटरप्राइज ही एक ऐसा साधन बचा है, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ-साथ देश की अर्थव्यवस्था को भी बढ़ाने में मदद करेगा और साथ में ग्रामीण क्षेत्रों से हो रहे शहरी पलायन को भी रोकेगा। साथ ही कोरोना जैसी महामारी ने भी हमें यह बता दिया कि आज भी भारतीय अर्थव्यवस्था की कल्पना कृषि अर्थव्यवस्था के बिना नहीं की जा सकती है।
*निशांक चौधरी राष्ट्रीय ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संस्थान (केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार) के छात्र हैं