

असम की सियांग, दिबांग और ब्रह्मपुत्र नदियों के तटों और उनके बीच फैले द्वीपों पर दूर-दूर तक बांस, तिरपाल और घास से बनी छोटी-छोटी झोपड़ियां नजर आती हैं। इन्हें खूटी कहा जाता है। ये खूटियां उन अर्ध-घुमंतू पशुपालक समुदायों के लिए अस्थायी आश्रय होती हैं, जो अपने मवेशियों के लिए हरियाली और बेहतर चरागाहों की तलाश में इन नदी और द्वीपों के बीच लगातार सफर करते रहते हैं। मैंने अपना बचपन अपने दादाजी के साथ एक खूटी में बिताया है। वह नेपाल के मूल निवासी किरात राई समुदाय से ताल्लुक रखते हैं। हमारा परिवार कई पीढ़ियों से पशुपालन करता आया है। लेकिन समय के साथ कई बदलावों ने हमारे पारंपरिक जीवन और पशुपालन की संस्कृति को गहराई से प्रभावित किया है।
खूटियों का पतन
कई दशकों तक असम की नदियों के रेतीले तटों और द्वीपों पर खूटियां छोटे-छोटे गांवों की तरह बसी रहती थी। इन खूटियों में पूरे परिवार (पुरुष, महिलाएं और बच्चे) साथ रहते थे और कई पीढ़ियों से पशुपालन ही उनका प्रमुख व्यवसाय था। नेपाल, असम के अन्य हिस्सों और आस-पास के क्षेत्रों से बहुत से लोग हर साल रहने और अपनी भैंसों के लिए चरागाहों की तलाश में कुछ ऋतुओं के लिए ऊपरी असम की ओर पलायन करते थे। उस समय हमारी एक संगठित आर्थिक व्यवस्था थी।
इस व्यवस्था में चरवाहों के साथ-साथ महाजन और महाजनी भी शामिल होते थे। वे कई खूटियों के स्वामी होते थे और अपने अधीन चरवाहों को पशुओं की देखभाल के लिए नियुक्त करते थे। इस फेहरिस्त में एक नाम है कांची महाजनी का, जो असम के सोनितपुर जिले में रहती थी और उनका परिवार नेपाल में बसा हुआ था। कांची अपने मवेशियों के झुंड के साथ नावों और पैदल सफर करते हुए नदी की धाराओं के ऊपर स्थित द्वीपों तक पहुंची और फिर यहीं बस गयी थी। जब मैं छोटा था, तब उनकी खूटी हमारी खूटी के बिल्कुल नजदीक थी। उन्होंने अपने यहां कई चरवाहों को काम पर रखा था और अपना पूरा जीवन इन द्वीपों और अपनी भैंसों के साथ ही बिताया। बुढ़ापे में जब उनकी मृत्यु हुई, तब भी वह अपनी खूटी में ही रहती थी। उनके निधन के बाद उनके बच्चों ने उनकी भैंसें बेच दी और वापस नेपाल लौट जाने का फैसला किया।
मौजूदा दौर में खूटियों में महिलाओं का दिखना बेहद दुर्लभ हो गया है। नदी द्वीपों पर बार-बार आने वाली बाढ़, जो हाल के वर्षों में बदलती जलवायु के कारण और भी विनाशकारी हो गयी है, ने खूटियों में जीवन को अत्यंत कठिन बना दिया है। सन 1998 में आयी बाढ़, जिसे स्थानीय लोग ‘चाइना बाढ़’ के नाम से याद करते हैं (क्योंकि इसका स्रोत चीन की सियांग नदी थी), के दौरान अनेक खूटियां बह गयी थी। उस घटना के बाद परिवारों ने एक साथ खूटियों की ओर पलायन करना लगभग बंद कर दिया। अब परिवार के अधिकतर सदस्य गांव में ही रहते हैं और केवल पुरुष सदस्य ही मवेशियों की जिम्मेदारी संभालने के लिए खूटियों में रहते हैं। 2019 में, कोविड-19 महामारी शुरू होने से ठीक पहले, दिबांग नदी के क्षेत्र में लगभग दस खूटियां थी, जिन्हें कई परिवार मिलकर चलाते थे। तब से मात्र छह वर्षों में यह संख्या घटकर केवल दो रह गयी है।
नदियों के किनारों का क्षरण इस स्थिति को और चिंताजनक बनाता है। इस चलते इन द्वीपों पर घास की परतें तेजी से कम होती जा रही हैं। जैसे-जैसे घास घटती है, मिट्टी ढीली पड़ती जाती है और क्षरण की प्रक्रिया और तेज हो जाती है। यह एक चक्र सा बन गया है, जिसमें भूमि का कटाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। इस कटाव का मुख्य कारण है नदियों के प्रवाह मार्गों में तेजी से हो रहे बदलाव। नदियां लगातार अपना रास्ता बदलकर नए चैनल बनाती हैं और उनमें मिल जाती हैं।
नतीजतन, ऊपरी मिट्टी को स्थिर होकर जमीन का रूप लेने का पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है। जब वनस्पति नहीं होती, तो मिट्टी और अधिक बहती है। जब नदी के एक किनारे से मिट्टी बह जाती है, तो दूसरे किनारे पर नयी जमीन बनती है। लेकिन इस नई जमीन पर घास उगने में कम से कम चार से पांच साल लंबा समय लगता है। कभी-कभी जब यह जमीन स्थिर होकर घास से भर जाती है, तो धीरे-धीरे उस पर जंगल उग आते हैं।
नदी द्वारा लाया गया गाद (सिल्ट) अत्यंत उपजाऊ होता है, जिस पर घास के मैदान उग जाते हैं। समय के साथ ये घास सड़कर उसी गाद को मिट्टी में बदल देती है, जिससे जंगलों को पनपने का सहारा मिलता है। इसी प्रक्रिया में नदी द्वारा बहाकर लाया गया मलबा गाद बन जाता है और फिर धीरे-धीरे गाद और रेत मिलकर मिट्टी का रूप ले लेते हैं।
मनुष्य–वन्यजीव संघर्ष का बढ़ता दायरा
बीते कुछ वर्षों में चरवाहों और हाथियों के बीच टकराव की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। कभी इन रेतीले द्वीपों और जंगलों में मनुष्य और वन्यजीवों का सह-अस्तित्व बेहद संतुलित था। हम हमेशा से जंगलों के रहवासी जीव-जंतुओं, खासकर हाथियों, के साथ सौहार्दपूर्ण तरीके से रहते आए हैं। हमें यह भी पता रहता था कि हाथी किस रास्ते से प्रवास करते हैं। इसलिए हम अपनी खूटियां उनके प्रवास के मुख्य मार्गों से दूरी पर बनाते थे। लेकिन हाल के वर्षों में हालात बदल गए हैं। अब हम अक्सर अपनी खूटियों को हाथियों के झुंड के रास्ते में पाते हैं। उनमें से कई अब नदी पार करके बसावटों तक पहुंचने लगे हैं, जहां वे खेतों में अनाज की तलाश करते हैं। नदी का जलस्तर कम हो जाने के कारण अब उनके लिए इसे पार करना आसान हो गया है। यही कारण है कि उनके पुराने मार्ग भी बदल रहे हैं। भोजन की तलाश में वे अब हमारी खूटियों तक भी पहुंच जाते हैं।
ऐसे में हमारी भैंसे हाथियों से हमारी और हमारी खूटियों की रक्षा करती हैं। वे खुद एक शक्तिशाली नस्ल की जानवर हैं, इसलिए हाथी भी आमतौर पर उनसे नहीं उलझते हैं। परंपरागत रूप से हम अपनी खूटियों की परिधि के सबसे बाहरी घेरे में भैंसों को बांधने के लिए बाड़े बनाते हैं। उसके चारों ओर गहरे गड्ढे खोद दिए जाते हैं। बीच में हमारी खूटी और भैंसों के बछड़ों के लिए अस्तबल बनाए जाते हैं, ताकि उन्हें अन्य वन्यजीवों से पर्याप्त सुरक्षा मिल सके। इस तरह हमारी खूटी तक आने से पहले हाथियों को पहले भैंसों के बाड़े और फिर गड्ढों को पार करना पड़ता है। रात में हम खूटियों के बाहर आग जलाकर रखते हैं, ताकि वे डर से हमारी ओर न आयें। कभी-कभी जब हमें पता होता है कि हाथियों का झुंड पास से गुजरने वाला है, तो हम पूरी रात जागकर पहरा देते हैं। अगर कोई अकेला हाथी आ जाए तो हम बछड़ों के अस्तबल में छिप जाते हैं। चूंकि हाथी कभी उन अस्तबलों पर हमला नहीं करते हैं, इसलिए ऐसे समय में वही जगह हमारे लिए सबसे सुरक्षित होती है।
आजीविका के अन्य साधनों की तलाश
एक दौर में खूटियां असम के अधिकांश हिस्सों में डेयरी उत्पादों की आपूर्ति करती थी। हमारे लिए खूटी का मालिक होना या महाजन/महाजनी होना एक स्थिर भविष्य का प्रतीक था। इससे हम ऐसा जीवन सुनिश्चित कर सकते थे, जहां हम वर्षों तक पशुपालन करने के बाद पर्याप्त बचत से जमीन खरीदकर परिवार सहित एक ठिकाने पर बस पाते। एक सामान्य खूटी में भी कम से कम 100 भैंसें होती थी। कुछ खूटियों में तो एक हजार भैंसों के झुंड तक रहा करते थे। लेकिन अब अर्थव्यवस्था बदल चुकी है। महंगाई के दौर में खूटियों से होने वाली आमदनी बेहद कम हो गयी है। इसके साथ ही, चरागाहों की कमी और घास की गुणवत्ता में गिरावट के कारण दूध का उत्पादन और उसकी गुणवत्ता, दोनों घट गए हैं। इस वजह से अब बहुत से लोग पारंपरिक पशुपालन छोड़कर आजीविका के दूसरे साधन तलाश रहे हैं।
नई पीढ़ी अब जंगलों में बैठकर भैंसें और गायें चराने का काम नहीं करना चाहती है।
चरागाहों की संख्या घटने के कारण लोगों के पास घास के बेहतर मैदानों की तलाश में दूर-दूर तक भटकने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा है। लेकिन अब कई लोग यह जीवन छोड़कर अपने पशु बेच रहे हैं और खेती से जुड़े अन्य रोजगार अपना रहे हैं।
कई पशुपालक अपने पशुओं के झुंड बेचकर जमीन खरीद लेते हैं, कुछ किराए की दुकान चलकर जीवनयापन करते हैं तो कुछ अपने गांवों में गायें पालकर दूध बेचने का काम शुरू कर देते हैं। हमारी अर्ध-घुमंतू जीवनशैली के कारण अधिकांश परिवार असम के अलग-अलग हिस्सों में बसे हुए हैं। ऐसे में अब हम में से कई लोग अपने गांव लौटकर रोजगार की तलाश करते हैं। कई लोगों के लिए मजदूरी या दिहाड़ी से जुड़े दूसरे काम भी आम विकल्प बन गए हैं।
इन तमाम पहलुओं के मद्देनजर यह कहना गलत नहीं होगा कि खूटी से जुड़ा जीवन अब पहले जैसा नहीं रहा।
यह लेख इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू (आईडीआर, हिंदी) से लिया गया है, जो एक स्वतंत्र मीडिया प्लेटफार्म है। ऑरीजनल लेख यहां क्लिक करके पढ़ें।