उर्वरक सब्सिडी से किसे मिला फायदा?

बहुत ज्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरक पर सब्सिडी में ऐतिहासिक वृद्धि ऐसे माहौल का संकेत देती है, जो आने वाले समय में अक्षमता और असमानता बढ़ाएगी और पर्यावरणीय स्थिरता को प्रभावित करेगी
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
इलस्ट्रेशन: रितिका बोहरा / सीएसई
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अप्रैल के पहले पखवाड़े में जब चारों तरफ राज्य विधानसभाओं के चुनाव का शोर था, तभी डीएपी (डाय-अमोनियम फॉस्फेट) खाद की कीमत में जबरदस्त वृद्धि की खबर आई। प्रति 50 किलो बैग की कीमत 1,200 रुपए से 1,900 रुपए होने की खबर थी। ग्रामीण इलाकों में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर कोहराम मचा रही थी। तिस पर खाद के मूल्य में वृद्धि की आशंका खरीफ फसल को प्रभावित करने और कृषि क्षेत्र के लिए अधिक संकट बढ़ाने वाली थी।

यूरिया के बाद डीएपी न केवल देश में दूसरा सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला उर्वरक है, बल्कि किसान आमतौर पर इसे बुआई से ठीक पहले या बुआई के समय इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि इसमें पाया जाने वाला उच्च फास्फोरस (पी) फसल की जड़ को मजबूत करने और उसके विकास में मदद करता है। अप्रत्याशित रूप से केंद्र सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए डीएपी सब्सिडी में “ऐतिहासिक” 140 प्रतिशत बढ़ोतरी की घोषणा की। सरकार ने सब्सिडी को 500 रुपए प्रति बैग से बढ़ाकर 1,200 रुपए कर दिया, ताकि किसान उसी कीमत का भुगतान करते रहें और वे मूल्य वृद्धि के बोझ से दब न सकें।

हालांकि इस कदम का राजनीतिक और आर्थिक औचित्य समझा जा सकता है, लेकिन उन कारकों का विश्लेषण करना आवश्यक है, जिन्होंने घरेलू बाजार में डीएपी की कीमतों में वृद्धि की। और यह भी कि क्या केंद्र सरकार का ये कदम भारत में उर्वरक सब्सिडी व्यवस्था में बहुप्रतीक्षित संरचनात्मक सुधार के इरादे का संकेत देता है।

इनका विश्लेषण करने से पहले, आइए कुछ बुनियादी बातों को स्पष्ट कर लेते हैं। भारत में रासायनिक उर्वरकों की वार्षिक खपत लगभग 60 मिलियन टन है, जिसमें से 32-33 मिलियन टन (लगभग 55 प्रतिशत) यूरिया है। इसमें उच्च नाइट्रोजन (एन) पाया जाता है। उर्वरक के शेष किस्मों में डीएपी, फॉस्फेटिक उर्वरक, म्यूरिएट ऑफ पोटाश या एमओपी, उच्च पोटेशियम (के) उर्वरक और अन्य जटिल उर्वरक (एन, पी और के जैसे पोषक तत्वों के विभिन्न फॉर्म्यूलेशन के साथ) शामिल हैं। इनमें यूरिया से अलग, डीएपी देश में खपत होने वाले कुल रासायनिक उर्वरकों का लगभग 15 प्रतिशत यानी 9-10 मिलियन टन है।

घरेलू उत्पादन देश की यूरिया आवश्यकता का 75 प्रतिशत पूरा करता है, वहीं यह डीएपी जरूरत का केवल 40 से 50 प्रतिशत हिस्सा ही पूरा करता है। डीएपी का वास्तविक उत्पादन और भी कम है। हालांकि, घरेलू स्थापित क्षमता 10 मिलियन टन बताया गया है, लेकिन वार्षिक उत्पादन लगभग 4-5 मिलियन टन ही है। इस प्रकार भारत अपनी डीएपी आवश्यकता को पूरा करने के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है। महत्वपूर्ण रूप से डीएपी के घरेलू उत्पादन के लिए जरूरी सामान (अवयवों) के लिए भी भारत काफी हद तक आयात पर निर्भर करता है। जैसे फॉस्फोरिक एसिड जो देश में पर्याप्त मात्रा में नहीं है, सिवाए राजस्थान के कुछ छोटे रॉक फॉस्फेट रिजर्व के। ऐसी स्थिति में, घरेलू बाजार में डीएपी की कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार से आने वाले इनपुट से भी तय होती है।

वैश्विक बाजार के रुझानों से यह स्पष्ट है कि वित्तीय वर्ष 2020-21 की पहली तिमाही में डीएपी की कीमत स्थिर थी। इसने जुलाई 2020 और अप्रैल 2021 के बीच 78 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की। इसी अवधि के दौरान फॉस्फेटिक उर्वरक के लिए जरूरी फॉस्फोरिक एसिड और अन्य अवयवों के उत्पादक मूल्य सूचकांक (प्रोड्यूसर प्राइस इंडेक्स: पीपीआई बिक्री की कीमत में औसत उतार-चढाव बताता है) में लगभग 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई (देखें, डीएपी दर पर वैश्विक दबाव)। वैश्विक बाजारों की कीमतों में उतार-चढ़ाव ने घरेलू बाजार पर दबाव डाला। इस वजह से भारत के सबसे बड़े उर्वरक उत्पादकों में से एक, इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर को-ऑपरेटिव लिमिटेड (इफ्को) ने 8 अप्रैल को डीएपी मूल्य में 58 प्रतिशत वृद्धि की घोषणा की।

जैसी की उम्मीद थी, इस घोषणा का विरोध शुरू हो गया। विरोध के स्वर इतने मजबूत थे कि इसने केंद्र सरकार को अगले ही दिन कदम उठाने के लिए मजबूर कर दिया। सरकार ने कोशिश की कि घरेलू उत्पादक कीमत वृद्धि पर पीछे हटे। लेकिन उर्वरक की कीमतों पर जैसे ये घरेलू उत्पादक पीछे नहीं हट सकते थे, वैसे ही केंद्र सरकार भी डीएपी के खुदरा मूल्य में 58 प्रतिशत की वृद्धि का जोखिम नहीं उठा सकती थी, जबकि इसकी कीमत पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। सरकार के सामने तीन समस्याएं थी।

पहली, डीएपी के खुदरा मूल्य में वृद्धि से देश में उर्वरक के असंतुलित उपयोग की समस्या और बढ़ जाती। देश में पहले से ही नाइट्रोजनयुक्त यूरिया की ओर झुकाव ज्यादा है। कई क्षेत्र में फॉस्फेटिक और पोटेशियम उर्वरक का इस्तेमाल अधिकतम सीमा के करीब पहुंच चुका है।

दूसरी, कीमतों में इस तरह की भारी बढ़ोतरी निश्चित रूप से 2021 की खरीफ फसल को प्रभावित करती। इसका मतलब यह है कि इस साल अच्छे मॉनसून के पूर्वानुमान के बावजूद एक आशाजनक कृषि क्षेत्र और किसानों की आय में वृद्धि की संभावना कम हो जाती। नतीजतन, वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद भी धूमिल हो जाती।

तीसरी, देश के विभिन्न हिस्सों में बड़ी संख्या में किसान सितंबर 2020 में जल्दबाजी में बनाए गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं। डीएपी की कीमत में भारी बढ़ोतरी ने पूरे भारत के किसानों में व्याप्त असंतोष को और बढ़ा दिया।

इस तरह, केंद्र सरकार के पास एकमात्र विकल्प यही बचा था कि सब्सिडी बढ़ाकर अनुमानित मूल्य वृद्धि को संतुलित किया जाए। सवाल है कि क्या ये कदम आने वाले समय में उर्वरक क्षेत्र में किसी व्यापक सुधार का संकेत देता है? शायद नहीं।

भारत में रासायनिक उर्वरकों की कीमतों को दो सब्सिडी व्यवस्था द्वारा नियंत्रित किया जाता है। एक यूरिया के लिए और दूसरा फॉस्फेटिक और पोटेशियम उर्वरकों के लिए। यूरिया पहले से ही नियंत्रित उर्वरक है। इसके लिए निश्चित मूल्य, परिवर्तनीय सब्सिडी नीति लागू है। इस नीति के तहत केंद्र सरकार खुदरा मूल्य तय करती है और उत्पादकों को उनके मानक उत्पादन की अनुमानित लागत के हिसाब से सब्सिडी (जो प्लांट दर प्लांट अलग होते हैं) दी जाती है।

2010-11 से, अनियंत्रित फॉस्फेटिक और पोटेशियम उर्वरकों की कीमतें पोषक तत्व आधारित सब्सिडी (एनबीएस) नीति के तहत तय की जाती रही है। ऐसा उनकी खपत को बढ़ावा देने के लिए किया जाता है, ताकि मिट्टी की संतुलित उर्वरता सुनिश्चित की जा सके। एनबीएस के तहत केंद्र सरकार पोषक तत्वों के प्रति किलोग्राम के हिसाब से तय सब्सिडी देती है।

घरेलू आपूर्तिकर्ताओं को एनबीएस दर को देखते हुए यथोचित कीमत तय करने की अनुमति है, जो हर साल बदलती रहती है। केंद्र सरकार वैश्विक बाजार में कीमतों के रुझान को ध्यान में रखते हुए इसे तय करती है।

हालांकि, यह देखा गया है कि डीएपी पर एनबीएस में पिछले तीन सालों में कमी आई है। 2011-12 में यह उच्चतम स्तर 19,763 रुपए प्रति मिलियन टन थी (2011-12 के दौरान आयातित डीएपी का औसत लैंडिंग मूल्य 512 यूएसडी था, जुलाई 2011 में यह उच्चतम स्तर 598 यूएसडी पर था), जो पिछले तीन सालों से करीब 10,000 रुपए पर है (देखें, घर में असहज)। सरकार ने एनबीएस के तहत अधिक सब्सिडी सिर्फ असाधारण परिस्थितियों में ही दी है, जैसा कि 2011-12 के दौरान देखा गया था, जब वैश्विक कीमतें असामान्य रूप से अधिक थीं। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया था कि किसानों के लिए खुदरा मूल्य स्थिर रहे और मूल्य वृद्धि मामूली हो।

इस परिप्रेक्ष्य में देखे जाने पर हाल का निर्णय ऐतिहासिक है, जहां डीएपी पर केंद्र सरकार द्वारा दी जाने वाली एनबीएस उच्चतम है। लेकिन यह उस विजन को भी बताता है, जिसमें एनबीएस दर सिर्फ इसलिए बढ़ाई गई है, ताकि वैश्विक कीमतों की अस्थिरता से किसानों को बचाया जा सके। ध्यान देने की बात है कि 20 मई को डीएपी के लिए एनबीएस बढ़ाने की घोषणा के तुरंत बाद सरकार ने फास्फोरस के लिए एनबीएस दर भी बढ़ा दी (14.88 रुपए प्रति किलो से 45.32 रुपए प्रति किलो)। लेकिन अन्य पोषक तत्वों के लिए सब्सिडी की दर अपरिवर्तित रही। एमओपी के लिए एनबीएस दर में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है, जिसकी कीमतें भी बढ़ी हैं।

सरकार के अनुमान के अनुसार, डीएपी और अन्य जटिल उर्वरकों के लिए संशोधित सब्सिडी के कारण 2021-22 के दौरान 14,775 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बजटीय व्यय होगा (केवल खरीफ सीजन के लिए)। आगे यह माना जा सकता है कि रबी सीजन 2021-22 में भी डीएपी का खुदरा भाव ज्यादा नहीं बढ़ने दिया जाएगा। यह बजटीय व्यय किस हद तक उर्वरकों के समग्र उपयोग को सुनिश्चित करने में मदद करेगा, स्पष्ट नहीं है। यह सर्वविदित है कि नियंत्रण और विनियमों के जटिल जाल के कारण विभिन्न उर्वरकों की कीमतें गंभीर रूप से प्रभावित होती हैं, जिससे फसल के लिए पोषक तत्वों के उपयोग में असंतुलन आता है। 2014-15 से कई सुधारों पर विचार चल रहा है।

जैसे, यूरिया को एनबीएस के दायरे में लाना, मौजूदा इनपुट सब्सिडी व्यवस्था को पूरी तरह से खत्म कर डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) नीति अपनाना आदि। विशेषज्ञों की लगातार सिफारिशों के बावजूद, राजनीतिक जटिलताओं ने अब तक इस तरह के सुधारों को रोके रखा है। नतीजतन, उर्वरक सब्सिडी व्यवस्था के साथ छेड़छाड़ जारी है, जो पर्यावरणीय स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के अलावा, अक्षमता और असमानता को बढ़ावा देती है।

(जुगल मोहापात्रा पूर्व केंद्रीय उर्वरक सचिव हैं। सिराज हुसैन पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव हैं)

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