
बीते एक दशक में उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की खेती में बड़ा बदलाव आया है। एक ओर जहां राज्य में कुल कृषि भूमि में 27.2 फीसदी की गिरावट आई है, वहीं समग्र उपज 15.2 फीसदी कम हुई है।
गेहूं, धान और आलू जैसी मुख्य फसलों के रकबे और पैदावार में भारी गिरावट आई है। हालांकि उत्तराखंड के पहाड़ी जिले अब पारंपरिक फसलों से हटकर जलवायु के अनुकूल फसलों की ओर बढ़ रहे हैं।
आलू की पैदावार में गिरावट – एक स्पष्ट संकेतक
शोध करने वाली संस्था क्लाइमेट ट्रेंडस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि ‘सब्जियों का राजा’ कहलाने वाला आलू जलवायु परिवर्तन की मार सबसे ज्यादा झेल रहा है। बीते पांच सालों में इसकी पैदावार 70.82 प्रतिशत घटकर 2020-21 के 3.67 लाख मीट्रिक टन से 2023-24 में 1.07 लाख मीट्रिक टन रह गई। रिपोर्ट का शीर्षक 'पहाड़ों में पानी की कमी और बढ़ती गर्मी के प्रभाव : जलवायु परिवर्तन उत्तराखंड के कृषि परिदृश्य को कैसे आकार दे रहा है' है
खेती का क्षेत्र भी 2020–21 में 26,867 हेक्टेयर से घटकर 2022–23 में 17,083 हेक्टेयर हो गया। इसमें 36.4 प्रतिशत की वार्षिक घटत हुई है। हालाँकि उत्तराखंड में देश का कुल 0.19 प्रतिशत. आलू ही पैदा होता है पर यह इस राज्य की सबसे अधिक उगने वाली फसल है और यहाँ इसकी खेती सबसे ज़्यादा होती थी।
संस्था की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर के वैज्ञानिक डॉ. अनिल कुमार के हवाले से बताया गया है कि पहाड़ों में आलू की खेती बारिश पर निर्भर है और बारिश अब अनियमित होती जा रही है। पहले बर्फबारी होती थी, अब वह भी कम हो गई है। इससे आलू पर बुरा असर पड़ा है।
जंगली सूअर और सूखी जमीन
आमतौर पर आलू मार्च की शुरुआत में लगाए जाते हैं और पहाड़ों में मई-जून तक निकाल लिए जाते हैं, जबकि मैदानी इलाकों में, उन्हें अक्टूबर-नवंबर में लगाया जाता है और जनवरी तक निकाला जाता है।
पहले, अक्टूबर से दिसंबर के बीच 2-3 बार बर्फबारी होती थी। अब समय पर बारिश की कमी, अक्टूबर और जनवरी के बीच बर्फबारी में कमी, बढ़ते तापमान और ओलावृष्टि ने आलू की खेती को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। इसके अलावा जंगली सूअर रातों को खेत उजाड़ देते हैं। ये सारी चीजें आलू के खिलाफ जा रही हैं।
चरम मौसम और अनिश्चित बारिश
भारत के मौसम आपदा के एटलस के अनुसार उत्तराखंड में 2023 में 94 दिनों तक चरम मौसम रहा। इससे 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई।
जलवायु परिवर्तन का असर मैदानी इलाकों से ज्यादा पहाड़ी क्षेत्रों में दिख रहा है। यहां तापमान में हर साल औसतन 0.02 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है। बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और अधिक चरम मौसम की घटनाओं ने पारंपरिक फसल पैटर्न को बाधित कर दिया है।
दालें बनीं लचीली खेती की पहचान
क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट बताती है कि राज्य में गहत, पहाड़ी अरहर, उड़द, चना, भट्ट और राजमा जैसी देशी दालें अब जलवायु-लचीले भविष्य का आधार बन रही हैं। कम पानी, कम इनपुट और उच्च पोषण मूल्य की वजह से ये फसलें अब नए कृषि मॉडल की रीढ़ बन सकती हैं।
राज्य में हल्दी की खेती दोगुनी हो गई है और मिर्च की खेती में 35 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। मसालों का रकबा बीते कुछ वर्षों में 50 प्रतिशत बढ़ा है, जबकि पैदावार 10.5 प्रतिशत ऊपर गई है।
हल्दी की पैदावार में 122 प्रतिशत और मिर्च में 21 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। ये फसलें गर्म और नम परिस्थितियों के अनुकूल होती हैं, और मिट्टी के प्रति ज्यादा सहनशील हैं।
तिलहन की वापसी शुरू
रिपोर्ट में कहा गया है कि लाही, सरसों, तोरिया और सोयाबीन जैसी तिलहन फसलें अभी छोटे स्तर पर हैं, लेकिन इनमें बढ़ोतरी हो रही है। हालांकि इनकी औसत पैदावार अब भी कम बनी हुई है।
खत्म हो गया बारानाजा
रिपोर्ट बताती है कि पारंपरिक बारानाजा बहुफसली प्रणाली अब लगभग खत्म हो गई है, लेकिन किसान अब बाजरा और दालों के साथ नई बहु फसल रणनीतियां अपना रहे हैं। दलहन, विशेष रूप से सोयाबीन, चना, जो शुष्क भूमि और गैर वर्षा आधारित क्षेत्रों में उगाए जा सकते हैं, धान और गेहूं की तुलना में बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बेहतर ढंग से ढल रहे हैं, क्योंकि धान और गेहूं अधिक पानी की मांग करते हैं।