रीढ़विहीन कृषि शिक्षा -4: वैज्ञानिकों पर पैसा जुटाने का दबाव

डाउन टू अर्थ ने देश की कृषि शिक्षा की अब तक की सबसे बड़ी पड़ताल की है। इसे चार भाग में पढ़ सकते हैं। प्रस्तुत है, चौथा भाग...
Photo: Rajiv Shankar Shukla
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अखिल भारतीय कृषि छात्र संघ का कहना है कि कृषि शिक्षा को कृषि प्रशासकों को ही चलाना चाहिए। आज कृषि की उच्च शिक्षा लेकर भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में जाने वाले युवाओं को अपनी मेधा का त्याग करना पड़ता है। कृषि से जुड़ी जो भी योग्यता उन्होंने अर्जित की है उसे त्यागकर वे सिविल सेवा से जुड़ते हैं। ऐसे में नालागर कमेटी की रिपोर्ट पर संज्ञान लिए जाने की जरूरत है ताकि पता चल सके कि राज्यों में कृषि छात्र हर दसवें दिन सड़क पर क्यों उतर रहे हैं।

देश में दवा बिक्री करने के लिए न्यूनतम योग्यता डिप्लोमा इन फॉर्मा है। बिना इस डिप्लोमा के दवा विक्रेता नहीं बन सकते। इसी तरह कृषि में रसायन, उर्वरक, कीटनाशक, डाई आदि विक्रेता बिना किसी योग्यता किसानों को खेती की दवाई बेच रहे हैं। इन्हें बंद करने का भी सरकारी ऐलान हुआ था। इसके बाद दुकानदारों के संगठन ने काफी शोरगुल मचाया। सड़कों पर उतरे और सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। रसायन बेचने के लिए कंपनियां विक्रेताओं को लोक-लुभावन स्कीम भी देती हैं। ऐसे में यह निर्णय लिया गया था कि कृषि विज्ञान केंद्रों के जरिए इन्हें प्रशिक्षित किया जाएगा। हालांकि, वह सिर्फ कागजी ऐलान बन कर रह गया। किसानों को अंधाधुंध रसायन बेचने वाले पर्यावरण के साथ भी अन्याय कर रहे हैं।

आईसीएआर से सेवानिवृत्त राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता वरिष्ठ वैज्ञानिक और मिट्टी जांच की परियोजना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले हैदराबाद निवासी मुरलीधरुडू डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि “कोई भी देश कृषि शोध पर ही निर्भर है। वैज्ञानिकों की नियुक्ति और उनका इस्तेमाल व संख्या बढ़ाना शीर्ष प्राथमिकता पर होना चाहिए। जितने भी हाइब्रिड बीजें विकसित किए जा रहे हैं, वे किसानों तक नहीं पहुंच रहे हैं। निजी कंपनियां बीच में फायदा उठा रही हैं। कोई भी गंभीर प्रयास नहीं हो रहा है। संस्थानों को नकारा बताकर वहां वैज्ञानिकों की नियुक्ति के बजाए राजनीतिक नियुक्तियां की जा रही हैं। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था।”

आईसीएआर की कार्यप्रणाली से कई वैज्ञानिक क्षुब्ध हैं। खासकर युवा और सेवानिवृत्त वैज्ञानिक खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। एक समय था कि वैज्ञानिक खुद खेतों में जाने को लालायित रहते थे। आईसीएआर और अन्य केंद्रीय संस्थान फंड की कमी से परेशान हैं। मुरलीधरुडू बताते हैं कि “अब संस्थानों में युवा वैज्ञानिकों का फायदा नहीं लिया जा रहा जिसके कारण वे सिर्फ कंप्यूटर तक सिमट गए हैं। 20 फीसदी मानव संसाधन की कमी कम नहीं होती। इसे आखिर पूरा क्यों नहीं किया जा रहा। सिर्फ युवा ही नहीं जो वैज्ञानिक बाहर निकले, उन्हें छठवे आयोग वेतन के बाद सातवां वेतन आयोग नहीं दिया गया। 30 वर्षों की सेवा के बाद भी स्वास्थ्य सुविधाएं भी वैज्ञानिकों को नहीं दी जा रही हैं। मैंने 1978 से 2011 तक काम किया। अब इसमें कोई आकर्षण नहीं पैदा किया जा रहा है। न ही युवाओं को मौका दिया जा रहा है और न ही अपने पुराने वैज्ञानिकों का इस्तेमाल किया जा रहा है।”

मुरलीधरुडू ने 2008 से लेकर 2011 के बीच देशभर में मिट्टी के ऊपजाऊपन और उसमें सूक्ष्म पोषण बढ़ाने के लिए देश के 150 जिलों के मिट्टी नमूनों को जांचा था साथ ही उनका आंकड़ा भी जुटाया था। पहली बार डिजिटल मैप भी तैयार किया। यह इतनी महत्वपूर्ण परियोजना थी कि देश के जिन 150 जिलों को चुना गया था वहां अगले पांच वर्ष में मिट्टी को उपजाऊ बनाकर पैदावार बढ़ाई जा सकती थी। इसके लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया था। लेकिन बाद में उनकी परियोजना के नतीजों और सुझावों को कूड़े में फेंक दिया गया। उस वक्त परियोजना के लिए केंद्र ने 10 करोड़ रुपए खर्च किए थे। अब मिट्टी जांच का काम केंद्र के पाले से निकालकर राज्यों को दे दिया गया है। गुजरात में मिट्टी जांच का काम बढ़िया हुआ लेकिन अब विभिन्न राज्यों में प्रयोगशाला नहीं काम कर रहीं। सिर्फ कागजों पर मिट्टी जांच के आंकड़े भरे जा रहे हैं। वह बताते हैं कि प्रयोगशाला में एक भी सही आंकड़ा नहीं डाला जा रहा। किसी भी मिट्टी की जांच के लिए चार से पांच साल लगते हैं। इस तरह मिट्टी की जांच का जो आंकड़ा पेश किया जा रहा है, वह आंखों में धूल झोंकने जैसा है। यदि केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़ों पर गौर करें तो इस वक्त देश के राज्यों में 7,949 प्रयोगशालाएं मिट्टी की जांच के लिए हैं। इसमें ज्यादा कारगर नहीं है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक सिर्फ 154 प्रयोगशाला गांवों में हैं। इनमें 16 आंध्र प्रदेश, 47 हरियाणा, 88 प्रयोगशाला कर्नाटक में हैं। इसके अलावा 6,326 मिनी लैब हैं और 1,304 स्टेटिक व 165 मोबाइल प्रयोगशाला हैं।

मुरलीधरुडू अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “मैं 1978 से 1982 तक दिल्ली में मिट्टी सर्वे के लिए नियुक्त था। उस वक्त शादी के होने के बाद मैं यहां आ गया था। मन में यह था कि मुझे देश के लिए कुछ करना है। मिट्टी जांच के लिए मैं गांव-गांव घूमा था। यूपी में झांसी और बांदा, हिमाचल में कुल्लू, पंजाब में जालंधर जिले में खूब काम किया था। अब वैज्ञानिकों में नैतिक साहस और जिम्मेदारी का बोध भी कम हुआ है।”

इसी तरह आईसीएआर के एक वैज्ञानिक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि अब दबी जुबान में सरकार की ओर से विश्वविद्यालयों को वैज्ञानिकों को खुद से पैसा पैदा करने के लिए कहा जा रहा है। ऐसी स्थितियों में वैज्ञानिक काम बिल्कुल नहीं कर सकता है। यही वजह है कि दूरगामी परिणाम वाले शोध और अनुसंधानों पर ब्रेक लग गया है।

आईसीएआर के ही एक वैज्ञानिक नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि शोध संस्थान समेत कृषि विश्वविद्यालयों को अपना खर्च निकालने के लिए कहा जा रहा है। ऐसा लिखित आदेश तो अभी तक नहीं है लेकिन यह बैठकों में और वरिष्ठ अधिकारियों के लगातार बातों से प्रतीत होता रहता है। वैज्ञानिकों को जब तक स्वतंत्रता और फंड नहीं दिया जाएगा तब तक बेहतर परिणाम सामने नहीं आएंगे। हां, यह बात जरूर है कि आईसीएआर इसके बावजूद भी काम कर रहा है। रफ्तार भले ही धीमी है। नई प्रजातियों पर काम हो रहा है। परिणाम भी सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिकों को कुछ नैतिक दायित्व भी निभाना होगा।

(साथ में उत्तराखंड से वर्षा सिंह, बिहार से उमेश कुमार राय, मध्य प्रदेश से मनीष चंद्र मिश्रा, छत्तीसगढ़ से अवधेश मलिक, उत्तर प्रदेश से महेंद्र सिंह)

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