लघु वनोपज की कमाई से 24 सालों से आदिवासी निर्माण करते आ रहे कच्चा पुल

अगर यह रप्टा वह खुद से न बनाएं तो उनकी आजीविका ही ठप हो जाए
छत्तीसगढ़ के जबर्रा गांव में नदी पर कच्चा रप्टा तैयार करते आदिवासी और दूसरी फोटो में कौशल्या बाई और कुमारी बाई अपने घर पर पत्तल बनाते हुए, फोटो : पुरषोत्तम ठाकुर
छत्तीसगढ़ के जबर्रा गांव में नदी पर कच्चा रप्टा तैयार करते आदिवासी और दूसरी फोटो में कौशल्या बाई और कुमारी बाई अपने घर पर पत्तल बनाते हुए, फोटो : पुरषोत्तम ठाकुर
Published on

छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में स्थित जबर्रा गांव में 102 घर आपस में धनराशि एकत्रित कर पिछले 24 सालों से अपने गांव की नदी पर कच्चा पुल का निर्माण करते आ रहे हैं, दर्जनों पर धरना-प्रदर्शन के बाद भी कोई सुनवाई नहीं।  “हाड़तोड़ दिनरात मेहनत कर जंगलों से माहुल का पत्ता (छत्तीसगढ़ की 67 लघु वनोपज में से एक) बिनते हैं और इससे पत्तल बनाकर हाट में जाकर जैसे-तैसे बेच कर दो पैसा कमाते हैं और हमारी इस घाड़ी कमाई का पैसा हर साल गांव की काजल नदी पर रप्टा (कच्चा पुल) बनाने में खर्च हो जाता है।” यह बात छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 133 किलोमीटर दूर बसे जबर्रा गांव (धमतरी जिला) में अपने घर पर पत्तल बना रही कौशल्य बाई ने डाउन टू अर्थ से कही।

वह बताती हैं कि मैं तो अनपढ़ हूं ज्यादा हिसाब-किताब नहीं जानती लेकिन मुझे अच्छे से याद है कि जब से मैं इस गांव में शादी के बाद आई हूं तब से हर साल हमारी कमाई का एक बड़ा हिस्सा नदी पर रप्टा बनाने पर खर्च हो जाता है। वह बताती हैं कि हम केवल पैसा ही नहीं देते बल्कि हमें बारी-बारी से इस रप्टे के निर्माण के दौरान लगभग 15 से 20 दिनों तक श्रमदान भी करना पड़ता, कभी-कभी श्रमदान के दिन और बढ़ जाते हैं। उनके पास ही पत्तल बनाने में जुटी उनकी बुजुर्ग सास कुमारी बाई निराशा भरे स्वर में कहती हैं, “कायदे से देखा जाए तो यह काम सरकार का है लेकिन न जाने कितने साल हो गए हम गांव वाले ही इस रप्टे को बनाते आ रहे हैं और न मालूम कब कौन सी सरकार आएगी जब यहां पर एक पक्का रप्टा बनाएगी।” उनके पास ही खड़े उनके बेटे माधव सिंह मकराम कहते हैं, “हम पिछले 24 सालों से इस नदी पर बस एक पक्का रप्टा बनाने की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार के कानों में अब तक जूं नहीं रेंगी।” वह कहते हैं कि हम तो बस एक पक्के रप्टे की मांग कर रहे हैं, कोई पक्के पुल के निर्माण की बात आज तक हमने नहीं की है लेकिन हम ग्रामीणों की अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई है। मकराम के पास ही खड़े ग्रामीण कृणा नेताम ने कहा कि बताइए हमारी घर की महिलाएं अपने जीवन यापन के लिए चौबिशों घंटे जंगलों की खाक छानते फिरते हैं, तब जाकर हम जड़ी-बूटी या कुछ दूसरे जंगली उपज ला पाते हैं, फिर हमें अपनी इस खूनपसीने की कमाई का एक हिस्सा हर साल नदी के रप्टे के निर्माण पर खरचना पड़ जाता है, यह कहां का न्याय है?  

मकराम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सरकारी उदासीनता के कारण ही हम ग्रामीण पिछले लगभग ढाई दशक से आपस में ही पैसा एकत्रित कर नदी पर कच्चा रप्टा बनाते आ रहे हैं। ध्यान रहे कि जबर्रा गांव अपने ग्राम वन प्रबंधन समिति के सदस्यों से नदी पर बनाए जाने वाले कच्चे रप्टा के निर्माण के लिए अपनी लघु वनोपज की कमाई से आए पैसे आपस में एकत्रित करते हैं और इस धनराशि से नदी पर रप्टा का निर्माण किया जाता है। इसके बाद नदी पार कर नगरी ब्लॉक और गरियाबंद जिले के हाटों में पहुंच कर जंगलों से एकत्रित अपनी लघुवनोपज बेच पाते हैं।           

यह गांव भौगोलिक स्तर पर धमतरी जिले में आता है लेकिन  यहां के ग्रामीणों के लिए जिले का बाजार यहां से 61 किलोमीटर दूर पड़ता है जबकि नदी पार करने पर यह दूरी सिमट कर 12 से 13 किलोमीटर रह जाती है।  यही कारण है कि गांव के सैकड़ों लोग पिछले सालों में अनगिनत बार जिला कलेक्टर कार्यालय से लेकर कई संबंधित सरकारी कार्यालयों के सामने धरना-प्रदर्शन करते आ रहे हैं लेकिन कहीं उनकी सुनवाई नहीं हुई है। ग्रामीण को हर साल स्वयं के पैसे कच्चा रप्टा बनाते हैं और यह कच्चा रप्टा जून से शुरू होने वाली बारिश में हर साल बह जाता है। इस बार भी बीते जून बह गया था और इसका निर्माण कार्य ग्रामीणों द्वारा किया जा रहा है। पिछले छह माह से आदिवासियों को यानी जून से लेकर अक्टूबर तक अपनी लघु वनोपज को दूर के बाजार में बेचने पर मजबूर होना पड़ता है। इससे उनकी आय पर सीधा असर पड़ता है। कारण कि उन्हें अपनी लघु वनोपज को बाजार तक पहुंचाने के लिए परिवहन साधनों की मदद लेनी पड़ती है। मकराम ने बताया, “ऐसे में हमारी पचास फीसदी कमाई किराया-भाड़ा में खर्च हो जाती है।”

काजल नदी पर बनाए जाने वाले कच्चे रप्टे पर ग्रामीण पैसा तो आपस में एकत्रित करते ही हैं साथ ही प्रतिदिन हर एक घर से एक व्यक्ति श्रमदान भी करता है। यह कार्य अक्टूबर के तीसरे हफ्ते में शुरू होता है और नवंबर के दूसरे हफ्ते तक चलता है। प्रतिवर्ष इस रप्टे के निर्माण पर 40 से 50 हजार रुपए खर्च आता है। कभी-कभी निर्माण के लिए बुलाई जाने वाली जेसीबी मशीन का किराया अधिक होता है तो ग्रामीणों को कई बार आपस में दोबारा पैसे एकत्रित करना पड़ता है।

रप्टे का निर्माण

छत्तीसगढ़ के धमतरी गांव में स्थित जबर्रा गांव के मुहाने पर बहने वाली काजल नदी पर निर्माणाधीन रप्टे का निर्माण कार्य तेजी से चल रहा है। ग्रामीण बड़ी मात्रा में पर जंगली घासों को नदी पर डाल रहे हैं और जेसीबी मशीन इस पर मिट्टी का डाल रही है। इस बीच निर्माण स्थल पर जंगली घासों का एक बड़ा बोझा सिर से उतार उसे पैरों से बिछा रही 60 वर्षिय बीरझा सोरी ने डाउन टू अर्थ से कहा, यह काम तो हम हर बरस करते हैं,तभी जाकर दो पैसे की बचत हो पाती है नहीं तो दूसरी ओर अपनी जंगल की उपज बेचने जाते हैं तो हमारा आधा पैसा तो गाड़ी पर खर्च हो जाता है। बीरझाा के घर की तरफ से आज श्रमदान का दिन है। इसलिए वह सुबह से ही आ गईं हैं ताकि अधिक से अधिक काम निपटाया जा सके। वह बताती हैं कि हमारी आधी उमर तो इस रप्टा बनाने में खर्च हो गई है। सुबह से लगातार काम करने के कारण वह थक चुकी हैं और अपना चेहरा पसीने से पोंछते हुए कहती हैं कि अब तो मैं पूरा दिन काम भी नहीं कर पाती, बताइए अभी दोपहर के एक बजे रहे हैं और मैं थक के चूर हो चुकी हैं। ध्यान रहे कि ऐसे में उनके घर से किसी दूसरे सदस्य को श्रमदान के लिए आना होगा।

रप्टा के निर्माण के शुरू होने से लेकर इसके पूरे होने तक गांव के हर घर से एक सदस्य प्रतिदिन श्रमदान के लिए आते हैं। मकराम ने बताया कि कभी-कभी अधिक लोगों की जरूरत पड़ने पर हम ग्राम वन प्रबंधन समिति में इस बात का भी निर्णय ले लेते हैं कि कुछ दिनों के लिए हर घर से दो सदस्य श्रमदान के लिए आएंगे। ग्राम वन प्रबंधन समिति इस बात का विशेष ख्याल रखती है कि श्रमदान के लिए गांव से पुरुष और महिलाओें की संख्या आधी-आधी ही होनी चाहिए। इसमें किसी प्रकार कि घटबढ़ स्वीकार्य नहीं है।  

जहां तक कितना पैसा एक घर को देना है, यह निर्णय ग्राम वन प्रबंधन समिति खर्च के हिसाब से प्रति घर पैसा निर्धारित करती है। जैसे इस बार प्रति घर 500 रुपए निर्धारित किया गया है। यदि इस राशि को सौ घरों से गुणा कर दें तो यह राशि पचास हजार हो जाती है। हालांकि रप्टा पर श्रमदान के लिए अपने घर से निकल रही धमशिला कहती हैं कि कभी तो हमें आपस अधिक धनराशि भी खर्च करनी पड़ जाती है, क्योंकि कई बार मशीनरी का किराया बढ़ जाता है।

नदी पर बन रहे रप्टा के लिए गांव वाले किसी इंजीनियर को कभी नहीं बुलाते हैं। ग्रामीण अपने पारंपरिक ज्ञान के दम पर इस रप्टे का निर्माण पिछले 24 सालों से करते आ रहे हैं। अपने घर की देहरी पर बीड़ी पी रहे रामबाहू नेताम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि हमारा दादा-परदादाओं ने हमारे पिता को सिखाया कि कैसे बहती नदी को नुकसान के बिना ही रप्टा बनाना और हम उनसे सीख गए हैं। वह बताते हैं कि रप्टा हम इसलिए बनाते हैं कि ताकि नदी का पानी रप्टा के ऊपर से आसानी से निकल सके। ध्यान रहे कि जहां भी कच्चा या पक्का पक्का रप्टा बनाया जाता है, वह इस तरह से बनाया जाता है कि नदी में अधिक पानी आने कि स्थिति में वह आसानी से रप्टा के ऊपर से निकल सके।

काजल नदी पर जबर्रा गांव क आदिवासियों द्वारा बनाए गए पुल के कारण आसपास के 15 ग्राम पंचायतों को गरियाबंद जिला और नगरी ब्लॉक पहुंचने में आसानी होती है। ग्रामीणों को इस रप्टा के निर्माण के बाद औसतन 36 से 40 किलीमीटर दूरी हाट-बाजार से कम हो जाती है। क्योंकि जबर्रा गांव से धमतरी मुख्यालय की दूरी 61 किलोमीटर है और नगरी व गरियाबंद की दूरी 10 से 12 किलोमीटर पड़ती है।

रामबाहू ने बताया कि गांव में छह माह का खर्चा जंगल की उपज से चलता है। यहां कोई भी आदमी निजी क्षेत्र में काम नहीं करता है। जबर्रा जैसे बड़े गांव में केवल आदमी को सरकारी नौकरी मिली है, वह भी चपरासी की अन्यथा सभी ग्रामीणों की आजीविका जंगल पर ही पूरी तरह से निर्भर है। ग्रामीण जंगल की उपज अक्टूबर से लेकर मार्च तक एकत्रित करते हैं। रामबाहू ने बताया कि हम अपनी जंगल की उपज का केवल 20 प्रतिशत ही सरकार को बेचते हैं बाकि 80 फीसदी उपज हाट बाजार में जा कर बेचते हैं। इसका कारण बताते हुए बेंदापानी गांव की मीना नेताम ने डाउन टू अर्थ को बताया कि सरकार जो खदीद करती है वह हमारे खाते में डालती है और यह बहुत देर से आता है साथ ही हमारे गांव में कोई पढ़ा लिखा नहीं है, ऐसे में हमारे लोगों को खाताबही न तो देखना आता है और न वाचना। कई ग्रामीणें ने शिकायत की है कि ऐसे में खाते में आए पैसे को वे ठीक से गिन नहीं पाते है, जो बैंक वाले ने दिए वहीं लेकर आ गए। उनको मालूम ही  नहीं कि उनके खाते में कितने पैसे आए और कितना उन्हें मिला। मीना कहती हैं कि ऐसे विपरीत हालात में हमें अपनी जीविका चलाने के लिए तुरंत कैश की जरूरत होती है इसलिए हम हाट में जाकर अपनी उपज बेंचते हैं। मीना गांव में सड़क किनारे कपड़े फैलाकर जंगल से खोदकर लाए गए दो प्रकार के जीमीकंद बेंच रही हैं, एक का भाव 40 रुपए है और यह आसानी से मिल जाता है जबकि दूसरे का नाम करुकांदा है, वे इसे 60 रुपए किली बेच रही हैं, क्योंकि यह मुश्किल से मिलता है। वह कहती हैं कि हमारे लिए कैश जरूरी है, सरकार भी यदि हमारी उपज का कैश दे तो हम उसी को देंगे। 

गांव की अधिकांश महिलाएं ही जंगलों में जाकर जंगली उपज एकत्रित करने का काम करती हैं और वे ही उसे बेचने लायक बनाती हैं। इसके बाद ही पुरुषों का काम शुरू होता है कि उसे निजी बाजार में जाकर बेचना है या ग्राम वन प्रबंधन समिति को बेचना है। ध्यान देने की बात है कि खुले बाजार में बेचने से आदिवासियों का अपनी उपज का अधिक पैसे मिलने की संभावना होती है जबकि सरकारी समर्थन मूल्य निश्चित होता है। इस  संबंध में कृषणा नेताम ने बताया कि सरकार जब हमारी उपज की खरीद करती है तो उसके कई चोंचले होते हैं, कभी तो कह देगी तुम्हारे बनाए गए पत्तल पूरी तरह से सूखे नहीं है इसलिए बड़ी मात्रा में हमारे बनाए गए पत्तल रद्द कर देती है। इसके अलावा अन्य  वनोउपज में वह मीनमेख निकालकर बड़ी मात्रा में उपज को रद्दी बना देती है। यही कारण कि अधिकांश ग्रामीण खुले बाजार में जाकर अपनी उपज बेचना पसंद करते हैं और इससे उनको तुरंत नकदी मिल जाती है। 

छत्तीसगढ़ सरकार 2024-25 के दौरान राज्य में भर में 67 प्रकार की वनोपज खरीद रही है। जब यह 2001 में  राज्य बना था तब सरकारी खरीद के तौर पर सरकार केवल 7 प्रकार की वनोपज ही लेती थी। जबर्रा गांव में वर्तमान में 2024-25 के दौरान इस क्षेत्र में पाई जाने वाली 19 प्रकार की वनोपज की सरकार खरीद करती है।   

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in