
भारत भर के किसान संगठनों, बीज संरक्षकों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने चेतावनी दी है कि एक नया अंतरराष्ट्रीय समझौता बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत के पारंपरिक बीजों तक पहुंच की इजाजत दे सकता है, वह भी बिना किसानों के अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा के ऐसा हो सकता है।
यह चर्चा संयुक्त राष्ट्र की ‘पौध आनुवंशिक संसाधनों पर अंतरराष्ट्रीय संधि’ (पीजीएफआरए) के तहत हो रही है, जिसे सामान्य तौर पर प्लांट ट्रीटी कहा जाता है। इसका उद्देश्य बीजों के आदान-प्रदान को सुविधाजनक बनाना और उनके उपयोग से उत्पन्न लाभों का समान बंटवारा सुनिश्चित करना है। खासकर तब, जब कोई निजी कंपनी पारंपरिक किस्मों से व्यावसायिक फसलें विकसित करती है।
यह संधि वैश्विक खाद्य सुरक्षा और फसल विविधता के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, विशेष रूप से ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन और कॉरपोरेट नियंत्रण छोटे किसानों और पारंपरिक कृषि को संकट में डाल रहे हैं।
जुलाई 7 से 11, 2025 के बीच पेरू के लीमा में देशों के बीच बातचीत हो रही है, जहां एक नया "उपायों का पैकेज" तय किया जाना है। भारत इस बैठक की सह-अध्यक्षता कर रहा है। लेकिन नागरिक समाज समूहों का कहना है कि मौजूदा प्रस्ताव कॉरपोरेट हितों को प्राथमिकता देते हैं और किसानों की सुरक्षा को कमजोर कर सकते हैं।
इस समय, संधि के तहत एक बहुपक्षीय व्यवस्था है जो गेहूं और चावल जैसे 64 खाद्य फसलों को कवर करती है। देश इन आनुवंशिक संसाधनों को साझा करने के लिए सहमत होते हैं, जबकि कंपनियों से अपेक्षा की जाती है कि वे इनका व्यवसायीकरण करने पर लाभ का एक हिस्सा साझा करें।
लेकिन यह व्यवस्था अपने उद्देश्यों में विफल रही है। लाखों बीज नमूने वैश्विक स्तर पर साझा किए गए, लेकिन भारत जैसे देशों को इसके बदले न तो वित्तीय लाभ मिला और न ही पारदर्शिता।
इन्हीं खामियों को दूर करने के लिए वार्ताकारों ने एक नया “द्वैध-पहुंच प्रणाली” प्रस्तावित की है, जिसमें कंपनियों को दो विकल्प दिए जाएंगे:
सब्सक्रिप्शन मॉडल: एक तय शुल्क के बदले व्यापक पहुंच
सिंगल-एक्सेस मॉडल: केवल उत्पाद के व्यवसायीकरण पर भुगतान
आलोचकों का कहना है कि यह लचीलापन कंपनियों को अनुचित फायदा पहुंचाएगा। वे लागत से बचने के लिए दोनों मॉडलों के बीच स्विच कर सकती हैं, जैसे उत्पाद की घोषणा में देरी करना या लॉन्च से ठीक पहले सस्ते मॉडल का चुनाव करना।
थर्ड वर्ल्ड नेटवर्क के केएम गोपाकुमार ने चेताया, “जैसे ही आप बिना सख्त शर्तों के पहुंच खोलते हैं, वैश्विक कंपनियां बीज संग्रहों तक पहुंच पाएंगी बिना कोई लाभ साझा किए। वे फिर नई किस्में बनाएंगी और उन्हें बौद्धिक संपदा कानूनों के तहत सुरक्षित कर लेंगी।”
एक और बड़ी चिंता है डिजिटल अनुक्रमण सूचना (डीएसआई) — यानी बीजों से निकाले गए आनुवंशिक डेटा की। आधुनिक जैवप्रौद्योगिकी के जरिए कंपनियां इन सूचनाओं को सार्वजनिक डेटाबेस से डाउनलोड कर सकती हैं, नए बीज विकसित कर सकती हैं और उन्हें व्यवसायीकृत कर सकती हैं — बिना असली बीज को छुए या स्रोत देश को कोई मुआवजा दिए।
राष्ट्रीय किसान महासंघ के केवी बिजू ने प्रधानमंत्री को लिखे पत्र में बताया कि अंतरराष्ट्रीय कृषि अनुसंधान समूह जैसे संगठन भारत जैसे देशों से मिले बीजों का डीएनए डेटा निकालकर उसे ऑनलाइन अपलोड कर देते हैं।
बिजू ने लिखा, “भारत को इसके बदले कुछ नहीं मिलता — यहां तक कि यह भी नहीं पता चलता कि डेटा का उपयोग कौन कर रहा है। यह नया प्रस्ताव ‘गुमनाम साझेदारी’ जैसी मौजूदा प्रथाओं को वैधता देने का प्रयास है।”
गोपाकुमार ने चेताया कि यदि डिजिटल डेटा का उचित शासन नहीं हुआ, तो भारत अपने जैव संसाधनों के आनुवंशिक डेटा पर संप्रभुता खो सकता है।
उन्होंने कहा, “सिंगल-एक्सेस मॉडल और डीएसआई के लाभ बंटवारे पर चुप्पी, इस प्रस्ताव के सबसे खतरनाक हिस्से हैं। भारत की जैव विविधता पर से राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण का नियंत्रण खत्म हो सकता है।”
बीज नीति विशेषज्ञ नरसिम्हा रेड्डी ने आगाह किया कि डीएसआई को लेकर बन रहे नए अंतरराष्ट्रीय समझौते भारत की आनुवंशिक संपदा पर नियंत्रण को कमजोर कर सकते हैं। उन्होंने कहा, “यह चर्चा ऐसी दिशा में जा रही है जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों को तो आसानी से पहुंच मिलेगी लेकिन किसानों के लिए रास्ते और कठिन हो जाएंगे।”
कानूनी शोधकर्ता शालिनी भूतानी ने कहा कि किसानों के अधिकार तब तक अर्थहीन हैं जब तक उन्हें बीजों को सहेजने, उपयोग करने और साझा करने पर नियंत्रण नहीं मिले।
“राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय कानूनों में किसानों के अधिकार हों भी, असली कसौटी यह है कि क्या स्थानीय बीजों को कैसे संभालना है — इसमें किसानों की बात सुनी जा रही है,” उन्होंने कहा। “बीज संरक्षक आमतौर पर महिलाएं और आदिवासी किसान होते हैं। उनके ज्ञान को मान्यता और संरक्षण मिलना चाहिए।”
उन्होंने यह भी जोड़ा कि किसानों की पारंपरिक किस्में और ‘लैंडरेसेस’ जलवायु लचीलापन और पोषण सुरक्षा में अहम भूमिका निभाती हैं। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि बीते दो दशकों में न तो प्लांट ट्रीटी और न ही भारत का पौध किस्म और किसान अधिकार संरक्षण अधिनियम (पीपीवीएंडएफआर एक्ट ) किसानों को कोई ठोस लाभ दे सका, जबकि हजारों किस्मों का पंजीकरण हो चुका है।
भूतानी ने "असमानता" और "विविधता" को दो बड़ी खामियों के रूप में पहचाना — बड़ी बीज कंपनियों के मुनाफे बढ़े हैं, जबकि ग्रामीण किसान गरीब होते गए हैं और परंपरागत किस्में खत्म होती जा रही हैं।
एक प्रस्ताव संधि का दायरा बढ़ाकर सभी पौध आनुवंशिक संसाधनों (पीजीआरएफए) को शामिल करने की बात कर रहा है — जिसमें जंगली, अनउगाई और गैर-खाद्य पौधे भी शामिल होंगे। आलोचकों का कहना है कि इससे भारत की विशाल जैव विविधता उस व्यवस्था में समा जाएगी जो पहले ही विफल साबित हो चुकी है।
बिजू ने लिखा, “इससे भी बुरा यह है कि लाभ न तो संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के जरिए साझा किए जाएंगे और न ही भारत की राष्ट्रीय एजेंसियों को मिलेंगे। कंपनियां बीजों का उपयोग कृषि के अलावा खाद्य प्रसंस्करण, जैवप्रौद्योगिकी और चिकित्सा तक में करती हैं, लेकिन इनसे होने वाला मुनाफा कभी साझा नहीं किया जाता।”
उन्होंने चेताया कि, “किसी भारतीय बीज से बनी दवा… अंततः वही दवा भारत की पब्लिक हेल्थ सिस्टम को ऊंचे दामों पर बेची जाएगी।”
कई किसान समूहों का मानना है कि संधि की दिशा अब कॉरपोरेट हितों से तय हो रही है। बिजू ने लिखा, “अधिकांश अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब कॉरपोरेट घरानों का सीधा प्रभाव है। वे एजेंडा तय कर रहे हैं और किसान, आदिवासी समुदायों व नागरिक समाज की आवाज को हाशिए पर डाल रहे हैं।”
भारत अकेला ऐसा देश नहीं है जो चिंतित है। अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका के कई देशों ने भी इस प्रस्तावित पैकेज की आलोचना की है, जो जैव विविधता सम्मेलन (सीबीडी) का उल्लंघन करता है, भारत जैसे देशों के जैव विविधता अधिनियम और किसान अधिकार अधिनियम को कमजोर करता है, और पारंपरिक बीज संरक्षकों के योगदान और अधिकारों की अनदेखी करता है।
लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देश जैसे कुछ क्षेत्रों ने इसके विकल्प भी सुझाए हैं — जैसे अनिवार्य अग्रिम भुगतान या सिंगल-एक्सेस मॉडल पर सीमाएं। लेकिन अब तक कोई आम सहमति नहीं बन पाई है। वहीं उद्योग जगत सरल नियमों के पक्ष में लॉबिंग कर रहा है ताकि उनके वित्तीय दायित्व कम हो जाएं।
भारत में सबसे मजबूत आलोचना यह है कि किसान संगठनों और राज्य सरकारों से कोई परामर्श नहीं किया गया, जबकि प्रस्तावों का सीधा असर उन्हीं पर पड़ेगा — उनके बीजों, ज्ञान और अधिकारों पर।
बिजू ने अपील की, “हम सरकार से अनुरोध करते हैं कि कोई भी पैकेज स्वीकार करने से पहले किसान संगठनों और राज्य सरकारों से परामर्श करें।”
लीमा की यह बैठक नवंबर 2025 में होने वाली गवर्निंग बॉडी की अंतिम बैठक से पहले आखिरी बड़ा मौका है जब पैकेज को बदला या खारिज किया जा सकता है।
बिजू ने चेताया, “भारत को स्पष्ट करना चाहिए कि सह-अध्यक्ष के प्रस्ताव हमारी राष्ट्रीय नीति का प्रतिनिधित्व नहीं करते। नहीं तो हम एक ऐसे समझौते को स्वीकार करने के लिए मजबूर हो सकते हैं जो हमारे कानूनों और किसानों के खिलाफ जाता है।”