केरल के कन्नूर जिले की एक महिला किसान ने अपने पुराने काजू के बगीचे को बचाने के लिए एक तकनीक ईजाद की है। इस तकनीक की मदद से विनाशकारी कीट के हमलों और बार-बार आने वाले चक्रवाती तूफानों से काजू के पेड़ों को बचाया जा सकता है। यहां बताते चले की बेधक कीट के रूप में जाना जाने वाला यह कीट काजू के पेड़ के तनों और जड़ों पर सुराख करके उन्हें कमजोर कर देता है। तूफान के आने पर पेड़ जमींदोज हो जाते है। अब इस महिला किसान ने पेड़ को सहारा देने वाली जड़ें विकसित करने संबंधी तकनीक बनाई है।
काजू जिसका वैज्ञानिक नाम एनाकार्डियम ऑसीडेंटेल एल. है। भारत में काजू की खेती का क्षेत्रफल लगभग 10.11 लाख हेक्टेयर है, जो काजू उगाने वाले सभी देशों में सबसे अधिक है। काजू का कुल वार्षिक उत्पादन लगभग 7.53 लाख टन है। कई किसान अपनी आजीविका के लिए इस काजू पर निर्भर हैं। हालांकि, कई जैविक और अजैविक कारकों से काजू का उत्पादन पर असर पड़ रहा है। तने और जड़ों में सुराख कर काजू के पेड़ों को नुकसान पहुंचाकर कमजोर करने वाले कीटों में से एक थोड़े समय के भीतर बड़े पेड़ों को भी खत्म करने में सक्षम है।
कीटों के प्रकोप के अलावा, भारत के तटीय राज्यों में काजू की खेती लगातार तेज होते चक्रवातों से प्रभावित होती है। इस तरह की हर तबाही से उबरने में लगभग दस साल से अधिक का समय लग जाता है।
इन चुनौतियों से निपटने के लिए, केरल की श्रीमती अनिम्मा बेबी ने एक नए काजू मल्टीपल रूटिंग प्रोपेगेशन विधि विकसित की है। यह विधि एक बड़े काजू के पेड़ में कई जड़ें उत्पन्न करती है। इस प्रकार प्रति इकाई क्षेत्र में उत्पादन में भी सुधार करती है। यह स्टेम और रूट बेधक के पर्यावरण के अनुकूल प्रबंधन में भी मदद करती है। उत्पादकता को बनाए रखती है, हवा तथा चक्रवाती तूफानों से पेड़ों को होने वाले नुकसान के खिलाफ मजबूती प्रदान करती है। यह विधि पौधों को बिना वृक्षारोपण या दुबारा लगाए लंबा जीवन प्रदान करती है।
कैसे विकसित हुई तकनीक?
अनियम्मा ने कहा उन्होंने 2004 में, पेड़ों से काजू की फसल को निकालने के दौरान, देखा कि काजू की एक शाखा, जो लंबे समय से मिट्टी के संपर्क में थी, उसमें अतिरिक्त जड़ें पैदा हो रही हैं। उन्होंने देखा कि इस तरह जड़ से निकलने वाले नए पौधे का विकास सामान्य काजू के पौधे की तुलना में तेजी से हो रहा था।
उन्होंने देखा कि अगले वर्ष तने में सुराख करने वाले कीट ने मूल पौधे को नष्ट कर दिया, लेकिन नया विकसित पौधा स्वस्थ था और तने में हुए सुराख के संक्रमण से प्रभावित नहीं था। मदर प्लांट से नए पौधों की जड़ें और विकास देखकर, उन्होंने निचली समानांतर शाखाओं के नोड्स पर पॉटिंग मिश्रण से भरी थैली लपेटकर नए पौधे विकसित करने के बारे में सोचा।
अनियम्मा ने खोखले तने की मदद से नई जड़ को जमीन पर लगाया, साथ ही जमीन के करीब की शाखाओं में वजन डालकर उनमें जड़ निकलने के लिए उन्हें मिट्टी से ढक दिया। उनके दोनों प्रयोग सफल रहे और वह इन दो विधियों का उपयोग अपने पुराने काजू के बागानों में पिछले 7 वर्षों से अपने परिवार को काजू की अधिक उपज की निरंतर आपूर्ति में मदद कर रहीं हैं।
भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के अंतर्गत आने वाले नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन जो कि एक स्वायत्त संगठन है। इसके तहत भारत सरकार ने आवश्यक सहायता और नई गतिविधियों के लिए इस नवीन प्रौद्योगिकी को अपनाया है।
प्रौद्योगिकी - सीनील वृक्षारोपण के लिए काजू मल्टीपल रूटिंग को आईसीएआर ने कर्नाटक के जिला पुत्तूर के मोट्टेथडका, दर्बे, काजू अनुसंधान निदेशालय और इसे वेल्लानिक्करा, जिला, त्रिशूर के केरल कृषि विश्वविद्यालय के द्वारा 2020 में सत्यापित किया गया।
उन्होने बताया कि यह अनोखा है और हवा और चक्रवाती तूफानों के खिलाफ पेड़ों को मजबूती प्रदान करता है और काजू के पेड़ों को काजू के तने और जड़ में सुराख करने वाले कीटों के गंभीर हमले से भी बचाता है। यह पर्यावरण के अनुकूल और लागत प्रभावी तरीके से पुनर्स्थापित किया जा सकता है। यह तकनीक काजू उत्पादकों को उपज बढ़ाने को लेकर नई आशा प्रदान करती है।
इनमें उपयोग की जाने वाली दो अलग-अलग विधियों शामिल हैं, बेलनाकार आकार विधि, जिसमें मिट्टी के मिश्रण (मिट्टी और गाय के गोबर) से भरी एक थैली को जमीन के समानांतर उगने वाले काजू की निचली शाखाओं पर बांधा जाता है।
नई जड़ें जो पहले होती हैं, उन्हें मिट्टी और गाय के गोबर से भरे खोखले तने के माध्यम से जमीन पर लगा दिया जाता है। एक वर्ष में, ये जड़ें विकसित होती हैं और काजू के जड़ों के नेटवर्क में जुड़ जाती हैं, जो पौधे को पोषक तत्व और पानी के लिए एक अतिरिक्त चैनल के रूप में कार्य करते हैं जिससे उपज में सुधार होता है।
जमीन के समानांतर नीचे की और की शाखा विधि या लो लाइंग पैरेलल ब्रांच मेथड जिसमें खोजकर्ता ने निचली शाखाओं की गांठों के चारों ओर पत्थरों का ढेर लगाया और उन्हें मिट्टी और गाय के गोबर से ढक दिया। इन बिंदुओं पर जड़ें निकलती हैं और फिर वह शाखा नए पेड़ के रूप में विकसित होती है जबकि मुख्य पेड़ का शेष भाग होता है। वह चट्टानी क्षेत्रों में पड़ी शाखाओं पर भी जड़ें जमाने में सफल रही हैं।