भारत में समय के साथ खेती-किसानी के तरीकों में काफी बदलाव आया है। पहले किसान एक ही पारम्परिक तरीके से खेती किया करते थे, लेकिन अब वो इसके लिए अलग-अलग तरीकों की मदद ले रहें हैं। एक समय था जब कृषि उत्पादकता को बढ़ाने पर ही जोर दिया जाता था। उत्पादन की यह अंधी दौड़ प्रकृति के लिए अनगिनत समस्याएं पैदा कर रही थी।
लेकिन वहीं अब कृषि में उत्पादन के साथ-साथ पर्यावरण और जैवविविधता को भी तवज्जो दी जाने लगी है। प्राकृतिक और जैविक कृषि ऐसे ही उदाहरण हैं जिनमें पर्यावरण अनुकूल तरीकों से खेती की जाती है। इससे न केवल अच्छी पैदावार होती है। साथ ही पर्यावरण को भी सुरक्षित रखा जा सकता है। यही वजह है कि इन तरीकों को न केवल सरकार का बल्कि किसानों का भी भरपूर समर्थन मिल रहा है।
सरकार ने भी देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए नेशनल मिशन फॉर नेचुरल फार्मिंग (एनएमएनएफ) की शुरूआत की है। इसका उद्देश्य देश में कीटनाशकों और अन्य रसायनों के उपयोग में कमी लाना और क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर को बढ़ावा देना है।
झारखण्ड देश का एक प्रमुख कृषि उत्पादक राज्य है, जहां प्राकृतिक खेती को काफी बढ़ावा दिया जा रहा है। जैविक कृषि को बढ़ावा देने के लिए 2012 में झारखंड सरकार ने एक सोसायटी 'आर्गेनिक फार्मिंग अथॉरिटी ऑफ झारखंड' (ओएफएजे) का गठन किया था।
देखा जाए तो झारखण्ड की 80 फीसदी ग्रामीण आबादी अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है। झारखंड में करीब 26.3 फीसदी आबादी अनुसूचित जनजाति से सम्बन्ध रखती है, यह आंकड़ा राष्ट्रीय औसत से कहीं ज्यादा है। इतना ही नहीं झारखंड में जमीन का एक बड़ा हिस्सा, करीब 29 फीसदी वनों से ढका है। राज्य में कृषि भी काफी हद तक प्रकृति पर निर्भर है।
झारखंड में कृषि से जुड़ी अनगिनत चुनौतियां हैं। खेती काफी हद तक प्रकृति पर निर्भर है, ऐसे में सही नीतियों, संसाधनों और निवेश के आभाव में उत्पादकता कम हो जाती है। राज्य में मुख्य रूप से धान की पैदावार की जाती है, जिसके लिए पर्याप्त पानी की व्यवस्था नहीं है। समस्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि झारखण्ड में 92 फीसदी कृषि भूमि पर सिंचाई की व्यवस्था नहीं है, मतलब की वो पूरी तरह बारिश पर निर्भर है।
झारखण्ड में मिट्टी उपजाऊ है, लेकिन साथ ही वो कटाव जैसी समस्याओं का भी सामना कर रही है। ऐसे में राज्य में प्राकृतिक कृषि से जुड़ी ऐसी कई चुनौतियां हैं जिन्हें हल किया जाना है। हाल ही में झारखण्ड के रामकृष्ण मिशन विवेकानन्द शैक्षिक एवं अनुसंधान संस्थान (आरकेएमवेरी) के शोधकर्ताओं ने झारखण्ड में प्राकृतिक कृषि से जुड़े मुद्दों और चुनौतियों को लेकर एक अध्ययन किया है।
यह शोध झारखण्ड के आठ जिलों में 151 खेतों पर किए अध्ययन पर आधारित है। इन खेतों पर किसान पिछले नौ वर्षों से प्राकृतिक खेती कर रहे हैं। अध्ययन में कृषि विशेषताओं, फसल विकल्पों और प्रबंधन प्रथाओं के साथ पोषक तत्वों, श्रम और उत्पादन के संदर्भ में प्राकृतिक खेती की तुलना 'पारंपरिक' खेतों से की गई है।
इस अध्ययन में जो मुख्य चुनौतियां और सुझाव दिए गए हैं वो निम्नलिखित हैं:
प्राकृतिक कृषि से जुड़े लोगों को एक साथ लाना, जिससे साझा ज्ञान का बेहतर उपयोग किया जा सके।
प्राकृतिक खेती की प्रकृति बेहद जटिल है। जब व्यवहार में लाया जाता है, तो इसमें कुछ ऐसे सिद्धांत शामिल होते हैं जिन्हें सीधे तौर पर लागू करना कठिन होता है। इससे प्राकृतिक खेतों को परिभाषित करना और उनकी तुलना करना कठिन हो जाता है, खासकर जब किसान किसी विशिष्ट मॉडल का सटीक रूप से पालन नहीं करते हैं।
दार्शनिक मुद्दों और वास्तविक परिस्थितियों से आने वाली यह चुनौती प्राकृतिक खेती का अध्ययन करने के तरीकों को भी प्रभावित करती है। इसकी वजह से यह संदेह और आलोचनाओं का कारण बन सकती है। ऐसे में इससे बचने और प्राकृतिक खेती की सफलता को मापने के एक सामान्य तरीके पर सहमत होना महत्वपूर्ण है।
संसाधनों को साझा करने के साथ प्राकृतिक खेती को आम बनाने के लिए संगठनों के बीच आपसी सहयोग जरूरी है। हमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण का सम्मान करके हुए इससे जुड़े विभिन्न लोगों से बात करनी चाहिए जिससे एक मत से यह निर्णय हो सके कि हम प्राकृतिक खेती का उपयोग क्यों कर रहे हैं।
हम तब तक यह नहीं कह सकते कि प्राकृतिक खेती निश्चित रूप से बेहतर है, जब तक कि हम जो तुलना कर रहे हैं उसके बारे में बहुत स्पष्ट न हों।
प्राकृतिक खेती सभी किसानों के लिए समान रूप से अच्छी नहीं हो सकती। अन्य चीजों के साथ-साथ, अच्छी प्राकृतिक परिस्थितियों, स्वस्थ मिट्टी और पानी की पहुंच प्राकृतिक खेती को बेहतर बनाती है। यही कारण है कि प्राकृतिक खेती से जुड़े प्रयास और प्रसार करते समय विशिष्ट स्थानों और खेतों पर ध्यान देना जरूरी है।
जब हम ऐसी प्रणालियां बनाते हैं जो कृषि में सिंचाई, संगठन तैयार करने, उत्पादों को बेहतर बनाने और बाजार से जुड़ने जैसी बातों में मदद करती हैं, तो प्राकृतिक खेती कम अनुकूल स्थानों में भी बेहतर परिणाम दे सकती है।
ऐसे विशिष्ट क्षेत्र की पहचान करना जो पारिवारिक श्रम से निकटता से जुड़ा है
श्रम के अनुमानित मूल्य को छोड़कर, प्राकृतिक खेती में श्रम पर होने वाला व्यय कम है क्योंकि इसमें परिवार के सदस्य मदद करते हैं। लेकिन यह श्रम परिवार के आकार, प्रकार और पुरुष सदस्यों के प्रवासन पर निर्भर करता है।
ऐसे में खेतों को भूमि के आकार और पारिवारिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकृत करने से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि कौन से छोटे किसान अपने परिवार की मदद और प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करके प्राकृतिक कृषि को बेहतर तरीके से कर सकते हैं।
प्राकृतिक खेती बेहतर है या नहीं, तब तक यह तय नहीं कर सकते, जब तक हम यह नहीं बताते कि किस आकार और समूह के बारे में बात कर रहे हैं
कई मामलों में प्राकृतिक खेती के लाभ स्पष्ट तौर पर दिखाई नहीं देते हैं। खेती की लागत, कमाई, मुनाफा और कितना उत्पादन होता है इन चीजों पर बड़े बदलाव नहीं दिखाई देते। इसी तरह प्राकृतिक खेती इनपुट के खर्चों को कम कर सकती है, लेकिन लेबर पर किया थोड़ा ज्यादा खर्च उस लाभ को कम कर सकता है।
वहीं जब खेतों का आकार बड़ा होता है तो प्राकृतिक खेती के फायदे कहीं ज्यादा स्पष्ट होते हैं और आर्थिक प्रदर्शन में भी सुधार आता जाता है। ऐसे में प्राकृतिक कृषि को छोटे क्षेत्रों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। इसका मौजूदा के साथ नए क्षेत्रों में भी विस्तार किया जाना चाहिए। यह तब तक जारी रहना चाहिए जब तक हर किसान को इसका स्पष्ट रूप से फायदा न मिले, भले ही बाजार जैसी बड़ी आर्थिक स्थिति में बदलाव न हो।
प्राकृतिक खेतों में भी मिट्टी के स्वास्थ्य की निगरानी करना
फार्म स्तर पर प्राकृतिक खेती (एनएफ) की सफलता को बनाए रखने के लिए पोषक तत्वों के प्रबंधन (उर्वरक और जैविक सामग्री) के साथ-साथ मिट्टी के स्वास्थ्य की निगरानी भी महत्वपूर्ण है। जब कोई परियोजना पुष्टि करती है कि प्राकृतिक खेती का उपयोग किया जा रहा है, तो यह महत्वपूर्ण है कि पोषक तत्वों का उचित प्रबंधन हो। ऐसा इसलिए है क्योंकि कुछ किसान अभी भी सिंथेटिक उर्वरकों का उपयोग कर सकते हैं जबकि अन्य असंतुलित जैविक सामग्री का उपयोग करते हैं।
चूंकि कृषि एक ही क्षेत्र की मिट्टी बहुत अलग हो सकती है। ऐसे में प्राकृतिक कृषि मिट्टी के स्वास्थ्य को अलग तरह से प्रभावित कर सकता है, और मिट्टी का नियमित परीक्षण सभी खेतों के लिए काम नहीं कर करता। उपलब्ध पोटैशियम ऑक्साइड को छोड़कर मिट्टी के गुणों के संबंध में प्राकृतिक कृषि और और गैर-प्राकृतिक कृषि के बीच अंतर का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है। ऐसे में जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक कृषि हो रही है वहां संभावित पोषक तत्वों की कमी को रोकने के लिए प्रमुख पोषक तत्वों की उपलब्धता पर निगरानी रखना जरूरी है।
सूक्ष्मजीवों की गिनती, प्राकृतिक कृषि के केवल मिट्टी पर पड़ते प्रभाव का एक संकेतक है। ऐसे में अध्ययन यह समझने के लिए सूक्ष्मजीवों की एंजाइमेटिक गतिविधियों को देखने का सुझाव देता है कि वे पोषक तत्वों की उपलब्धता में कैसे सुधार करते हैं। एंजाइमेटिक गतिविधियों की जांच करने और सूक्ष्मजीवों की पहचान करने से प्राकृतिक खेती में मिट्टी के स्वास्थ्य की निगरानी करने में मदद मिल सकती है। इसके लिए एजेंसियों और विशेष अनुसंधान संस्थानों के बीच सहयोग की आवश्यकता है।
प्राकृतिक खेती में महिलाओं का मुद्दा
प्राकृतिक कृषि से जुड़ी परियोजनाओं में अक्सर महिला समूह शामिल होते हैं, लेकिन महिलाओं को बिना वेतन के ज्यादा काम देने से बचना जरूरी है। इससे उनके उनके सशक्तिकरण और कार्यभार पर असर पड़ सकता है। जबकि महिलाएं छोटे कृषि क्षेत्रों से लाभ उठा सकती हैं। वही यह लाभ बड़े खेतों के लिए भी उपलब्ध होना चाहिए जो बेचने के लिए फसलों का अधिक उत्पादन करते हैं।
सुनिश्चित करना जरूरी है कि प्राकृतिक खेती पर्यावरण और ऊर्जा उपयोग पर सकारात्मक प्रभाव डाले
प्राकृतिक खेती की मदद से खेतों से होते उत्सर्जन को कम किया जा सकता है साथ ही इसकी मदद से बेहतर ऊर्जा दक्षता हासिल हो सकती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि प्राकृतिक खेती में सिंचाई और भूमि को तैयार करने के लिए बहुत कम सिंथेटिक उर्वरकों और जीवाश्म ईंधन का उपयोग किया जाता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक खेती को सफल बनाने और पर्यावरण को होने वाले संभावित नुकसान से बचने के लिए, भूमि की तैयारी, सिंचाई (जैसे सौर ऊर्जा से चलने वाले पंपों का उपयोग करना), और उपज के साथ लाभ में लगातार सुधार (जैसे फसलों में फलियां आदि शामिल करना) जैसे स्थाई स्थायी तरीकों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
प्राकृतिक खेती के ऊर्जा और उत्सर्जन संबंधी लाभों को बनाए रखने के लिए जैविक सामग्रियों का सही तरीके से उपयोग करना महत्वपूर्ण है। यह भी आवश्यक है कि फसलों का बुद्धिमानी से चयन किया जाए। ऐसी फसलों (जैसे बाजरा, दालें और तिलहन) को प्राथमिकता दी जाए जिनके लिए बहुत ज्यादा संसाधनों की आवश्यकता न हो। इसी तरह बहुस्तरीय फसलों या प्रणालियों का उपयोग करना जो लगातार अधिक पौधों का उत्पादन करती हैं, प्राकृतिक खेती को अच्छी तरह से काम करने में मदद कर सकती हैं।
प्राकृतिक खेतों पर संसाधनों के पुनर्चक्रण के लिए स्मार्ट तरीकों का उपयोग करना।
बेहतर परिणामों के लिए छोटी जोतों में संसाधनों को साझा करना महत्वपूर्ण है। कम लागत वाली प्राकृतिक खेती की स्थिरता बनाए रखने के लिए संसाधनों को साझा करना जरूरी है। इससे मवेशियों का चारा, प्राकृतिक कीट नियंत्रण और ईंधन जैसी चीजें को करने में मदद मिल सकती है। प्राकृतिक खेती के साथ कृषि वानिकी के संयोजन के परिणाम आशाजनक हैं। प्राकृतिक इनपुट बनाने के नए तरीके भी स्थानीय कृषि प्रणालियों को अधिक प्रभावी बना सकते हैं।
प्राकृतिक खेती की पारिस्थितिकी सेवाओं का लेखा-जोखा तैयार करना
नीति निर्माताओं को यह समझाने के लिए कि प्राकृतिक खेती फायदेमंद है, इसके पर्यावरण को होने वाले लाभों की गणना करना जरूरी है। हालांकि यह इतना सरल नहीं है, प्राकृतिक कृषि विविधता से भरपूर है, इसमें संसाधनों के उपयोग और खेतों के प्रबंधन के कई तरीके हैं।
पारम्परिक खेती में लागत और पर्यावरणीय प्रभावों का आकलन करने के निश्चित तरीके होते हैं, हालांकि ये तरीके प्राकृतिक कृषि पर फिट नहीं होते। इसके अलावा, ऊर्जा और उत्सर्जन को मापते समय, प्राकृतिक कृषि में उपयोग किए जाने वाले गैर-रासायनिक इनपुट, जैसे कि बीज और प्राकृतिक कीटनाशकों के उपचार के लिए कोई मानक आंकड़े नहीं है। जिस तरह से इन इनपुटों को मापा जाता है वह मानक नहीं है, और लोगों की याददाश्त पर निर्भर रहने से मूल्यांकन में गलतियां हो सकती हैं।
ऐसे में प्राकृतिक कृषि में पर्यावरण सम्बन्धी लाभों की गणना करने के लिए एक विशेष तरीका बनाना और फिर एनएफ परियोजनाओं में किसानों को उनके काम पर नजर रखने में मदद करने के लिए इसका उपयोग एक अच्छा विचार है।
अनुभवों के आधार पर भविष्य की प्राकृतिक कृषि परियोजनाओं की योजना बनाना
जब किसी क्षेत्र में प्राकृतिक खेती शुरू की जाती है या उसका विस्तार किया जाता है तो यह कुछ कारकों पर निर्भर करता है जैसे कि भू-स्वामित्व, भूमि उपयोग, पानी तक पहुंच, मवेशी और परिवार की कितनी मदद उपलब्ध है। प्राकृतिक खेती का लक्ष्य आमतौर पर उपज, लाभ और जैव विविधता जैसी चीजों को बढ़ाना के साथ उत्सर्जन और सिंथेटिक उर्वरक के उपयोग को कम करना होता है। इसे प्रशिक्षण के माध्यम से पेश किया जाता है और दिखाया जाता है कि यह कैसे काम करती है। इसके लिए सहकारी समितियों जैसे समूहों का निर्माण किया जाता है।
इससे किसान अपने काम करने के तरीके में बदलाव लाते हैं, जैसे केमिकल के बजाय अधिक जैविक सामग्री का उपयोग करना और विभिन्न फसलों का चयन करना। यह बदलाव लागत, लाभ और ऊर्जा उपयोग को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के बदलाव तब बेहतर काम करते हैं जब इससे जुड़ी नीतियां मौजूद हों जो किसानों को अपने उत्पाद बेचने में मदद करें। साथ ही पर्यावरण की देखभाल के बदले भुगतान करने के जोखिमों से निपटने में उनके लिए मददगार हों।
गौरतलब है कि इस अध्ययन में उर्वरक और ऊर्जा सब्सिडी जैसी बड़ी आर्थिक और क्षेत्रीय नीतियों पर ध्यान नहीं दिया गया है।