गंभीर कृषि संकट से जूझ रहा है हरित क्रांति का गढ़ जौन्ती गांव

एमएस स्वामीनाथन ने इस गांव को हरित क्रांति के बीज तैयार करने के लिए चुना था। तब देश के कौने-कौने से लोग बीज खरीदने यहां पहुंचते थे
जौन्ती गांव के राज सिंह ने गाजर का बाजार भाव गिरने के बाद खेत से गाजर नहीं उखाड़ी। अब भी उनके खेत में गाजर की फसल खड़ी है। फोटो: मिथुन विजयन
जौन्ती गांव के राज सिंह ने गाजर का बाजार भाव गिरने के बाद खेत से गाजर नहीं उखाड़ी। अब भी उनके खेत में गाजर की फसल खड़ी है। फोटो: मिथुन विजयन
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राज सिंह जौन्ती गांव के बड़े किसान (स्थानीय भाषा में जमींदार) हैं। उन्होंने पिछले साल (2018) में 160 एकड़ के खेत में गेहूं, सरसों और गाजर की फसल बोई थी। 2017 में ठीक दाम मिलने पर जमीन के एक बड़े हिस्से (70 एकड़) में उन्होंने गाजर उगा दी, लेकिन उनकी उम्मीदों को तगड़ा झटका उस समय लगा, जब उनकी गाजर का फसल खराब हो गई।

अभी वह इस संकट से जूझ ही रहे थे कि पता चला कि गाजर का बाजार भाव बहुत गिर गया है। भाव इतना कम था कि मजदूरों से गाजर उखड़वाकर उसे बेचना घाटे का सौदा था। अत: उन्होंने अपने खेत से गाजर नहीं उखाड़ने का फैसला किया और उसे घुमंतू समुदाय के हवाले कर दिया। घुमंतू समुदाय ने उनके खेत में सैकड़ों गाय छोड़ दीं, जिन्होंने लगभग पूरी फसल चर डाली।    

राज सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया “रही सही कसर ओलों ने पूरी कर दी। ओलों से सरसों के खेत पूरी तरह तबाह हो गए।” राज सिंह आगे बताते हैं कि उन्होंने 65 एकड़ खेत अपने भाइयों या दूसरे लोगों से किराए पर लिया था जबकि 5 एकड़ की खेत उनका खुद का है। पूरी खेती में उन्होंने करीब 30 लाख रुपए लगा दिए थे। करीब 20 लाख रुपए उन्होंने उधार लिए थे। उनका कहना है कि 30 लाख की लागत में केवल 10 लाख की भरपाई हो पाई। यानी करीब 20 लाख रुपए का उन्हें नुकसान झेलना पड़ा। फसल नष्ट होने और बाजार भाव गिरने से उन पर भारी कर्ज चढ़ गया है।

कुछ ऐसी ही स्थित गांव में रहने वाले रणवीर सिंह, सुदर्शन उर्फ सुआ आदि किसानों की भी है। इन किसानों को भी गाजर की खेती से भारी नुकसान हुआ है।

गांव की चौपाल पर बैठकर ताश खेल रहे वीरेंद्र सिंह बताते हैं कि जिस किसान के पास जितने ज्यादा खेत हैं, उनका नुकसान भी उतना ही बड़ा है। किसान से बेहतर स्थिति रेहड़ी पटरी लगाने वालों की है। वह बताते हैं कि जो किसान अपना खुद का पेट नहीं भर सकता, वह अपने बच्चों को शिक्षा कहां से देगा?

चौपाल पर ही बैठे राजीव सिंह राजनीतिक दलों पर गुस्सा निकालते हुए कहते हैं, “चुनावी घोषणापत्रों में किसानों को सपने दिखाए जा रहे हैं। अगर नेताओं और सरकारों को किसानों की सचमुच चिंता होती है तो वे समर्थन मूल्य क्यों नहीं बढ़ा देते? ये चुनावी घोषणाएं किसानों के हित में नहीं है। किसी नेता का मूल समस्या पर ध्यान ही नहीं है।” वह बताते हैं कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने कुछ महीने पहले गेहूं का समर्थन मूल्य बढ़ाकर 2,600 रुपए करने की घोषणा की थी लेकिन अब भी मंडियों में 1,800 रुपए प्रति क्विंटल के हिसाब से गेहूं की खरीदारी हो रही है। इतना ही नहीं, मंडी से भी करीब डेढ़ माह बाद भुगतान होता है। सरसों भी सरकारी रेट से कम दाम पर खरीदी जा रही है।

हरित क्रांति के बीज दिए थे गांव ने

देश के अन्य गांवों की तरह गंभीर कृषि संकट से जूझ रहा जौन्ती आम गांव नहीं है। यह वही गांव है, जहां हरित क्रांति के बीज तैयार हुए थे। साठ के दशक में इस गांव को जवाहर जौन्ती बीज ग्राम के नाम से जाना जाता था। हरित क्रांति के जनक कृषि वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन ने इस गांव को हरित क्रांति के बीज तैयार करने के लिए चुना था। तब देश के कौने-कौने से लोग बीज खरीदने यहां पहुंचते थे। गांव के पूर्व प्रधान हुकुम सिंह को अब भी वह दौर याद है जब देशभर की नजरें इस गांव पर टिक गई थीं। 87 साल के हुकुम सिंह अपने खेत में हरित क्रांति के लिए बीजों को तैयार करने वाले किसानों में शामिल थे।

वह बताते हैं कि हरित क्रांति से पहले एक एकड़ के खेत में 15-20 मन गेहूं (एक मन 40 किलो के बराबर) होता था। हरित क्रांति के वक्त नए बीजों और उर्वरकों के इस्तेमाल के बाद एक एकड़ की उपज बढ़कर 50-60 मन पहुंच गई। इसके बाद किसानों की आमदनी अचानक बढ़ गई।

डाउन टू अर्थ ने जब उनसे वर्तमान स्थिति के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया, “अब पहले जैसे बात नहीं रही। अब तो एक एकड़ में 30-40 मन गेहूं ही उपजता है।” उनका कहना है कि जब हरित क्रांति के लिए बीज तैयार किए जा रहे थे, तब गांव में नहरों का पानी उपलब्ध था, भूमिगत जल भी 30 फीट की गहराई पर था। अब खेती के लिए पानी का भीषण संकट हो गया है। अब नहर में पानी नहीं है और भूमिगत जल भी खारा हो गया है। सिंचाई का एकमात्र साधन बारिश और भूमिगत जल है जो करीब 100 फीट नीचे गिर गया है।

इसी संकट को 70 साल के संतोष चंदरवत्स विस्तार देते हुए बताते हैं कि आज पानी न होने से पैदावार घट रही है। मॉनसून की बारिश कम होने से जमीन पानी नहीं सोख पाती। कुल मिलाकर इसका किसानों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। वह बताते हैं कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कार्यकाल में दिल्ली देहात का दर्ज खत्म होने के बाद नहर में पानी आना बंद हो गया और किसानों को खाद पर मिलने वाली सब्सिडी भी बंद हो गई। अब खेती की लागत इतनी बढ़ गई है कि किसान द्वारा उसकी भरपाई करना मुश्किल है।

वह बताते हैं कि हरित क्रांति से पहले फसलों में यूरिया का इस्तेमाल नहीं होता था। हरित क्रांति में उत्पादन को बढ़ाने में एक बड़ा योगदान यूरिया का था। अब किसानों को इसकी आदत हो गई है। अब बिना यूरिया के फसल ही नहीं होती। वह स्वीकार करते हैं कि यूरिया ने जहां पैदावार बढ़ाई, वहीं भूमिगत जल भी खारा कर दिया और कैंसर जैसी बीमारियों का कारण बन रहा है। अब किसान बिना यूरिया के इस्तेमाल फसल के बारे में सोच भी नहीं सकता। 

गांव के एक अन्य किसान बलजीत सिंह बताते हैं कि 1967 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यहां आकर बीज सेंटर की नींव रखी थी। अब उस सेंटर की जगह डिस्पेंसरी खुल गई है। वह बताते हैं कि आज अपना ऐतिहासिक महत्व भूल गया है। वह बताते हैं कि 10 साल पहले एमएस स्वामीनाथन यहां आए थे और गांव की हालत देखकर रो पड़े थे।

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