राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) के मुताबिक, 2012 के बाद से बेरोजगारी और घरेलू कर्ज में वृद्धि हुई है। इससे देश के गरीबों के लिए जरूरी न्यूनतम जीवन स्तर बनाए रखना भी मुश्किल हो गया। दुर्भाग्य से, यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) से प्रेरित हाल की योजनाओं का लक्ष्य गरीबों की समस्या सुलझाने से अधिक वोट जुटाने की है। 2017 के आर्थिक सर्वेक्षण में सुझाए गए अर्ध-यूबीआई को अपनाने और कई मौजूदा विकासात्मक कार्यक्रमों को खत्म करने की जगह, यह आलेख एक पूरक के रूप में नकद हस्तांतरण को बेहतर बनाने का तरीका बता रहा है। कोविड-19 ने गरीबों की आय को काफी नुकसान पहुंचाया है। इस वजह से भी गरीबों के लिए न्यूनतम आय गारंटी आवश्यक हो जाती है।
2017-18 में देश की श्रम शक्ति का 3 करोड़ या 6.1 प्रतिशत श्रमिक शक्ति बेरोजगार थी। 2021 के वित्तीय वर्ष में, मंदी और मुख्य रूप से कोविड-19 के कारण अर्थव्यवस्था की हालत और बिगड़ जाएगी। यहां तक कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद ने भी चेतावनी दी है कि बेरोजगारों की संख्या 4 से 5 करोड़ तक बढ़ जाएगी। यह हमारी आबादी के सबसे गरीब तबके की हालत और खराब कर देगी। उदाहरण के लिए, एनएसएसओ का साल 2013 के अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण से पता चलता है कि उस वर्ष 9 करोड़ किसान परिवारों में से 51.9 प्रतिशत कर्जदार थे। इससे भी बदतर स्थिति ये थी कि यह कर्ज उपभोग के उद्देश्यों के लिए थे, न कि कृषि कार्य के लिए।
यदि इस वक्त गरीबों को आय की गारंटी नहीं मिलती है, तो सामाजिक संघर्ष बढ़ जाएगा। लेकिन नकदी हस्तांतरण के मौजूदा तरीके बेहद कमजोर साबित हुए हैं। लॉकडाउन के पहले 21 दिनों के दौरान, स्ट्रेंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क (स्वान) द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत नकद हस्तांतरण या मुफ्त खाद्यान्न आपूर्ति शायद ही किसी के पास पहुंची। सर्वेक्षण में शामिल 11,100 प्रवासी श्रमिकों में से 98 प्रतिशत ने बताया कि उन्हें कुछ नहीं मिला। 32 दिनों के बाद एक और सर्वेक्षण हुआ, जिसमें थोड़ा सुधार दिखा।
विभिन्न राज्यों के 4,000 श्रमिकों पर हुए एक और सर्वेक्षण से पता चला है कि ग्रामीण क्षेत्रों के आधे और शहरी क्षेत्रों के एक तिहाई श्रमिकों को सरकार से नकद हस्तांतरण नहीं मिला। उनमें से लगभग 37 प्रतिशत ने कहा कि अपनी आजीविका खो देने के कारण उन्हें लॉकडाउन के दौरान खर्चों को पूरा करने के लिए कर्ज लेना पड़ा था। इसमें से ज्यादातर कर्ज महाजनों, दोस्त या परिवारों से लिए गए थे। इस स्तर की बेरोजगारी दूर करने के लिए उद्योग और सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार सृजन की जरूरत होगी। लेकिन कोविड-19 के बाद के कुछ समय तक ऐसा हो पाना संभव नहीं है। यहां तक कि कोविड-19 से पहले भी, रोजगार सृजन कम हो रहे थे। पढ़े-लिखे युवाओं तक को काम नहीं मिल पा रहा था। भारत के गरीबों को इस समय सामाजिक सहायता के रूप में नकद हस्तांतरण तंत्र की सख्त आवश्यकता है।
मिग (एमआईजी) का समय आ चुका है
2017 में तीन नकद हस्तांतरण योजनाएं शुरू की गई थीं। तेलंगाना सरकार द्वारा रायथुबंधु, ओडिशा सरकार द्वारा कालिया और केंद्र द्वारा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना। इन तीनों योजनाओं में एक समानता है। तीनों ही योजनाएं किसानों को नकद हस्तांतरण देती हैं। ये तीनों योजनाएं राज्य या राष्ट्रीय चुनावों के कुछ महीने पहले शुरू की गई थीं और सत्ता में बैठी पार्टी द्वारा घोषित की गई थीं। दिलचस्प रूप से तीनों पार्टियां दुबारा सत्ता में आई। लेकिन इन योजनाओं के डिजाइन में कुछ समस्याएं रही हैं। सबसे पहले, ये किसानों को लक्षित करती हैं, जिससे लाखों अन्य लोग इससे बाहर हो जाते हैं और यहां तक कि किसानों की और कई श्रेणियां भी इस योजना से बाहर हैं। दूसरा, सरकारों ने यह समझ लिया है कि कृषि संकट और किसान आत्महत्या का समाधान कैश ट्रांसफर है। सरकारें इन योजनाओं को कृषि ऋण माफी के रूप में भी देख रही हैं और इसे कई राज्य सरकारों ने ग्रामीण संकट को राहत दिए बिना इन योजनाओं को अपना लिया। तीसरा, कई क्षेत्र इन योजनाओं से बाहर हैं, जिनके लाभ के लिए सरकारें प्रयास करती दिखती हैं। इस वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में पहले से व्याप्त असमानताएं और अधिक बढ़ सकती हैं। चौथी अहम बात यह है कि ये योजनाएं लाभार्थियों की पहचान करने में समस्याओं का सामना करती हैं। कई जगह जमीन के रिकॉर्ड कमजोर हैं, खराब हैं, शायद ही कभी अपडेट किए गए हैं और राज्यों में डेटा की गुणवत्ता अत्यधिक परिवर्तनशील है।
इससे साफ होता है कि इनमें से कोई भी कार्यक्रम गरीबों की कम खपत क्षमता जैसे गंभीर मुद्दे का हल निकलाने में सफल नहीं हो रही है। दूसरी तरफ, मिग (मिनिमन इनकम गारंटी) इस मुद्दे का सही समाधान दे सकता है। अभी देश के पास इसे सफल बनाने के लिए सभी बुनियादी ढांचे मौजूद हैं। भारत में नकदी हस्तांतरण को सफल बनाने के लिए, कम से कम तीन जरूरतों को पूरा किया जाना चाहिए। गरीबों की सही पहचान, लाभार्थियों की बायोमेट्रिक पहचान और उनके लिए बैंक खाते। 2018 से ही ये तीनों पूर्व शर्तें हम पूरी कर चुके हैं, जो भारत को एक विश्वसनीय लक्षित नकद हस्तांतरण कार्यक्रम शुरू करने में सक्षम बना सकते हैं। सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना 2011-13 (एसईसीसी) सही मानदंडों के आधार पर लाभार्थियों की सही पहचान करती है। फिर, सभी नागरिकों के पास आधार कार्ड है, जो बायोमेट्रिक आधारित है। इससे गलत लाभार्थी की आशंका ऐसे ही समाप्त हो जाती है। अंत में, जन धन योजना के तहत 30 करोड़ से अधिक खाते खोले जा चुके हैं। इसका अर्थ है कि तकरीबन सभी परिवारों के पास बैंक खाते हैं।
पर अभी भी कुछ मुद्दों का हल निकालना होगा। एसईसीसी सात साल पुराना है और इन सूचियों को ग्राम सभाओं द्वारा फिर से मान्य करवाया जाना चाहिए। ऐसा करके सही लाभार्थी की पहचान की जा सकती है और गलत लोगों को सूची से हटाया जा सकता है। “अस्तित्वविहीन लाभार्थियों” (घॉस्ट बेनिफिशियरी) को हटाने के लिए आधार संख्या को बैंक खातों से लिंक करना चाहिए। तीसरा, एक से अधिक बैंक खाते वाले किसी भी परिवार को लाभार्थी सूची से हटा दिया जाना चाहिए। ऐसे परिवार भी हो सकते हैं, जिनके बैंक खाते न हो। ऐसे परिवारों को ग्राम सभाओं और मुहल्ला सभाओं के माध्यम से खोजना होगा। अंतत:, चूंकि बैंक शाखाएं प्रति चार-पांच गांवों की दूरी पर मौजूद हैं, इसलिए बैंकिंग संवाददाताओं (बिजनेस कॉरेस्पोंडेंट) की संख्या बढ़ानी होगी।
किसे कितना मिले?
इसके लिए हमारे पास एक विचार है। 10.9 करोड़ या 60.65 प्रतिशत ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जिन्हें मिग लाभार्थियों के रूप में शामिल करने की आवश्यकता है। 7.07 करोड़ ऐसे परिवार हैं, जो बेहतर स्थिति में हैं, वे करदाता हैं या उनके पास एक वाहन है, इसलिए वे स्वत: ही इस योजना से बाहर हो जाते हैं।
जिन लोगों को आय हस्तांतरण के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, उनमें ऐसे परिवार हैं, जो एसईसीसी के ऑटोमेटिक इंक्लुजन क्राइटेरिया (स्वत: समावेशन मानदंड) के तहत आते हैं। ये आमतौर पर पांच श्रेणियों में से किसी एक में आते हैं, जैसे बिना घर वाले परिवार, निराश्रित या भिक्षाटन/ दान पर आश्रित परिवार, हाथ से मैला/ कचरा साफ करने वाले परिवार, आदिम जनजाति समूह वाले परिवार और कानूनी तौर पर रिहा किए गए बंधुआ मजदूर वाले परिवार।
10.74 करोड़ ग्रामीण परिवार ऐसे हैं, जो सात मापदंडों में से एक या अधिक मापदंडों के तहत आते हैं, उन्हें भी मिग में शामिल किया जाना चाहिए। पहला है, भूमिहीन परिवार, जो अपनी आय का बड़ा हिस्सा शारीरिक लेकिन अनियमित श्रम से प्राप्त करते हैं। दूसरा, अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के परिवार। तीसरा, ऐसे परिवार जिसमें 25 साल से ऊपर का कोई वयस्क साक्षर नहीं है। चौथा, कच्ची दीवारों और कच्ची छत वाले एक कमरे का घर। पांचवां, ऐसे परिवार, जिसमें 16 से 59 वर्ष की आयु का कोई वयस्क सदस्य नहीं है। छठा, ऐसे परिवार जिसकी मुखिया महिला हो और परिवार में 16 से 59 साल के बीच कोई वयस्क पुरुष सदस्य नहीं है। सातवां, ऐसा परिवार जिसमें विकलांग सदस्य है और कोई सक्षम वयस्क घर में नहीं है।
इस तथ्य को देखते हुए कि एसईसीसी ने अभी तक पूर्ण डेटा जारी नहीं किया है। शहरी क्षेत्रों के लिए अभाव के आधार पर पहचान का पता नहीं लगाया जा सकता। इसलिए, केवल शहरी झुग्गियों में रहने वाले परिवारों को मिग में शामिल किया जाना चाहिए। एसईसीसी के आंकड़ों के मुताबिक, देश के 20 फीसदी शहरी परिवार इस सूची में आते हैं। लाभार्थियों के रूप में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों के अलावा, बुजुर्गों के परिवार, विकलांग सदस्यों वाले परिवार और महिला मुखिया वाले परिवारों को मिग के लिए योग्य माना जाना चाहिए।
हमारा प्रस्ताव है कि हस्तांतरित किया जाने वाला धन परिवारों के समक्ष आने वाले अभाव का सीधा आनुपातिक होना चाहिए। सबसे कमजोर और स्वत: ही इस योजना में शामिल ग्रामीण परिवारों को प्रति परिवार प्रति वर्ष 8,000 रुपए दिए जाने चाहिए। इसी तरह, कई अभावों से जूझ रहे ग्रामीण परिवारों को सालाना 6,000 रुपए मिलने चाहिए और सिर्फ एक अभाव से जूझ रहे ग्रामीण परिवारों को सालाना 4,000 रुपए दिए जाने चाहिए, जबकि ऐसे ग्रामीण परिवार जो कम से कम अभाव झेल रहे हैं या उनके वंचित होने की रिपोर्ट नहीं है, उन्हें सालाना 3,000 रुपए दिए जाने चाहिए। शहरी झुग्गी-झोपड़ी वाले परिवारों के मामले में, सालाना 3,000 रुपए मिलने चाहिए।
हमारा प्रस्ताव है कि ग्रामीण परिवारों का 70 प्रतिशत और शहरी परिवारों (शहरी मलिन बस्तियों) का 20.12 प्रतिशत हिस्से को मिग का लाभ देने के लिए 56,900 करोड़ रुपए या भारत की जीडीपी का 0.28 प्रतिशत (2019-20) खर्च करना होगा। अन्य 21 प्रतिशत कमजोर शहरी परिवारों को अतिरिक्त कवरेज देने के लिए 10,628 करोड़ रुपए या भारत की जीडीपी का 0.05 प्रतिशत खर्च करना होगा। इससे इस प्रस्तावित योजना में 41 प्रतिशत शहरी परिवारों को शामिल किया जा सकेगा। कुल मिलाकर इस प्रस्तावित योजना में ग्रामीण परिवारों का 70 प्रतिशत और शहरी परिवारों का 41 प्रतिशत हिस्सा शामिल होगा, जिसकी कुल लागत 67,528 करोड़ रुपए या भारत की जीडीपी का महज 0.33 प्रतिशत खर्च होगा। यह खर्च कुछ भी नहीं है, अगर आप वित्तीय वर्ष 2021 के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का खर्च देखें। एक वित्त वर्ष के लिए प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना का खर्च है, 60,000 करोड़ रुपए। प्रस्तावित मिग (मिनिमम इनकम गारंटी) आसानी से इस योजना की जगह ले सकती है।
(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सेंटर फॉर इनफॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)